1863 में जन्मे स्वामी विवेकानंद जब किशोरावस्था में ही रहे होंगे, तब तक देबेन्द्रनाथ टैगोर का 'बंगाल में 'औद्योगिक क्रांति' का सपना टूट चुका था जो उन्होंने हुगली नदी के किनारे देखा था. बंगाल के उद्योग धीरे-धीरे बंबई शहर में शिफ्ट हो रहे थे. बंगाल अपनी ही जमीन पर अपना स्थान खोता चला जा रहा था. रविन्द्रनाथ के दादा यानी द्वारकानाथ टैगोर एक अग्रणी व्यवसायी थे.
वे किसी बैंक में पहले भारतीय डायरेक्टर थे. जूट, कोयला, चाय और बाकी कई चीजों में काम करने वाली एक आंग्ल-भारतीय एजेंसी के सह-संस्थापक थे. टैगोर पानी के जहाजों और स्टीमर के व्यवसाय से भी जुड़े हुए थे. वे चीनी मिल, कोयला की खानों और नमक के उत्पादन में भी सक्रिय थे. लेकिन जब तक विवेकानंद दुनियादारी को समझ पाते. तब तक देबेन्द्रनाथ का सपना बिखरने लगा था.
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द्वारकानाथ के खुद के बेटे देबेन्द्रनाथ अध्यात्मिक रूप से इतने कुलीन हो चुके थे कि व्यापार संभव नहीं था. एक तरफ द्वारकानाथ को 'प्रिंस' के उपनाम से जाना जाता था, क्योंकि उन्होंने बहुत अधिक संपत्ति अर्जित की थी. दूसरी तरफ उनके पुत्र देबेन्द्रनाथ 'महर्षि' थे, लोगों के बीच एक दार्शनिक थे. उन्होंने ब्रह्म समाज में पूजा के लिए एक नए रास्ते की खोज की. ये संक्रमण अपने आप में अपनी कहानी खुद बता रहा है. ये वही देबेन्द्रनाथ हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि युवा विवेकानंद उनसे पूछने गए थे कि क्या आपने भगवान को देखा है? तब दार्शनिक स्वभाव के देबेन्द्रनाथ ने सवाल को टालते हुए एक टिप्पणी की थी कि ''नरेन (विवेकानंद) के पास योगी की नजर है'.'
द्वारकानाथ का सपना तब आंशिक रूप से टूट गया, जब उन्होंने पाया कि जो धन उन्होंने अर्जित किया था उसने एक ऐसे एलिट व्यक्ति को जन्म दिया जो अपनी जमींदारी से आने वाली आय पर ही निर्भर है. जो अंग्रेज लोगों का और करीबी से अनुकरण करने लग गए हैं. लेकिन तब भी जबकि उन्होंने अपनी व्यावसायिक रुचि खो दी थी, तब भी विवेकानंद की उम्र के बंगालियों ने परिष्कृत होने के कुछ निश्चित उपाय खोज लिए थे. भले ही धीरे-धीरे पैसा जाता रहा, लेकिन संस्कृति रुकी रही और कुछ पल के लिए पनपी भी.
लेकिन आज के बंगाल के साथ यही दिक्कत है. अगर ईमानदारी से कहें तो ये दिक्कत दशकों से रही है कि व्यवसाय के प्रति रुचि और संस्कृति की उच्चतम विशेषज्ञता दोनों ही दूर हो चुकी है. आज भी बहुत से बंगालियों में उच्च संस्कृति मौजूद है, लेकिन अक्सर बंगाल के बाहर. इसी तरह जहां बंगालियों में पैसा है या उद्योग है, वह भी अक्सर उनके गृह राज्य के बाहर ही है.
बंगाल और बंगालियों के लिए सबसे पहले समझने की चीज यही है. और ये घर से ही आती है. जैसे कि टैगोर परिवार में पैसा, संस्कृति, परिष्करण और कविता से पहले आया. द्वारकानाथ का उद्योग भी ब्रह्म समाज के उदात्त विचारों और रबिन्द्रनाथ के नोबेल पुरस्कार से पहले आया. यही समझने की जरूरत है. आध्यात्मिकता और उच्च संस्कृति से पहले यहां उद्यम थे.
ये मूल कमी वर्षों से चली आ रही है. सबसे पहले इसे ही सही करने की जरूरत है. इसे बदलने के लिए एक नजरिए की जरूरत है. आज भी बंगाल में वे सब सुविधाएं हैं जो देबेन्द्रनाथ के समय मौजूद थीं. उपजाऊ मिट्टी, अपेक्षाकृत अच्छी तरह से शिक्षित श्रम शक्ति, कोलकाता में एक प्रॉपर अर्बन हब (कलकत्ता), मजबूत बंदरगाह, ऐसा कोई कारण नहीं है कि बंगाल एक बार फिर से दुनिया के प्रमुख आर्थिक केंद्रों के रूप में नहीं उभर सके.
अशोक मित्रा ने साल 1963 में 'कलकत्ताः इंडियाज सिटी' में लिखा है कि अन्य जगहों से कलकत्ता आए व्यापारियों के योगदान और हिस्सेदारी की तुलना में, बंबई के उद्योगपतियों ने अपने शहर पर अधिक ध्यान केंद्रित किया. खासकर शुरुआती दिनों में. बंबई के अभिजातीय वर्ग ने मुंबई को बेहतर बनाने के लिए अपना पैसा लगाया. जबकि बंगाल के जमींदारों ने अपना पैसा जमींदारी में ही लगाया.
आज जबकि बंगालियों के सामने अपने ही राज्य में अपनी समृद्ध संस्कृति को खोने का खतरा है, द्वारकानाथ के अथक प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. हाल ही में सॉफ्टवेयर की रेस में शामिल हुए बंगाल को द्वारकानाथ से प्रेरणा लेनी चाहिए और उन अवसरों की तलाश करनी चाहिए, जहां फर्स्ट मूवर का लाभ मिले. जैसे कि डेटा साइंस का क्षेत्र
व्यवसाय के विरोधी नहीं, व्यावहारिक थे विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद खुद भी वाणिज्य या समृद्धि के विरोधी नहीं थे. वे व्यावहारिक थे. वे व्यावसायिक मामलों में बेढंगेपन के खिलाफ थे. पर्याप्त रूप से व्यवस्थित होने के लिए सख्त थे. वे ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो गरीबी या उद्यम की खामियों का रूमानीकरण करते हों. स्वामी विवेकानंद या द्वारकानाथ की स्मृति को पुनर्जीवित करने की दिशा में पहला कदम बंगाल को धनवान बनाने के लिए उद्यम की भावना को गति प्रदान करना होगा.
- हिंडोल सेनगुप्ता (हिंडोल सेनगुप्ता एक इतिहासकार और अवॉर्ड विनिंग नौ पुस्तकों के लेखक हैं.)