भारतीय इतिहास में कई क्रांतिकारियों को नाम दर्ज है. जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ न्योछावार कर दिया. कई क्रांतिकारियों के बारे में हम सभी जानते हैं और कई ऐसे हैं जिनके बारे में लोगों के बीच ज्यादा जिक्र नहीं किया जाता. ऐसा ही एक नाम है मातंगिनी हजारा का. वह भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली बंगाल की वीरांगनाओं में से एक थीं. जानते हैं उनके बारे में.
मातंगिनी हजारा का नाम भारतीय इतिहास में बड़े ही मान-सम्मान के साथ लिया जाता है. 'भारत छोड़ो आंदोलन' के तहत ही सशस्त्र अंग्रेज़ सेना ने आंदोलनकारियों को रुकने के लिए कहा गया था, लेकिन मातंगिनी हजारा ने अपने कदम पीछे नहीं लिए. उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज को अपने हाथों में ले लिया और जुलूस में सबसे आगे आ गईं.
यहां उन्होंने अंग्रेजों को दिखा दिया कि एक महिला क्या कर सकती है. यही वो समय था जब उन्होंने अंग्रेजी सरकार को साहस का परिचय दिया. बता दें, इसी समय उन पर अंग्रेजों ने गोलियां दागी गईं थी. जिसके बाद देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी. उनमें हिम्मत और साहस बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह था.
मातंगिनी हजारा का जन्म 19 अक्टूबर, 1870 में पश्चिम बंगाल के मिदनापुर नामक जिले में हुआ था. उनके पिता किसान थे. ऐसे में बचपन गरीबी में बीता. उन्होंने किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त नहीं की. उस दौर में लड़कियों को पढ़ाया नहीं जाता था.
उस समय बेहद की कम उम्र में शादी करवा दी जाती थी. मातंगिनी हजारा की उम्र काफी कम थी जब उनकी शादी करवाई गई. कम उम्र में उनकी शादी 60 साल के वृद्ध के साथ की करवाई गई थी. 18 साल की उम्र में वह विधवा हो गई थी.
जब आंदोलन में लिया था हिस्सा
वो साल 1930 का था जब आंदोलन में जब उनके गांव के कुछ युवकों ने भाग लिया था. ये वो समय था जब पहली बार मातंगिनी ने स्वतंत्रता के बारे में सुना और जाना कि अंग्रेज कैसे उनके देश पर राज कर रहे हैं. साल 1932 में एक गांव में जुलूस निकला गया था. वंदे मातरम् का बोलते हुए जुलूस प्रतिदिन निकलते थे. जब ऐसा एक जुलूस उनके घर के पास से निकला, तो उसने बंगाली परंपरा के अनुसार शंख ध्वनि से उसका स्वागत किया और जुलूस के साथ चल दी. उस समय मातंगिनी ने देखा कि जुलूस में कोई महिला शामिल नहीं है ऐेसे में उन्होंने जुलूस में शामिल होने का फैसला किया था.
जिसके बाद देखते ही देखते वह कई आंदोलन में शामिल हुई. जिसमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी के 'नमक सत्याग्रह' भी शामिल है. आपको महात्मा गांधी ने 12 मार्च, 1930 में अहमदाबाद के पास स्थित साबरमती आश्रम से दांडी गांव तक 24 दिनों का पैदल मार्च निकाला था. दांडी मार्च (Dandi March) जिसे नमक मार्च, दांडी सत्याग्रह के रूप में भी जाना जाता है 1930 में महात्मा गांधी के द्वारा अंग्रेज सरकार के नमक के ऊपर कर लगाने के कानून के विरुद्ध किया आंदोलन था.
बता दें, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने देश की आजादी के लिए लड़ने वाली महिला क्रांतिकारी मातंगिनी हजारा को याद करते हुए अंग्रेजी और बंगाली भाषा में ट्वीट किया है.
Homage to Maa Matangini Hazra, the legendary freedom fighter, on her birth anniversary
বিপ্লবী মা মাতঙ্গিনী হাজরার জন্মবার্ষিকীতে জানাই প্রণাম
— Mamata Banerjee (@MamataOfficial) October 19, 2019
इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाले क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया गया, किंतु मातंगिनी की वृद्धावस्था देखकर उन्हें छोड़ दिया गया. बता दें, उन्होंने तामलुक पुलिस स्टेशन पर जाकर तिरंगा झंडा फहरा दिया था. जिसके बाद को अंग्रेजी सरकार ने उन प्रताड़ित किया. 1933 में गवर्नर को काला झंडा दिखाने पर उन्हें 6 महीने की सजा भोगनी पड़ी. 29 सितंबर 1942 को तामलुक पुलिस स्टेशन पर मातंगिनी ने तिरंगा झंडा अपने हाथ में ले ले लिया और फहराने लगी. उनकी ललकार सुनकर लोग फिर से एकत्र हो गए थे.
बता दें, जब रैली तामलूक शहर के बाहरी इलाके में पहुंची, तो लोगों को वहां से जाने के लिए कहा गया था हाजरा ने आदेश का पालन करने से इंकार कर दिया और वंदे मातरम् बोलते हुए आगे बढ़ने लगीं. जिसके बाद अंग्रेजी सेना ने उनपर गोली चला दी.
पहली गोली मातंगिनी के पैर में लगी. जब वह फिर भी आगे बढ़ती गईं तो उनके हाथ को निशाना बनाया गया. लेकिन उन्होंने तिरंगा फिर भी नहीं छोड़ा. इस पर तीसरी गोली उनके सीने पर मारी गई और इस तरह एक अज्ञात नारी 'भारत माता' के चरणों मे शहीद हो गई. लेकिन देश की मिट्टी आज भी उन्हें नहीं भूल पाई है.