चीन के हुनान शहर में एक लड़के के चीखने की आवाज़ सुनाई दी. रेड आर्मी के कमांडर्स ने उसे पैर बांध कर उसके घुटने तोड़ दिए थे. तभी कमरे में दस्तक हुई. आवाज़ सुनते ही रेड आर्मी के कमांडर्स ने अपना सिर नीचा कर लिया. एक शख्स उनके करीब आया एक नजर उनपर डाली और ज़ख़्मी लड़के को देखते हुए बोला-तुमने ग़लती कर दी. किसी को भी मेरे खिलाफ जाने की इजाजत नहीं.
इतना कहते ही वो पास खड़े कमांडर के पास गया धीमे स्वर में बोला- इसे ज़िंदा गाड़ दो.
वो लड़का चीखता रहा... लेकिन हासिल कुछ न हो सका. कुछ देर बाद उसकी लाश ज़मीन के अंदर सड़ रही थी और उसकी मौत पर नाम लिखा था.... माओ त्से तुंग.
ये वक्त था जब भारत की तख्ती पर अंग्रेजी हुकूमत क्रूरता की दास्ताँ लिखने में व्यस्त थी. बंगाल को टुकड़ो में बांट दिया गया था और देश आंदोलन की आग में जल रहा था. इसी वक्त एक आग और धधक रही थी... पास के मुल्क चीन में... जहां हज़ारों साल से सत्ता में बैठी QING DYNASTY के ख़िलाफ लोग लामबंद हो रहे थे. कारण था जापान और यूरोप.... जिसने चीन के कई प्रांतों पर कब्ज़ा कर राजा की कमज़ोरी को जनता के सामने प्रदर्शित कर दिया था. लड़ने में असमर्थ QING डायनेस्टी अपने आखिरी दिनों की निगहबानी कर रहा था मगर लोग किसी भी सूरत में कमज़ोर शासक की सरपस्ती स्वीकार करने को राजी नहीं थे. आंदोलन तेज़ था और इसकी अगुवाई कर रहे थे दो गुट...नेशनलिस्ट और कम्युनिस्ट जो 600 मिलियन लोगों के हितैषी होने का दावा कर रहे थे.
इस पूरे आंदोलन की आगुआई कर रहे थे दो गुट... नेशनलिस्ट और कम्युनिस्ट. नेशनलिस्ट... वेस्टर्न विचारों की पैरवी करते तो वहीं कम्यूनिस्ट इसका विरोध... बावजूद इसके दोनों का लक्ष्य एक... राजा को गद्दी से उखाड़ फेंकना.
माओ भी अपने किसान पिता के साथ क्रांति के हामी थे. एक साल बाद 1912 में QING DYNASTY ढह गई और इसके साथ ही उदय हुआ रिपब्लिक ऑफ चाइना का. देश से राजशाही ख़त्म हो चुकी थी मगर 19 साल के माओ अभी भी अपनी विचारधारा तलाशने में जुटे थे और ये तलाश ख़त्म हुई 1921 में. कम्युनिस्टों के गढ़ पीकिंग यूनिवर्सिटी में दाखिला ले चुके माओ मार्क्स में अपनी रुचि दिखा रहे थे. मार्क्स को पढ़ने के बाद उन्हें ये भरोसा हो गया कि अगर चीन की तरक्की का कोई रास्ता है तो वो है... कम्युनिजम.
मार्क्स को अपना गुरु मान चुके माओ राजनीति में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने लगे. हालांकि इसके पहले वो छात्रों के संगठन बनाते और संभालते रहे. माओ न्यू हूनान नाम की एक लिबरल मैगजीन के संपादक बन गए. इसमें उन्होंने महिला अधिकारों और नए समाज की बात की. जल्द ही इन आर्टिक्ल्स की बदौलत वो शोहरत पाने लगे. जीवन के इन सालों में माओ छोटी-छोटी नौकरियां करते रहे. इसी दौरान चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई. माओ ने अपने इलाके में इसकी ब्रांच शुरू की और 1921 में जब देशभर के मार्क्सवादि गुटों ने शंघाई में कम्युनिस्ट पार्टी की पहली नेशनल कांग्रेस बुलाई तो माओ उसमें शामिल थे. माओ हुनान प्रांत में पार्टी के महासचिव बनाए गए. एक बड़ी घटना दस्तक देने वाली थी. लेनिन की सलाह पर जिसने चीन की नेशनलिस्ट पार्टी Kuomintang के साथ हाथ मिला लिया. 5 साल तक चले इस गठजोड़ में माओ को अहम पद मिले. मगर 1927 आते आते इस गठबंधन ने सिविल वॉर का रूप ले लिया. ‘नामी गिरामी’ में सुनने के लिए
सिविल वॉर से जूझ रही चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी लगातार वापसी की कोशिश में थी और इसका भार आया माओ के कंधे पर. 1927 में उन्हें रेड आर्मी का कमांडर इन चीफ बनाया गया. माओ जानते थे कि अगर Kuomintang के ख़िलाफ़ जंग जीतनी है तो रेड आर्मी में किसानों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी जो सालों से जमींदारों के हाथों की कठपुतली बन अपना गुजर बसर कर रहे थे. जल्द ही माओ ने सेना लेकर चांगशा पर चढ़ाई कर दी लेकिन बुरी तरह हारे. नतीजतन कम्युनिस्टों की सेंट्रल कमिटि ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया. कुछ पुराने कम्युनिस्ट की शैली से सहमत नहीं थे, लेकिन माओ को किसी को परवाह नहीं थी. उन्होंने जिंगांग पहाड़ों में पांच गांव को एक करके सरकार बना ली. खुलकर ज़मींदारों की ज़मीन छीनने की वकालत की और अपनी सेना में अँधाधुंध भर्तियां खोल दीं जिसमें डकैतों तक को जगह दी गई. इस सेना में किसानों का बोलबाला था.
माओ ने किसानों के बीच अपनी जगह बनने की एक तरकीब खोजी. वो गांव गांव घूमते और किसानों से जबरदस्ती कहते कि बताओ किस जमींदार ने तुम्हें परेशान किया. जिनका भी नाम सामने आता उन्हें वो बड़ी बेरहमी से पिटवाते. खास बात ये थी कि माओ ने कभी किसी के ऊपर हाथ नहीं उठाया. हमेशा उनकी फौज के लोग ही कत्ल, मारने पीटने का काम करते.
जमींदारों की ये दुर्दशा किसानों को खूब भाई. उन्हें माओ का प्रचार किसी देवता की तरह होने लगा. कुछ तो प्रेम पूर्वक माओ की आर्मी में शामिल हो गए मगर कुछ ऐसे भी थे जिन्हें माओ का डर पार्टी में खींच लाया.. माओ को विरोध कतई बर्दाश्त नहीं था. विरोधियों को चिन्हनें के लिए वो अक्सर प्लान बनाते थे. ऐसे ही एक बार ऐलान किया कि जो लोग उनसे नाराज़ हैं वो खुलेआम उनकी शिकायत करें और उसे माओ तक पहुंचाएं.
ऐलान के कुछ ही दिनों बाद हुनान की दीवारें माओ विरोधी पोस्टरों से पटी पड़ी थीं. कई लोग उन्हें हत्यारा तक करार दे रहे थे. माओ ने विरोधियों को सबक सिखाने की ठानी. रेड आर्मी ने ऐसे सभी लोगों को बंधक बनाया और उन्हें नेशनलिस्ट जासूस घोषित कर हत्या कर डाली. ‘नामी गिरामी’ में सुनने के लिए
माओं की लगातार कोशिशों के बाद दक्षिण-पश्चिम शांक्सी प्रांत में सोवियत सरकार का गठन हो गया लेकिन ये सब इतना आसान नहीं था. चीनी कम्युनिस्टों के अंदर कई धरे थे. ऊपर से मॉस्को में बैठे कम्युनिस्ट भी निर्णायक हस्तक्षेप की भूमिका में थे. इस बीच ख़बर आई कि कुओमिंतांग सेना ने माओ की दूसरी पत्नी और बहन का सिर काट दिया. दुख में डूबे माओ पर आरोप लग रहे थे कि वो कुछ ज्यादा ही नर्म नेता हैं. नतीजतन उनके तख्ता पलट की एक कोशिश भी हुई.
कुओमिंतांग तेजी से आगे बढ़ रहे थे कि तभी जापान ने चीन के मंचुरिया पर धावा बोल दिया. मजबूरन अब कुओमिंतांग की सेना को फोकस जापानियों की तरफ करना पड़ा. म़ॉस्को की सलाह पर माओ को पार्टी और रेड आर्मी दोनों का चीफ बना दिया गया और अब माओ ने भी सोचा कि उन्हें जापानियों से लोहा लेना चाहिए ताकि चीनी लोगों की हमदर्दी मिल सके. इस दौरान जो लॉन्ग मार्च माओ ने किया वो इतिहास में दर्ज हो गया. इसमें लाखों आम लोगों का उन्हें सपोर्ट मिला.
कम्युनिस्टों की फौज़ तैयार कर रहे माओ समझ चुके थे कि सत्ता की चाभी नौजवानों के सहारे मिलेगी.. उन्हें एक ऐसी भीड़ तैयार करनी होगी जो देश से ज्यादा उनके प्रति वफादार हो. लिहाजा उन्होंने नौजवानों को साथ जोड़ना शुरू किया और जापान के ख़िलाफ युद्ध में भाग लिया. युद्ध लंबा चला. एक ओर जहां युद्ध ने नेशनलिस्ट पार्टी को तोड़ कर रख दिया तो वहीं दूसरी तरफ कम्युनिस्टों का कुनबा और मज़बूत होता चला गया. माओ को ये समझ आ रहा था कि अकेले उनकी सेना जापान को नहीं हरा पाएगी. उन्होंने फैसला किया कि फिर से कुआमिंतांग से हाथ मिला लिया. आखिरकार 1945 में जापान की चीन से वापसी हो रही थी और हुनान की पहाड़ियों पर बैठे माओ के लिए नेशनलिस्ट को गद्दी से हटाने का यही सही वक्त था.
लाखों की संख्या में उनकी सेना की टुकड़ी पहाड़ों से नीचे उतरी और पूरे देश में हाहाकार मचा दिया और इसमें उनका साथ दे रहा था उनका पड़ोसी मुल्क सोवियत यूनियन. सोवियत संघ के हथियारों की मदद से नेशनलिस्ट समर्थकों को सरेआम मारा जा रहा था. अमेरिका से समर्थन पा रहे Chiang Kai Shek लगातार कमजोर हो रहे थे. इसके बावजूद इस संघर्ष का झंडा उन्होंने चार साल तक थामे रखा.. मगर 1 अक्टूबर 1949 को चीन की राजधानी बीजिंग में माओ की आवाज़ सुनाई दी जो अब चीन के सुप्रीम लीडर बन चुके थे. Chiang Kai Shek को निर्णायक लड़ाई में चीन छोड़ कर भागना पड़ा. वो अपनी बची खुची सेना के साथ फार्मोसा द्वीप पर आ गए जो आज ताइवान कहलाता है और 21वीं सदी में भी खुद के असली चीन होने का दावा करता है.
उधर चीन में खुशी का माहौल था. विदेशी ताकतें और सिविल वॉर दोनों का अंत हो गया था. लोगों को लग रहा था कि उनका हीरो गद्दी पर बैठा है. सालों से चले आ रहे अत्याचारों का ये अंत है.. मगर वो जानते नहीं थे कि वो कितनी बड़ी गफ़लत पाल बैठे थे.. क्योंकि ये अत्याचारों के एक दौर का अंत था तो दूसरे की शुरुआत. ‘नामी गिरामी’ में सुनने के लिए
चीन के एकछत्र शासक माओ अब चीन को विकसित देशों की सूची में ला खड़ा करना चाहते थे. और इसमें उनकी मदद करने वाला था कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ सोवियत यूनियन का जनरल सेक्रेटरी.... जोसेफ स्टालिन...
दोनों देशों के बीच एक करार हुआ...सोवियत यूनियन चीन को हथियार सप्लाई करेगा, फैक्ट्री लगाने में मदद करेगा और चीन इसके बदले में उसे अनाज की खपत पहुंचाएगा.
माओ ने चीन के इस तथाकथित डेवलपमेंट प्रोजेक्ट को नाम दिया... द ग्रेट लीप फॉरवर्ड. और अब शुरु हुआ कलेक्टिवाइजेशन का दौर. किसानों के खेतों पर अब सरकार का कंट्रोल था. लोगों को घरों में खाना बनाने की इजाजत तक नहीं थी. आदेश था.. कि किसान जब तक खेतों में काम नहीं करेंगे उन्हें खाना नहीं दिया जाएगा. रोज हाजिरी लगाई जाती और अगर कोई काम करने नहीं आता तो उसे पूरे दिन एक दाना तक नसीब नहीं होता.
कुछ साल पहले जो किसान माओ को अपना भगवान मान रहे थे वो अब अपनी किस्मत को कोसने पर मजबूर थे.
1958 में नो वर्क नो फूड के कांसेप्ट से कोई नहीं बच सकता था. यहां तक कि गर्भवती महिलाओं को भी बिना काम खाना नहीं दिया जाता था. अगर किसी ने खेतों से कुछ चुरा लिया तो उसे इतना मारा जाता कि उसकी जान चली जाती. चीन के ही इतिहासकार है यांग जिसहेंग उन्होंने एक डॉक्यूमेंट्री में उन्होंने कहा था कि चीन के चेंग हाई प्रोविंस के गांव में उन दिनों एक कलेक्टिव कैंटीन में जहां लोगों को खाना दिया जाता था वहां एक महिला आई जिसने बहुत दिनों से कुछ खाया नहीं था. माओ के रेड आर्मी के कमांडर्स ने उसके कपड़े उतरवाए और कहा कि तुम इतनी सिकुड़ क्यों गयी हो. सिर्फ दो टुकड़े ब्रेड के लिए उस महिला को अपनी बेटी उन कमांडरों को देनी पड़ी.. और कुछ ही दिनों बाद उस महिला ने आत्महत्या कर ली.
ग्रेट लीप फॉरवर्ड किसानों और मजदूरों के लिए काल बन चुका था. लगातार काम करने से उनकी सेहत ख़राब हो रही थी और इसका असर फसल की पैदावार पर भी दिखने लगा. सोवियत यूनियन को भेजने वाली अनाज की खेप में कमी आने लगी.. इससे बौखलाए माओ का इसी बीच एक और ऐलान सामने आया.
मैं...माओत्से तुंग अपने किसानों से कुछ कहना चाहता हूँ. आसमानों में उड़ते गौरैया आपके खेत के अनाज को नुकसान पहुंचा रहे हैं. अगर आप एक स्पैरो को मारेंगे तो आप अपने खेत के कई दानों को सुरक्षित कर सकते हैं और इससे फायदा आपका होगा.
माओ का ये ऐलान गौरैया और किसानों दोनों के लिए कहर बनकर टूटा. सरेआम गौरैया को मारा जाने लगा. ऐसा लगा रहा था कि लोग गौरैया को मारने के पीछे पागल हो गए हैं. मरे हुए गौरैया के साथ हर कोई अपनी फोटो खिंचवा कर खुद को चीन का रक्षक बताने लगा. इस पागलपन ने चीन का बेड़ागर्क कर दिया.. देखते ही देखते चीन से गौरैया का नामोनिशान मिटा दिया गया और इसने जन्म में दिया चीन में अबतक के सबसे बड़े अकाल को... द ग्रेट फेमिन.. ऐसी भूखमरी जिसने करोड़ों लोगों को अपनी चपेट में ले लिया. ‘नामी गिरामी’ में सुनने के लिए
चीन के गांवों में जब भुखमरी से करोड़ों लोग मर रहे थे तो बीजिंग में चीन के विकास की अलग कहानी बताई जा रही थी. एजुकेशन और इकोनॉमिक ग्रोथ रेट के आंकड़े चीन को विकसित देशों के बराबर बिठा रहे थे मगर देश के कई प्रांतों में सैकड़ों लोगों की मौत की किसी को ख़बर नहीं थी... लेकिन फिर पार्टी के कुछ नेताओं को इसकी भनक लगी और उनमें से ही एक थे पार्टी के सेकंड इन कमांड... Liu Shaoqi.
भुखमरी से हो रही मौत का पता चलने के बाद भी कोई माओ के ख़िलाफ बोलने की हिम्मत नहीं कर रहा था लेकिन People's Republic of China के चेयरमैन पद पर काबिज Liu Shaoqi के इरादे सबसे जुदा थे. उन्होंने फेमाइन को लेकर जांच के आदेश दिए.
ये कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के चेयरमैन माओ के द ग्रेट लीप फॉरवर्ड प्रोजेक्ट के गाल पर जोरदार तमाचा था . सालों बाद किसी ने खुल कर उनके सामने उनकी मुखालफत करने की जुर्रत की थी.
जांच हुई तो लोगों के मरने के रिकॉर्ड सामने आए. मालूम चला कि अपने खेतों में किसान बंधुआ मज़दूर बनकर काम कर रहे थे. लोगों को दो वक्त का खाना तक नसीब नहीं हो रहा था. लोगों से जबरदस्ती स्टील की फैक्ट्री में काम कराया जा रहा था.. इस रिपोर्ट ने चीन की राजनीति में हड़कंप मचा दिया. Liu Shaoqi ने तुरंत ग्रेट लीप फॉरवर्ड पर रोक लगाने का आदेश दिया और इस घटना को मैन मेड डिजास्टर करार दे दिया. किसानों के खेत उन्हें लौटा दिए गए. कलेक्टिवाइजेशन को हटा दिया गया.
लियूसेयो काय के एक वार ने माओ को अर्श से फर्श पर ला कर पटक दिया था.. उनकी आइडियोलॉजी पर सवाल उठ रहे थे.... मगर खेल अभी बाकी था क्योंकि जिस आइडियोलॉजी पर सवाल उठने खड़े हुए माओ ने उसी आइडियोलॉजी को देश की आइडियोलॉजी बना कर रख दिया. और इस घटनाक्रम को नाम दिया गया कल्चरल रिवॉल्यूशन. नामी गिरामी में सुनने के लिए
70 के दशक में माओ अस्सी साल के हो चुके थे. बोलने में असमर्थ. काम करने में असमर्थ. लेकिन उनका होना ही लोगों के बीच ख़ौफ पैदा कर देता... बगावत करने की सोच रहे लोग हथियार डाल देते.
माओ के पर्सनल सेक्रेटरी कहते थे कि माओ को नहाने और ब्रश करने से नफरत थी. वो चाय से कुल्ला किया करते. 9 सितंबर 1976 को माओ की मौत से ख़ौफ के 27 साल अंत हो गया लेकिन इस अंत ने चीन के भविष्य की नींव रख दी.
प्रड्यूसर- सूरज कुमार
साउंड मिक्सिंग- कपिल देव सिंह