Mirza Ghalib Death Anniversary: 'पूछते हैं वो कि गालिब कौन है, कोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या.' मिर्जा असद-उल्लाह बेग ख़ां (गालिब) उर्दू और फारसी के महान शायर थे. आज यानी 15 फरवरी 2022 को ग़ालिब की 153वीं पुण्यतिथि है. 15 फरवरी 1869 को मिर्ज़ा ग़ालिब का निधन हो गया था. उनका मकबरा दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन इलाके में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास बना हुआ है. वे आज भी अपने शब्दों के जरिये सभी के दिल में जिंदा हैं.
गालिब उर्दू और फ़ारसी के मशहूर शायर थे. उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 में उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में हुआ था. उन्होंने अपनी जिंदगी आगरा दिल्ली और कलकत्ता में गुजारी. मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपने बारे में लिखा है कि दुनिया में यूं तो बहुत से अच्छे शायर हैं, लेकिन उनका अंदाज सबसे निराला है.
गालिब द्वारा लिखी गईं उर्दू ग़ज़लें आज भी मशहूर हैं. उन्हें फ़ारसी शायरी को भारती जबान में लाने के लिए भी जाना जाता है. ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान दोनों जगह मकबूलियत हासिल है.
मिर्ज़ा ग़ालिब की पहली नज़्म…
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
तिरे वा’दे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए’तिबार होता
तिरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार होता
रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
गालिब की मशहूर शायरी...
> हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
> 'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी-कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में
> हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े-ग़ुफ़्तगू क्या है
न शोले में ये करिश्मा, न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोख़े-तुंद-ख़ू क्या है
1850 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा ग़ालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के ख़िताब से नवाज़ा था. मिर्ज़ा ग़ालिब एक समय में मुग़ल दरबार के शाही इतिहासकार भी थे. गालिब ने अपनी ज़िंदगी में तमाम उतार-चढ़ाव देखे. अफरातफरी का ऐसा दौर देखा, जब एक तरफ मुगल सल्तनत आखिरी सांसें ले रही थी तो दूसरी ओर, अंग्रेजों अपना दबदबा बना रहे थे.
इस दौर में किसका साथ दें और किसके साथ खड़े हों, यह कशमकश उनकी अपनी जिंदगी में भी थी और यही उनकी शायरी में भी दिखती है. सच तो ये है कि ग़ालिब कहीं गए ही नहीं, वह आज भी हमारी रगों में अपनी शायरी के साथ दौड़ते रहते हैं.
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