1948 में भारत और पाकिस्तान का पहला युद्ध हुआ था. पाकिस्तान कश्मीर पर कब्जा करने की फिराक में था. तब भारतीय सेना ने उन्हें करारा जवाब दिया. इस दौरान कश्मीर में मौजूद टवाल पर कब्जा पाने के लिए भारतीय फौज की एक ब्रिगेड आगे बढ़ी. इस ब्रिगेड में एक खास बटालियन शामिल थी. इस बटालियन को दुश्मन पर आक्रमक वार करते हुए त्रिगम की पहाड़ी को उनके कब्जे से छुड़ाना था. साथ ही दुश्मन को उलझाए रखना था ताकि बाकी की सेना दक्षिण की ओर से टवाल पर हमला कर सके.
इस टुकड़ी में सैनिक कम थे, लेकिन यह कमी उनके हौसलों में नहीं थी, उन्होंने जान की बाजी लगाते हुए अपने से ज्यादा संख्या में मौजूद दुश्मनों पर सामने से हमला किया. इस लड़ाई में कई जवान शहीद हो गए. फिर भी ये टुकड़ी लड़ती रही. जब तक बाकी की फौज के आगे बढ़ने की खबर उन तक नहीं पहुंची.यह कारनामा दिखाने वाले फौजी थे गढ़वाल राइफल्स के. इस रेजीमेंट को इस एक ही लड़ाई में कई वीरता पुरस्कारों से नवाजा गया. एक महावीर चक्र, 18 वीर चक्र और दो शौर्य चक्र.
देश के बाहर भी दिखाई है बहादुरी
गढ़वाल राइफल्स ना सिर्फ देश की सेवा में कार्यरत हैं, बल्कि भारतीय शांति रक्षक सेना का भी अहम हिस्सा है. इसके जवान कई मुल्कों में तैनात रहे हैं. दूसरे देशों में भारतीय सेना के योगदान में गढ़वाल राइफल्स की अहम भूमिका रही है. देश के बाहर जो सेना का पहला इंडियन मिशन था वो कोरिया में था. जिसमें थर्ड गढ़वाल गया. उसके बाद कांगो, लेबनान और सुडान में फाइव गढ़वाल, 10 गढ़वाल, 14 गढ़वाल और 18 गढ़वाल गए. जून 2018 में ही सूडान में कार्यरत सात गढ़वाल राइफल्स को यूनाइटेड नेशंस पीसकीपिंग फोर्स ने निस्वार्थ सेवा का सम्मान दिया.
बोल बद्री विशाल की जय....
गढवाल राइफल्स का युद्ध घोष है -बोल बद्री विशाल लाल की जय... इसका मतलब है भगवान बद्री जो हमारे इष्टदेव है वह और उनके भक्तों की हमेशा जीत यह युद्ध घोष इष्ट देव भगवान बद्री और पवित्र धाम बद्रीनाथ से प्रेरित है. सैनिक दुश्मन को परास्त करने के लिए युद्ध के लिए मूवमेंट करते हैं तो उस समय सब लोग एक साथ बद्र विशाल लाल की जय बोलते है.
गीता से प्रेरित है रेजिमेंट का मोटो
निस्वार्थ सेवा और दृढ़ निश्चय ही इस रेजिमेंट के मूल सिद्धांतों को भी बनाते हैं. इसका रेजिमेंटल मोटो है- युद्ध कृत निश्चय. ये गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेश से प्रेरित है. इसका मतलब है कि पूरे दृढ़ निश्चय के साथ में युद्ध करो. अगर इसका भावार्थ ले तो यह है कि जीवन में एक उद्देश्य निश्चित करो और उस उद्देश्य के लिए पूरे जी-जान से लगे रहो और तब तक चैन नहीं लो जब तक कि वह उद्देश्य हासिल नहीं हो जाता.
गढ़वाल राइफल्स का इतिहास
भारतीय फौज की सबसे सम्मानित रेजिमेंट्स में से एक गढ़वाल राइफल्स का गठन 1887 में हुआ था. पहले ये बंगाल इन्फैंट्री का हिस्सा थी. खास गढ़वालियों की अलग रेजिमेंट बनाने का प्रस्ताव 1866 में दिया गया था. फिर गोरखा कंपनियों को हटाकर इसे पूरी तरह से गढ़वाल क्षेत्र को दिया गया और नाम दिया गया 39 गढ़वाल रेजीमेंट, जो कि फर्स्ट गढ़वाल भी कहलाई. बाद में इसे गढ़वाल राइफल रेजीमेंट नाम दिया गया.
गढ़वाल राइफल्स ने पहले विश्वयुद्ध में फ्रांस में लड़ी थी लड़ाई
1901 में सेकंड गढ़वाल रेज हुई. उस समय उसका नाम 49 द गढ़वाली रेजीमेंट ऑफ बंगाल इन्फेंट्री था. उसी साल के नवंबर में दोनों बटालियन का नाम बदली हुआ और इनको कहा गया फर्स्ट एंड सेकंड बटालियन ऑफ 39 गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट. रेज होने के तुरंत बाद फर्स्ट गढ़वाल राइफल्स ने बर्मा में एक्शन देखा है और उसके बाद जब फर्स्ट वर्ल्ड वॉर शुरू हुआ तब गढ़वाल राइफल फर्स्ट गढ़वाल और सेकंड गढ़वाल दोनों फ्रांस में लड़े और लड़ाई शुरू होते ही गढ़वाल राइफल्स को दो विक्टोरिया क्रॉस मिला जो कि ब्रिटिश राज के समय पर सबसे सर्वोत्तम वीरता का पदक था.
ब्रिटिश शासन में मिले थे तीन विक्टोरिया क्रॉस
रेजिमेंट को तीसरा विक्टोरिया क्रॉस 1920 में मिला. जब अफगानिस्तान में लेफ्टिनेंट डब्ल्यू डी केनी के चलते 1921 में ब्रिटिश राज ने गढ़वाल राइफल्स को रॉयल टाइटल से नवाजा. इस रेजीमेंट ने भारत की नौसेना और वायु सेना के साथ भी मिलकर काम किया है. आज इस रेजीमेंट और इसके अफसरों को मिले वीरता पुरस्कारों और बैटल ऑनर्स की लिस्ट बेहद लंबी है. तीन विक्टोरिया क्रॉस, एक अशोक चक्र, 12 परम विशिष्ट सेवा मेडल, चार महावीर चक्र, 15 कीर्ति चक्र, चार उत्तम युद्ध सेवा मेडल, 19 अति विशिष्ट सेवा मेडल, 52 वीर चक्र, 46 शौर्य चक्र और कई अन्य सैन्य पुरस्कार.
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आजादी के बाद इन युद्धों में निभाई निर्णायक भूमिका
इसके साथ ही रेजीमेंट के नाम है कई बैटल. टवाल 1947-48, नूरानंग 1962, गदरा रोड 1965, बटर डोगर 1965, हिली 1971 और बटालिक और द्रास 1999. 1971 का हिली का बैटल ऑनर इसलिए भी खास था, क्योंकि इस ऑपरेशन के दौरान आत्मसमर्पण करने वाले 3000 पाकिस्तानियों का जिम्मा पांच गढ़वाल राइफल्स को सौंपा गया. इसके साथ ही थिएटर ऑनर जम्मू कश्मीर 1947-48 राजस्थान और पंजाब 1965 ईस्ट पाकिस्तान 1971, कारगिल 1999 गढ़वाल राइफल रेजीमेंट के जाबाज अफसरों और जवानों की कहानियां लैंस डाउन की पहाड़ियों में आज भी गूंजती है.
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पहाड़ों के बीच बसा है रेजिमेंटल सेंटर
गढ़वाल राइफल में जवानों को भुला बुलाया जाता है. भुला का मतलब होता है छोटा भाई, इसलिए यह प्रथा चली आई है कि जब भी कोई बात करता है तो नाम कम लेते हैं और भुला से संबोधित करते हैं. लस डाउन बौरी गढ़वाल जिले का एक बेहद खूबसूरत शहर है. इसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट का. इसी शहर में बसा है गढ़वाल राइफल्स का रेजिमेंटल सेंटर और पूरा कैंटोनमेंट इलाका. इस शहर और इस रेजिमेंटल सेंटर का इतिहास लगभग साथ-साथ ही बना. रेजिमेंटल सेंटर लैंस डाउन नाम की जगह पे है इसका ओरिजिनल नाम कालू डांडा है.
फर्स्ट गढ़वाल रेस होने के बाद इधर टेंटों में आकर रहे. उसके बाद जैसे जैसे रेजिमेंट उधर सेटल डाउन हो गई तो इंडिविजुअल ऑफिसर्स के बंगलोज बने. यहां हर बंगला जो है जिस आदमी ने बनाया उसके नाम पर बना है. लेफ्टन वर्डल करके एक ऑफिसर का भी यहां बंगला है जो कि हमारे रेजिमेंटल घोस्ट माने जाते हैं. वो वर्ल्ड वॉर वन में मिसिंग इन एक्शन थे. लेकिन अभी भी ये माना जाता है कि वो सेंटर के एड्यूट होने के कारण सफेद घोड़े पर आते हैं और अभी भी सेंट्री को चेक करते हैं कि रात में सब अलर्ट हैं कि नहीं.