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...तो भारत में होता लाहौर! सेना की वो रेजिमेंट, जब एक्शन में आई तो सीधे पाकिस्तान के दिल तक जा पहुंची

भारतीय सेना की सबसे पुरानी रेजिमेंट का इतिहास 200 साल से भी पुराना है. इसका नाम है जाट रेजिमेंट. जानते हैं सेना के इस खास टुकड़ी का इतिहास और बहादुरी के किस्से.

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गणतंत्र दिवस 2025 के परेड के लिए कर्तव्य पथ पर रिहर्सल करते जाट रेजिमेंट के जवान (गेटी इमेजेज)
गणतंत्र दिवस 2025 के परेड के लिए कर्तव्य पथ पर रिहर्सल करते जाट रेजिमेंट के जवान (गेटी इमेजेज)

जाट बलवान हम हिंद की हैं शान... हमें नहीं मृत्यु का भी भय, नोंच खाते दुश्मन को सिंह के समान... हम सोख ले समुंदर भी, ले अगर यह ठान, हम जाट बलवान. युद्ध के मैदान में जाट रेजिमेंट के सैनिकों की जुबान पर ये गीत जोश भर देती है. आज हम बात करेंगे भारतीय सेना के सबसे पुराना रेजिमेंट की. इसका नाम है जाट रेजिमेंट. 

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जाट रेजिमेंट का वो किस्सा जब लाहौर पहुंच गई थी इंडियन आर्मी
12 सितंबर 1965 को भारत पाकिस्तान का वजूद पूरी तरह से मिटा सकता था. एशिया का सबसे लंबा रास्ता ग्रैंड ट्रंक रोड अमृतसर लाहौर को जोड़ता है. यह रास्ता डोगरा से होकर गुजरता है. डोगरा लाहौर से महज 13 किलोमीटर दूर इगल नहर के पास बस एक छोटी सी बस्ती है. वही इगल नहर जहां से पाकिस्तान लाहौर की निगरानी करता था. भारतीय सेना को डोगरा और इस नहर को पार कर लाहौर पर कब्जा करना था. 

इतिहास बदल सकती थी वो लड़ाई
दुश्मन के गढ़ में 50 किलोमीटर अंदर जाकर अपने से दुगनी सेना से भिड़ना, एक-एक कर दुश्मन को खत्म करना किसी अचंभे से कम नहीं था. इस नामुमकिन से मिशन को अंजाम सिर्फ 550 सैनिकों  ने दिया था. इसमें से 58 युद्धवीर शहीद हो गए. यह दिन इतिहास बदल सकता था लाहौर पर कब्जा हो सकता था.  लेकिन युद्ध विराम घोषित कर दिया गया.  भारत की सरकार और सेना ने उस दिन अमन चैन और सम्मान को चुना. कौन थे यह अजय सैनिक जिन्होंने एक ही बार में पूरी जंग का रुख बदल दिया. यह सैनिक थे जाट रेजीमेंट के.

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जाट रेजिमेंट का इतिहास
जाट रेजीमेंट का इतिहास 200 साल से भी ज्यादा पुराना है. जाट शब्द जाट समुदाय से आया है. पीढ़ियों से  जाटों का पेशा जमींदारी, खेती और मावेशी का पालन पोषण रहा है, लेकिन कब और कैसे इनकी धरती सैनिकों की जननी बन गई, यह जानना दिलचस्प होगा. जाट रेजिमेंट को समझने  से पहले  जाट राजा नाहर सिंह का किस्सा जानना जरूरी है. एपिक के रेजिमेंट डायरी के मुताबिक जाट राजा नाहर सिंह सिर्फ 32 साल के थे. जब 1857 की क्रांति की आग में उन्होंने अपना सब कुछ झोंक दिया. 

कौन थे नाहर सिंह? 
अंग्रेजों ने कई बार उनसे सौदा करने की कोशिश की, लेकिन नाहर सिंह का जमीर बिकाऊ नहीं था. उन्हें सूली चढ़ना मंजूर था पर अंग्रेजों की गुलामी बिल्कुल नहीं. इससे अंग्रेज काफी परेशान हो गए और उन्होंने एक षड्यंत्र रचा. मुगल बादशाह जफर शाह के नाम से नाहर सिंह को संदेश भिजवाया गया कि वो उनसे संधि करना चाहते हैं. 

नाहर सिंह के दिलेरी से प्रभावित हुए थे अंग्रेज
संदेश भेजकर नाहर सिंह को दिल्ली बुलाया गया. जैसे ही वह पहुंचे उनको गिरफ्तार कर लिया और उनके विरुद्ध इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक मुकदमा चलाया गया और आखिरकार 9 जनवरी को दिल्ली के चांदनी चौक में फांसी दे दी गई.  वह जाटों के इतिहास में हमेशा एक वीर योद्धा माने जाएंगे.अंग्रेजों को जाट सैनिकों से हमेशा तगड़ा मुकाबला मिला. बावजूद इसके कि वह सैनिकों की बहादुरी के कायल थे.  नाहर सिंह की बहादुरी देख तो अंग्रेजों ने ठान लिया कि जाट सैनिकों को अपनी फौज का हिस्सा बनाया जाए.

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ऐसे अंग्रेजों ने अपनी फौज में जाट सैनिकों को किया शामिल
1795 की रेजिमेंट है. वैसे तो मलेशिया में जाट सैनिकों को 1785 में ही शामिल कर दिया गया था, लेकिन जाट रेजीमेंट की पहली बटालियन की नींव 1803 में बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के रूप में पड़ी और फिर 1857 के बाद जाटों की भर्ती बंगाल आर्मी की लगभग हर एक शाखा में हुई, लेकिन 1922 में जाट रेजीमेंट को औपचारिक रूप से भारतीय सेना की इन्फेंट्री यूनिट में स्वतंत्र रेजीमेंट का दर्जा दिया गया और 1947 में फाइनली द जाट रेजीमेंट बना.

जाट रेजिमेंट से जुड़ें हैं बहादुरी के कई किस्से
ऐसे कई बहादुरी के किस्से जाट रेजिमेंट से जुड़े हुए हैं. जाट रेजीमेंट हिंदुस्तान की सबसे पुरानी और सबसे सम्मानित रेजीमेंट में से एक है जो ना सिर्फ जानी जाती है अपने सैनिकों की बहादुरी के लिए बल्कि उन तमाम चुनौतियों के लिए भी जिन्हें पूरा करना नामुमकिन होता है. इसमें अधिकतर जवान हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के ही होते .

200 साल से बरेली में है इसका सेंटर
उत्तर प्रदेश के शहर बरेली में जाट रेजिमेंट का सेंटर है. जाट रेजीमेंट के अफसर सैनिक और जवान जो कि जिंदा दिली की मिसाल हैं, आज यहां सीना चौड़ा करे रहते हैं. यह एक चंद इन्फेंट्री रेजिमेंटल सेंटर्स में है जो कभी बरेली से मूव नहीं हुए. शुरू से एक ही जगह रहने की वजह से जाट रेजीमेंट को बहुत बड़ा एडवांटेज मिला है. यहां का इंफ्रास्ट्रक्चर सालों साल बढ़ता गया और बेहतर होता गया. यहां पर आपको हेरिटेज बिल्डिंग्स मिलेंगी. यहां का परेड ग्राउंड हो, चाहे वो यहां का पीटी इंफ्रास्ट्रक्चर हो, चाहे व मेंस हो. सब ब्रिटिशर्स के टाइम की है.

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नबंर नौ से है गहरा रिश्ता
नाइन जाट रेजीमेंट का इस नंबर नाइन से गहरा रिश्ता है. आज के समय की जाट रेजीमेंट 1922 में नाइंथ जाट रेजीमेंट के रूप में स्थापित की गई थी और यह सेना की तमाम रेजीमेंट्स की गिनती में भी नौवें स्थान पर थी और इसीलिए रोमन अंकों में लिखा गया नंबर नाइन इनकी पहचान बन गया और रेजिमेंट का चिन्ह भी. शुरुआत में रेजीमेंट के चिन्ह पर नौ अंक के ऊपर ब्रिटिश क्राउन जिसे बाद में बदल दिया गया और आज उसकी जगह है राष्ट्रीय चिन्ह अशोका स्तंभ है

कारगिल युद्ध में किया था कमाल
कारगिल की जंग की शुरुआत जाट रेजीमेंट के नौजवान अफसर लेफ्टन सौरभ कालिया के बलिदान के साथ हुई तो वहीं इसे जीत तक पहुंचाया जाट रेजीमेंट के एक दूसरे नौजवान अफसर अनुज नैयर ने.आजादी के बाद आज जाट रेजीमेंट के नाम पांच युद्ध सम्मान आठ महावीर चक्र 12 कीर्ति चक्र 46 शौर्य चक्र 39 वीर चक्र और 253 सेना मेडल हैं.

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