Baba Ram Singh Kuka Jayanti: बाबा राम सिंह कूका, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक और सिखों के बड़े संत थे. जिन्होंने महात्मा गांधी से करीब 50 साल पहले भारत में 'अहसयोग आंदोलन' शुरू किया था. ब्रिटिश राज में वे न सिर्फ अंग्रेजों को नाकों चने चबवा रहे थे बल्कि देश को कई सामाजिक और धार्मिक कुरीतियों से मुक्त होने के लिए प्रेरित भी कर रहे थे.
छोटे किसान परिवार में हुआ था जन्म
बाबा राम सिंह कूका का जन्म 3 फरवरी 1816 को हुआ था. बाबा राम सिंह एक छोटे किसान तारखान परिवार से थे. उनकी माता का नाम सदा कौर और पिता का नाम जस्सा सिंह था. उनका गांव रायन, श्री भैनी साहिब, लुधियाना के पास था. वह एक स्वतंत्रता सेनानी, दार्शनिक और सुधारक थे. उन्हें सिख धर्म के नामधारी खंड के गुरु बालक सिंह के बाद दूसरा गुरु माना जाता था.
महात्मा गांधी से 50 साल पहले शुरू किया था असहयोग आंदोलन
किताबों में पढ़ाया जाता है कि ब्रिटिश सरकार की ज्यादतियों का विरोध करने के लिए 01 अगस्त 1920 को महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया था. इस आंदोलन के दौरान छात्रों ने सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में जाना बंद कर दिया था. वकीलों ने अदालतों में जाने से मना कर दिया था और मजदूर लोग हड़ताल पर चले गए थे. लेकिन कम ही लोग जानते होंगे कि इससे करीब 50 साल पहले बाबा राम सिंह कूका ने बहिष्कार और असहयोग के सिद्धांत दिए थे. उन्होंने सबसे पहले ब्रिटिश स्कूलों, कानूनों और कपड़ों का विरोध किया था.
20 साल की उम्र में देश पर मर-मिटने निकल पड़े थे राम सिंह
पिता जस्सा सिंह के इशारे पर बाबा राम सिंह कूका मर-मिटने निकल पड़े थे. उस समय उनकी उम्र महज 20 वर्ष थी. उनके पिता ने उन्हें शेर सिंह के अधीन सिख साम्राज्य की सेना में भेज दिया. वह महान महाराजा रणजीत सिंह की सेना का हिस्सा थे. महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद साम्राज्य के पतन के बाद सिख प्रतिष्ठा को बहाल रखने के लिए एक नया "कूका खालसा" की शुरुआत हुई थी.
कूका आंदोलन
मांसाहार, नशा, जीव हत्या और बाल विवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए पंजाब के कूका लोगों (जिन्हें नामधारी सिख भी कहा जाता था) ने साल 1840 में कूका आंदोलन शुरू हुआ था. लोगों को महिला अधिकार के प्रति जागरूक किया जा रहा था. बाद में इसे साल 1871-72 में अंग्रेजों द्वारा गो हत्या को बढ़ावा देने के विरोध के रूप में जाना गया. बालक सिंह और गुरु राम सिंह ने इस आंदोलन की कमान संभाली थी. इसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना था.
ब्रिटिश सरकार ने दी थी आजीवन कारावास की सजा
14 जनवरी 1872 को लगभग 200 'कूकाओं' ने मालोध और मालेरकोटला के शहरों पर हमला किया. हमले के बाद, कूका कार्यकर्ता नवाब की पुलिस से बचकर भाग गए लेकिन ब्रिटिश सैनिक उनके पीछे लग गए. लुधियाना के डिप्टी कमिश्नर कोवान ने उन्हें घेर लिया और उनमें से पचास को बिना मुकदमे तो कुछ को कानूनी तौर पर मार डाला. बाद में अंबाला के कमीश्नर डगलस फोर्सिथ ने इसे स्वीकार भी किया था. उन्होंने हमलों के लिए बाबा राम सिंह कूका को जिम्मेदार ठहराया और 18 जनवरी 1872 को ब्रिटिश सरकार ने उन्हें बाकी के जीवन के लिए रंगून, बर्मा (म्यांमार) की जेल में बंद कर दिया था. वे 29 नवंबर 1885 को शहीद हुए थे.