अधिकतर फिल्मों में खर्राटे लेने को मजाक के तौर पर पेश किया जाता है. लेकिन, असल मायने में ये एक ऐसी समस्या है, जो होने से कई देशों में लाइसेंस तक नहीं दिया जाता. डॉक्टर कहते हैं कि खर्राटा लेना भले ही लोगों को आम समस्या लगे लेकिन इसे बहुत हल्के से नहीं लेना चाहिए. अगर शुरुआती कदम में ही इसे गंभीरता से लेते हुए इलाज करा दिया गया तो ये आसानी से ठीक हो सकती है. आइए विशेषज्ञ से जानें इसके बारे में...
मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज और लोक नायक अस्पताल दिल्ली में नाक-कान-गला रोग विभाग के निदेशक-प्रोफेसर डॉ विकास मल्होत्रा कहते हैं कि अगर अर्ली स्टेज में खर्राटों का इलाज कराया जाए तो 90 पर्सेंट लोगों को बिना सर्जरी से रिलीफ आ जाता है. लेकिन खर्राटों की समस्या को लेकर सबसे ज्यादा जरूरत है लोगों के इस समस्या को लेकर गंभीर होने की. फिल्मों वगैरह में इसे हास्य के तौर पर पेश करके इस समस्या के प्रति लोगों को काफी सहज बना दिया गया है.
डॉ विकास मल्होत्रा ने कहा कि ये प्रॉब्लम सिर्फ बड़ों को ही नहीं बच्चों में भी होती है. बच्चों में ये समस्या दो तरीके से होती है. इसमें अक्सर बच्चों में एडिनाइड (नाक के पीछे मांस) बढ़ जाता है. इसे अगर डिटेक्ट कर लिया तो उसकी सर्जरी कर देते हैं. इसमें अलावा बच्चों में कई बनावटी और कुदरती बदलाव होते हैं, जिसके कारण भी बच्चों में ये समस्या होती है.
वहीं वयस्कों में ये समस्या मोटापे के कारण होती है. दिन पर दिन भारत में यह समस्या बहुत कॉमन होती जा रही है. डॉ विकास मल्होत्रा कहते हैं कि खराब लाइफस्टाइल के कारण इन दिनों चेस्ट और एब्डोमेन पर फैट आने की समस्या बढ़ी है. इसके अलावा गर्दन में चर्बी गले और तालू में इकट्ठा हो जाती है. ये मशल्स बनने से सोते वक्त सांस लेने में दिक्कत होती है. इससे स्नोरिंग होती है.
डॉ विकास कहते हैं कि खर्राटे लेने की समस्या अक्सर ब्लड प्रेशर, चिड़चिड़ापन, हार्ट प्रॉब्लम और सांस लेने की दूसरी दिक्कतों से जुड़ी होती है. डॉ मल्होत्रा कहते हैं कि दुनिया के दूसरे कई देशों में ड्राइविंग का लाइसेंस दिए जाने से पहले उनकी स्लीप स्टडी होती है, अगर उनमें ऑब्स्ट्रेक्टिव स्लीप एप्निया की समस्या है तो उन्हें लाइसेंस नहीं दिया जाता. क्योंकि ऐसे लोगों में ही खर्राटा लेने की समस्या होती है.
नहीं कर सकते कंपटीशन की तैयारी
विशेषज्ञ मानते हैं कि जिन लोगों में खर्राटे की समस्या होती है, वो पढ़ाई से लेकर ऑफिस के काम में अपना 100 फीसदी
नहीं दे पाते. डॉ मल्होत्रा इसके पीछे कारण बताते हुए कहते हैं कि जो लोग खर्राटों के कारण अच्छी नींद नहीं सो पाते, उनमें ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जाती है. जब इंसान का दिमाग शांति से सो रहा था, तभी खर्राटे से उन्हें माइक्रो अराउजल होता है, जिसमें नींद खुल जाती है.
जिनकी रात में नींद पूरी नहीं हो पाती, वो दिन में सोते हैं. ऐसे लोग अच्छे ड्राइवर भी नहीं होते, क्योंकि गाड़ी चलाते हुए सो जाना बड़ा खतरा हो सकता है. साथ ही अगर वो किसी ऑफिस में महत्वपूर्ण पद पर हैं तो वो अपना ध्यान काम में नहीं लगा पाते. न ही किसी कंपटीशन की तैयारी के लिए उनका शरीर और दिमाग फिट रह पाता है.
डॉ कहते हैं कि इसके पीछे मोटापा कॉमन कॉज है, करीब 75 प्रतिशत मरीजों में मोटापे के ट्रीटमेंट में ही इसका इलाज छुपा हुआ है. अगर वजन ज्यादा होने से मरीज मोटापे की समस्या से नहीं जूझ पाता तो ऐसे केसेज में उन्हें डॉक्टर असिस्ट करते हैं, सीपेप या बाइपेप मशीन डिस्क्राइब करते हैं. जो कि अब पहले से ज्यादा पोर्टेबल हो गई हैं. अब इन मशीनों की मदद से मरीज करवट लेकर सो सकता है, ब्रेन को सीपेप और बाइपेप मशीन की मदद से पूरी ऑक्सीजन मिलती है जिससे मरीज आराम की नींद सो सकता है.