एच-1बी वीजा एक गैर-प्रवासी वीजा है. ये वीजा अमेरिकी कंपनियों में काम करने वाले ऐसे कुशल कर्मचारियों को रखने के लिए दिया जाता है जिनकी अमेरिका में कमी हो. इस वीजा की वैलिडिटी छह साल की होती है. अमेरिकी कंपनियों की डिमांड की वजह से भारतीय आईटी प्रोफेशनल्स इस वीजा सबसे अधिक हासिल करते हैं. अमेरिका में ट्रंप प्रशासन की ओर से दो नए ‘अंतरिम फाइनल रूल्स’ तय किए गए हैं जिनसे नियोक्ताओं के लिए वीजा पर अप्रवासियों को नौकरी पर रखना मुश्किल हो जाएगा.आइए जानें- क्या है पूरा मामला.
बता दें कि अमेरिका का डिपार्टमेंट ऑफ लेबर तय करता है कि एच-1बी वीजा पर रखे गए कर्मचारियों को नियोक्ता कितना वेतन देंगे. इस विभाग ने 6 अक्तूबर को घोषणा की है कि अब वेतन में महत्वपूर्ण बदलाव किए जा रहे हैं. इसके बाद ये नियम 8 अक्तूबर से लागू हो गए. इसके अलावा एक और नियम डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्योरिटी (डीएचएस) अमेरिकी नागरिकता है. आव्रजन सेवा इसी का हिस्सा है. इस विभाग ने एच-1बी वीजा हासिल कर सकने वालों की सूची को छोटा कर दिया है जिसके नियम दिसंबर से लागू होंगे.
अमेरिकी प्रशासन के ये नियम उन पर असर डालेंगे जिनके एच-1बी वीजा जारी हुए हैं. इसका असर उन नियोक्ताओं पर पड़ेगा जो भारतीयों को नौकरी पर रखने के इच्छुक हैं. ये उन भारतीयों पर भी असर डालेगा जो अमेरिका में काम कर रहे हैं. अब उन्हें भी अपना एच-1बी वीजा की भविष्य में मियाद बढ़वाने की जरूरत पड़ेगी. कहा जा रहा है कि इन नियमों को कोर्ट में चुनौती दिए जाने के आसार हैं.
अमेरिका में रह रहे भारतीयों ने इस बारे में सवाल उठाते हुए कहा है कि जिन एजेंसियों ने इन्हें जारी किया है उन्होंने पहले जन सुनवाई नहीं की है. मानक प्रक्रिया के तहत नए नियम जारी करने से पहले ऐसा करना जरूरी होता है.
ओबामा सरकार में आव्रजन नीति पर काम कर चुके और नागरिकता प्रक्रिया में अप्रवासियों की मदद करने वाले संगठन बॉन्डलेस इमीग्रेशन के सह संस्थापक डग रैंड कहते हैं कि इस तरह के अंतरिम फाइनल रूल्स का इस्तेमाल एक दुर्लभ घटना है, हालांकि ट्रंप प्रशासन इस प्रक्रिया का इस्तेमाल कुछ ज्यादा ही कर रहा है. वे कहते हैं, “यह एक जोखिमभरा कदम है क्योंकि अगर सरकार जन सुनवाई की प्रक्रिया को नजरअंदाज करने का ठोस कारण नहीं बता पाई तो अंतरिम फाइनल रूल कोर्ट में खारिज हो सकते हैं.”
एच1बी वीजा सिस्टम पर ट्रंप प्रशासन के कड़े कदमों का मुख्य कारण यह है कि एच1बी वीजा की वजह से कुछ हाई प्रोफाइल मामलों में अमेरिकी लोगों को खामियाजा उठाना पड़ा था. साल 2015 में वाल्ट डिज्नी ने 200 घरेलू आइटी कर्मचारियों को निकाल बाहर किया था. बाद में इस काम को एक भारतीय आइटी फर्म को आउटसोर्स कर दिया था. भारतीय आइटी फर्म विदेशी कर्मचारियों को एच1बी वीजा पर वही काम करने के लिए लाई थी. उसी साल दक्षिणी कैलिफोर्निया में एक यूटिलिटी कंपनी ने 400 आइटी कर्मचारियों को निकाल दिया था और इन्फोसिस और टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) को इसकी जगह पर रख लिया था. यही वह वक्त था जब डोनॉल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे थे और प्रचार में जुटे थे.
वैसे इस बहस का भारतीय कंपनियों पर भी असर है. भारतीय एच-1बी वीजा के सबसे बड़े आवेदक हैं. पिछले साल एच-1बी वीजा के 75 प्रतिशत आवेदन भारतीयों के थे, लिहाजा खारिज होने वाले आवेदनों की संख्या में भी भारतीयों के आवेदन ज्यादा हैं. टीसीएस, इन्फोसिस, विप्रो और टेक महिंद्रा को 2019 में मना करने की दर (डिनायल रेट) क्रमश: 31 प्रतिशत, 35 प्रतिशत, 47 प्रतिशत और 37 प्रतिशत रहा. दूसरी ओर अमेजन और गूगल के लिए आवेदनों के खारिज होने की दर 4 प्रतिशत रही. इससे स्पष्ट है कि प्रशासन अपने कुछ कृपापात्रों के लिए यह लड़ाई लड़ रहा है.