दुनिया के कई देश अपनी मातृभाषा में डॉक्टरी की पढ़ाई कराते हैं. भारत में भी ऐसी एक पहल की गई है. इस पहल की ओर पहला कदम रखने वाला राज्य बना है मध्यप्रदेश, जहां मेडिकल फर्स्ट ईयर के लिए तीन किताबें हिंदी में अनुवादित की गई हैं. इसी क्रम में अब उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी एमबीबीएस की पढ़ाई हिंदी में कराई जाएगी. यहां की सरकारों ने भी इस पर फैसला लिया है. डॉक्टरी की पढ़ाई अब हिंदी मीडियम में अनुवादित किताबों से होगी. ये किताबें एक्सपर्ट ने अनुवाद की हैं.
इस नई शुरुआत का क्या फायदा या नुकसान होगा? इन सवालों पर एक्सपर्ट की राय बंटी हुई है. कुछ इसे आधी-अधूरी तैयारी के साथ उठाया कदम बता रहे हैं तो इस मुहिम से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि ये शुरुआती कदम है, आगे सुधार होगा लेकिन फिलहाल शुरुआत का ही स्वागत किया जाना चाहिए.
पिछले 32 साल से हिंदी में एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए आंदोलन चला रहे इंदौर के डॉ मनोहर लाल भंडारी फिजियोलॉजिस्ट हैं, साथ ही मध्यप्रदेश की हिंदी अनुवाद के लिए बनी उच्चस्तरीय कमेटी का हिस्सा हैं. aajtak.in से बातचीत में उन्होंने कहा कि हिंदी में एमबीबीएस की पढ़ाई एक बड़ी जरूरत है. जब फर्स्ट ईयर में कोई स्टूडेंट आता है तो अंग्रेजी के कई टेक्निंकल शब्द उसे 12वीं की पढ़ाई से एकदम अलग मिलते हैं. वो कई बार सबकुछ आते हुए भी हिंदी में सोचने के कारण अपनी वाक्य रचना का क्रम बदल देता है. इन छात्रों से स्पेलिंग मिस्टेक भी होती हैं. मैं जब उनका मूल्यांकन किया करता था तो सोचता था कि बच्चों को अगर इन टर्म को समझकर फिर हिंदी में लिखने को कहा जाए तो ये बेहतर तरीके से समझकर लिख सकते हैं.
डॉ मनोहर लाल भंडारी ने 28 अक्टूबर 1991 में तत्कालीन मुख्यमंत्री सुंदर लाल पटवा को ज्ञापन दिया और एमबीबीएस की हिंदी में शिक्षा का मुद्दा उठाया. फिर 1994 में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह को लिखा था. जवाब आया कि ये राज्य सरकार का मामला है. लेकिन भंडारी रुके नहीं, जो भी राष्ट्रपति आया, उसे लिखा.
फिजियोलॉजी का किया है अनुवाद
डॉ भंडारी भी अनुवाद टीम का हिस्सा रहे हैं. वो कहते हैं कि जब पहली बार हम साइकिल चलाना सीखते हैं तो कई बार घुटने छिल जाते हैं, लेकिन बाद में हम पारंगत हो जाते हैं. ये अनुवाद पहली बार साइकिल चलाने की प्रक्रि्या के तहत ही आएगा. अभी ट्रांसलेशन में मेडिकल टर्म को वैसे का वैसा रखा गया है. जैसे अभी हीमोग्लोबिन को हीमोग्लोबिन ही लिखा है, ब्रैकेट में हीमोग्लोबिन की स्पेलिंग लिखी है. डॉक्टर भंडारी बताते हैं कि साल 2011 में धर्मपीठ विज्ञान महाविद्यालय में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने अपने भाषण में शिक्षकों का आह्वान किया था कि वे गणित और विज्ञान को छात्रों को उनकी भाषा में समझाएं. देश के जाने-माने न्यूरोलॉजिस्ट पद्म श्री डॉ अशोक पनगढ़िया ने भी कहा था कि जो व्यक्तित मातृभाषा में प्रवीण हो जाता है, उसके लिए दूसरी भाषा को अपनाना कठिन नहीं होता. हम चाहते हैं कि छात्र अपनी भाषा में ज्ञान को अच्छे से आत्मसात कर लें.
पहले हिंदी पर तो काम करें वैज्ञानिक
हिंदी भाषा में मेडिकल शिक्षा को लेकर इहबास दिल्ली के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ ओमप्रकाश कहते हैं कि जो भी अनुवाद हुआ है, उसमें मेडिकल टर्म को नहीं बदला गया है. जैसे फीमर हड्डी को हिंदी में फीमर ही कहा जा सकता है, ऐसे हजारों शब्द हैं. जितने भी देश मेडिकल की पढ़ाई अपनी भाषाओं में कराते हैं, वे भी अंग्रेजी के टर्म ही इस्तेमाल करते हैं. मुझे हिंदी भाषा में पढ़ाई का फायदा तो पता नहीं, लेकिन ऐसा लगता है कि नुकसान बहुत होने वाला है.
मेडिकल शिक्षा में आज भी जिन लेखकों की अच्छी किताबें हैं वो अंग्रेजी में हैं. सारा पाठयक्रम इंग्िटरश में है. मेडिकल टर्म का ट्रांसलेशन भी नहीं हो सका है. जो साइंटिफिक टर्म ट्रांसलेट हो पाए हैं, वो कनफ्यूजन क्रिएट करते हैं. सवाल ये है कि आगे अगर स्टूडेंट पीजी कोर्स के लिए चेन्नई जाएगा तो क्या वहां की भाषा में कर पाएगा. इंटरनेशनल स्तर पर भारतीय डॉक्टरों का दर्जा उन तमाम देशों में जहां उनकी भाषा में मेडिकल की पढ़ाई होती है, से काफी अव्वल रहा है. इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी इंग्लिदश को ही वरीयता दी जाती है. जो स्टूडेंट पांच साल में डॉक्टर बनेगा, माना वो हिंदी में पीजी भी कर लेगा, लेकिन फिर वो कांफ्रेंस कैसे प्रजेंट करेगा, थीसिस कैसे करेगा. इसीलिए जरूरी है कि सबसे पहले हिंदी में मेडकिल और साइंटिफिक शब्द बनें, ताकि किसी पुस्तक का मूल भाव निकलकर कर आए. अर्थ के साथ भाव भी आना जरूरी है.
मेडिकल फील्ड में हिंदी की किताबें क्यों नहीं बनीं?
मध्यप्रदेश सरकार की उच्चस्तरीय कमेटी का हिस्सा एक वरिष्ठ डॉक्टर नाम न छापने की शर्त पर पूछते हैं कि आजतक मेडिकल फील्ड में हिंदी की किताबें क्यों नहीं बनीं. वो इसलिए क्योंकि कभी इस बात पर बल ही नहीं दिया गया कि हिंदी में किताबें हो सकती हैं. हमारी कोशिश ये है कि कम से कम मेडिकल के फर्स्ट ईयर के बच्चों को हिंदी में किताबें उपलब्ध करा पाएं. अभी हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई की लंबी यात्रा है. अभी फर्स्ट ईयर में हिंदी में पढ़ेंगे, लेकिन जब हर ईयर में पढ़ेंगे तभी इसका प्रभाव सामने आएगा. एमपी ने इसकी शुरुआत की है, प्रयास ये किया गया है कि छात्र टेक्नीकल शब्द वैसे के वैसे पढ़ें, ताकि वो कॉरपोरेट में, बाहर नौकरी में या रोजमर्रा की प्रैक्टिस में या मेडिकल की आगे की पढ़ाई में अटके नहीं. जैसे मेंडबिल को जबड़ा नहीं लिखा गया. लिवर को लिवर ही लिखा गया, लंग को फुफ्फुस नहीं लिखा, लंग्स ही लिखा है. इन शब्दों को हिंदी में पढ़ाकर हम उन्हें डिसकनेक्ट कर देंगे. ये एक तरह की ब्रिसज बुक है, सप्लीमेंट्री है, जब फाइनल तक तैयार कर लेंगे तभी पूरी तरह से हिंदी लागू कर पाएंगे.
हिंदीभाषी छात्रों को चिकित्सकीय प्रशिक्षण में सहूलियत का प्रयास
मध्यप्रदेश सरकार की उच्चस्तरीय कमेटी के सदस्य डॉ सत्यकांत त्रिवेदी कहते हैं कि हमारा किसी भी अन्य भाषा से कोई काम्पिटिशन नहीं है. हम चाहते हैं कि हमारे हिंदी भाषी विद्यार्थियों के लिए ऐसी पुस्तकें तैयार हो सकें, जिनसे उनका अध्ययन आसान हो सके और जिससे हमारी मातृभाषा समृद्ध हो पाए. हमने ये सुनिश्चित किया है कि हिंदी का व्यावहारिक पक्ष प्रभावित न हो. ये भी स्पष्ट कर दूं कि इसमें सारे विद्यार्थी साथ ही पढ़ेगें. किसी भी प्रकार अलग से कक्षाओं का संचालन नहीं किया जाएगा. इसका उद्देश्य हिन्दी माध्यम के छात्रों को उनके चिकित्सकीय प्रशिक्षण में सहूलियत देना है. बहुत से विद्वानों की इस प्रयास में अलग राय हो सकती है, लेकिन समय के साथ जैसे जैसे चीजें मूर्तरूप लेती जाएंगी, हम देख पाएंगें कि हमारे हिंदी भाषी विद्यार्थी बेहतर ढंग से पढ़ पा रहे हैं. समय के साथ इन पुस्तकों को चिकित्सा विद्वानों के सुझावों को सम्मिलित करके और अधिक परिष्कृत किए जाने की योजना है.