बोर्ड परीक्षाओं को लेकर देश में इतनी हाइप बना दी गई है कि बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता भी जबरदस्त मानसिक दबाव महसूस करते हैं. शिक्षा प्रणाली ने 10वीं और 12वीं के परिणामों को भविष्य निर्धारण का एक महत्वपूर्ण पैमाना बना दिया है. कई प्राइवेट स्कूलों में भी यह नियम लागू है कि अगर 10वीं में अच्छे नंबर नहीं आए, तो मनचाहा विषय नहीं मिलेगा.
परसेंटेज का बढ़ता दबाव
मनोरोग विश्लेषक डॉ सत्यकांत त्रिवेदी कहते हैं कि 10वीं कक्षा के परिणामों का महत्व इसलिए बढ़ा क्योंकि उन्हें पुरस्कारों, टोकनों और स्कूलों की प्रतिष्ठा से जोड़ दिया गया. 12वीं के बाद कॉलेज में प्रवेश भी परसेंटेज के आधार पर होता था, हालांकि, अब CUET जैसी परीक्षाएं भी आ गई हैं. लेकिन फिर भी, टॉप यूनिवर्सिटी में प्रवेश के लिए 99.9% तक की कट-ऑफ सुनने को मिलती है. इस वजह से बच्चे और माता-पिता इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं, जिससे पूरा परिवार मानसिक रूप से प्रभावित होता है.
परीक्षा के दौरान घर का बदलता माहौल
डॉ त्रिवेदी कहते हैं कि जैसे ही परीक्षा की तारीखें घोषित होती हैं, पूरा घर 'अलर्ट मोड' में आ जाता है. सालभर तो बच्चे और माता-पिता सामान्य रहते हैं, लेकिन परीक्षा के करीब आते ही तनाव चरम पर पहुंच जाता है. माता-पिता का पियर प्रेशर बच्चों तक पहुंचता है, जिससे वे ज्यादा दबाव महसूस करने लगते हैं. यह एक अनावश्यक मानसिक तनाव पैदा कर देता है.
शिक्षा तंत्र में बदलाव की जरूरत
एक्सपर्ट मानते हैं कि यदि सभी कॉलेजों का स्तर एक समान हो, तो परसेंटेज की होड़ खत्म हो सकती है. अगर प्रोफेसर और शिक्षा प्रणाली समान हो, तो छात्रों को कम दबाव महसूस होगा. इसके अलावा, माता-पिता को भी बच्चों की पढ़ाई को लेकर सतत प्रक्रिया अपनानी होगी. 10वीं या 12वीं में अचानक पढ़ाई का प्रेशर देने से समस्या और बढ़ सकती है.
बच्चों में बढ़ती मानसिक समस्याएं
बच्चों पर परीक्षा के दबाव का असर इतना गहरा होता है कि कई बार वे डिप्रेशन, एंग्जायटी और ओवरथिंकिंग का शिकार हो जाते हैं. परीक्षा के दौरान माता-पिता के तीखे ताने, जैसे 'तू तो कुछ नहीं कर सकता' या 'हमारी नाक कटवा दी', बच्चों को मानसिक रूप से तोड़ सकते हैं. कई बच्चे खुद को नुकसान पहुंचाने के बारे में सोचने लगते हैं, क्योंकि वे पहले से ही मीडिया और आसपास की खबरों से इस तरह की घटनाएं सुनते रहते हैं.इसके अलावा इस प्रेशर को कम करने के लिए कई बच्चे नशे की तरफ खिंच जाते हैं, जोकि उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए घातक है.
स्क्रीन एडिक्शन और मानसिक तनाव
आज के डिजिटल युग में, बच्चे पहले मोबाइल से आकर्षित होते हैं और बाद में उसी के एडिक्शन का शिकार हो जाते हैं. जिन बच्चों में पहले से अटेंशन डेफिसिट डिसऑर्डर, एंग्जायटी या डिप्रेशन होता है, वे स्क्रीन एडिक्शन की तरफ ज्यादा आकर्षित होते हैं. गेमिंग और सोशल मीडिया का डिज़ाइन इस तरह से किया जाता है कि बच्चों का ब्रेन रिवॉर्ड सिस्टम के जरिए इसमें उलझ जाता है. इसलिए माता-पिता को तकनीक का हेल्दी यूज़ सिखाना चाहिए और सीमाएं तय करनी चाहिए.
बोर्ड एग्जाम के लिए एक्सपर्ट के टिप्स
नींद पूरी करें: 7 से 9 घंटे की नींद बहुत जरूरी है.
रिवीजन पर ध्यान दें: बार-बार पढ़ाई करने से याददाश्त मजबूत होती है.
दिनचर्या सही रखें: सही खान-पान और एक्सरसाइज पर ध्यान दें.
सोशल मीडिया से दूर रहें: मनोरंजन के लिए बड़े स्क्रीन का उपयोग करें, लेकिन मोबाइल और लैपटॉप से बचें.
डर को मोटिवेशन बनाएं: हल्का डर जरूरी होता है, लेकिन ज्यादा सोचने से बचें.
फेलियर से न डरें: असफलता जीवन का हिस्सा है, उससे सीखें और आगे बढ़ें.
हार को स्वीकार करना सिखाएं
डॉ त्रिवेदी कहते हैं कि बच्चों को फेलियर को फेस करना भी सिखाना चाहिए. बोर्ड परीक्षा जीवन का एक छोटा सा हिस्सा है, पूरी जिंदगी नहीं. बच्चों और माता-पिता को इसे अधिक हाइप नहीं देना चाहिए. माता-पिता को धैर्य रखना चाहिए और बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत बनाने पर ध्यान देना चाहिए. परीक्षा महज एक टूल है, न कि सफलता की गारंटी. इसलिए तनाव को कम करके एक खुशहाल वातावरण बनाना जरूरी है. पेरेंट्स भी एग्जाम के नंबर्स को प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाएं.