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दिल्ली में भी है 'मिनी कोटा', जहां डिप्रेशन का शिकार हो रहे छात्र, पढ़ें ग्राउंड रिपोर्ट

सिर्फ कोटा ही नहीं बल्कि देश के कई हिस्सों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए घर बार छोड़ कर चंद किताबों के साथ खुद को बंद कर लेते हैं. राजधानी दिल्ली के मुखर्जी नगर में भी एक कोटा बसता है. सपना और उसकी सहेली भी मुखर्जी नगर में प्रतियोगी परीक्षाएं क्रैक करने की उम्मीद पाले हुए हैं लेकिन सपना को लगता है कि परिवार की उम्मीदें और समाज का डर बच्चों के सपनों पर भारी हो रहा है.

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दिल्ली का मुखर्जी नगर
दिल्ली का मुखर्जी नगर

प्रतियोगी परीक्षाओं की चुनौती या हारने का डर? क्या नौनिहाल हो रहे हैं डिप्रेशन का शिकार? सपने, उम्मीदें और समाज का डर बच्चों की जिंदगी पर हावी हो रहे हैं? राजस्थान शहर का कोटा वैसे तो आधुनिक शिक्षा की तैयारी के लिए विख्यात है लेकिन बीते कुछ महीनों में यहां उम्मीदों की उड़ान भरने की तैयारी करने वाले नौनिहालों द्वारा खुदकुशी की घटनाओं ने पूरे देश को चिंतित किया है. देशभर से लाखों की संख्या में बच्चे यहां अपना सपना पूरा करने आते हैं. उन सपनों को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत भी करते हैं लेकिन कई ऐसे भी होते हैं जो इन चुनौतियों से थक कर जिंदगी की लड़ाई हार जाते हैं. यह हाल सिर्फ कोटा में ही नहीं बल्कि देशभर के उन शहरों का भी है जो शिक्षण संस्थानों के लिए जाने जाते हैं और 'कोटा' बन चुके हैं.

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दिल्ली का 'कोटा'
सिर्फ कोटा ही नहीं बल्कि देश के कई हिस्सों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए घर बार छोड़ कर चंद किताबों के साथ खुद को बंद कर लेते हैं. राजधानी दिल्ली के मुखर्जी नगर में भी एक कोटा बसता है. मेडिकल की परीक्षाएं हों, इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षाएं हों या फिर यूपीएससी जैसी कठिन परीक्षाएं हों, इन सभी के लिए बच्चों को तैयार करने के लिए यहां मशरूम की तरह विभिन्न कोचिंग संस्थान खुल गए हैं. फीस इतनी ज्यादा है कि बच्चों के सपनों को पूरा करने के लिए मां-बाप जमीन जायदाद तक बेच देते हैं. अपनी उम्मीदों और सपनों ‌का दबाव और मां-बाप की उम्मीदों का बोझ लिए छोटे-छोटे शहरों और गांव से बच्चे मुखर्जी नगर जैसे देश के कई हिस्सों में जी-जान लगाकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने आते हैं. 

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हजारों बच्चों को निराश होकर वापस जाते देखा है
उत्तर प्रदेश से आया हुआ 22 साल का सुनील मुखर्जी नगर की सड़कों पर हर आने जाने वालों को कोचिंग इंस्टीट्यूट के पर्चे बांटता है. विडंबना देखिए 5 साल पहले वह यूपी से मुखर्जी नगर खुद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए आया था लेकिन अब तक पांच कोशिश करने के बाद भी सफलता दूर रही. सुनील कहता है की मां-बाप का साथ अब नहीं मिलता क्योंकि पिता की कमाई ज्यादा नहीं है. ऐसे में किसी तरह गुजारा हो जाता है और पढ़ने के लिए यहां वहां से किताबें मुफ्त में मिल जाती हैं. सुनील कहता है कि अभी उसके पास चार कोशिश और बाकी हैं. वह यूपीएससी की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए चार कोशिश हैं और करेगा, लेकिन वह यह भी बताता है कि अपनी आंख के सामने उसने हर साल हजारों बच्चों को यहां उम्मीद लेकर आते हुए देखा है और निराश होकर टूट कर जाते भी देखा है. 

कभी-कभी बच्चों पर बोझ बन जाती हैं मां-बात की उम्मीदें
सपना और उसकी सहेली भी मुखर्जी नगर में प्रतियोगी परीक्षाएं क्रैक करने की उम्मीद पाले हुए हैं लेकिन सपना को लगता है कि परिवार की उम्मीदें और समाज का डर बच्चों के सपनों पर भारी हो रहा है. सपना कहती है की मां-बाप पैसा लगाकर बच्चों को पढ़ने भेजते हैं और वह उम्मीदें रखते हैं जो कभी-कभी बच्चों पर बोझ बन जाती हैं लेकिन उससे भी ज्यादा समाज का डर होता है, जो बार-बार तुलना करता है कि उनका बच्चा आगे बढ़ गया आपका बच्चा क्यों नहीं? सपना भी खबरों में कोटा के बारे में पढ़ती हैं और मन में उनके भी निराशा घर बनाने लगती है.

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हौसला इनका भी टूटता है...
मुखर्जी नगर की गलियों में रोहित जैसे कितने ही बच्चे हैं जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए हर दिन घंटे अपनी खुशियों का त्याग कर देते हैं. रोहित कहते हैं कि उनके साथ के बच्चे डॉक्टर-इंजीनियर बनकर अब न सिर्फ कमाते हैं बल्कि अपनी मन मुताबिक छुट्टियों को भी एंजॉय करते हैं लेकिन यूपीएससी के उनके सपने और परिवार की उम्मीद के चलते वह फिलहाल अब ऐसी खुशियों से महरूम हो गए हैं. रोहित को लगता है की मां-बाप की उम्मीदें उनके लिए प्रेरणा का काम करती हैं लेकिन जब कोटा में आत्महत्या वाली खबरें सामने आती हैं तो हौसला उनका भी टूटता है.

छोटे बच्चों को भी अपनी चपेट में ले रही ये 'महामारी'
ऐसा नहीं है किसी प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने वाले बच्चे ही प्रश्न पत्र या भविष्य की चिंता या समाज के डर से गिरे हुए हैं बल्कि अब ये एक ऐसी महामारी बन चुकी है जो छोटे बच्चों को भी अपनी चपेट में ले रही है. बचपन भी अब डर और दबाव का शिकार हो रहा है. अपनी उम्मीदों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए 8वीं, 9वीं, 10वीं और 11वीं के बच्चे भी अपने बचपन की अठखेलियां भूल चुके हैं. निहारिका और देवयानी जैसे बच्चे 11वीं कक्षा से ही बोर्ड एग्जाम की तैयारी में ऐसे जुड़ गए हैं कि अब हंसना खेलना ही भूल गए हैं. निहारिका कहती हैं कि हम अपनी उम्मीदें जरूर रखते हैं लेकिन परिवार का भी प्रेशर होता है. साथ ही स्कूल में भी एक अनचाहा प्रेशर शिक्षकों का होता है कि किसी भी तरह अच्छे नंबरों से पास होना है. निहारिका कहती हैं कि कई बार मां-बाप भी हौसले के साथ दबाव बनाते हैं कि जिंदगी में आगे बढ़ाना है जो कई बार एक प्रेरणा से आगे निकलकर दबाव के रूप में भी दिखता है. 

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कोशिश तो पेरेंट्स भी कर रहे हैं
कई अभिभावक ऐसे हैं जो खुद भी शिक्षक हैं और वह मानते हैं कि बच्चों में शिक्षा के प्रति जागरूकता और थोड़ा बहुत अनुशासन जरूरी है लेकिन बच्चों के मन मे डर या दबाव न हो इसके लिए वह पूरी कोशिश कर रहे हैं. संगीता जैसे शिक्षिकाएं एक मां भी हैं और वह अपने बच्चों का ख्याल रखती हैं. संगीता कहती हैं कि हमें बच्चों को शिक्षा का महत्व बताना होगा और उन्हें यह भी समझना होगा की परीक्षा का डर नहीं होना चाहिए बल्कि उसके लिए सही तरीके की तैयारी होनी चाहिए लेकिन उम्मीद का बोझ बच्चों के कंधों पर नहीं डालना चाहिए.

प्रतियोगी परीक्षाओं का प्रेशर बहुत कुछ छीन रहा है
दिल्ली के माउंट आबू प्राइवेट स्कूल की प्रिंसिपल ज्योति अरोड़ा की कोशिश है कि स्कूल में बच्चों की मनोदशा, उनका तनाव मनोवैज्ञानिक तरीके से कम किया जाए फिर उसके लिए चाहे योग करना पड़े या फिर दूसरे तौर तरीके आजमाने पड़े जिससे बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत किया जा सके. ज्योति अरोड़ा बताती हैं कि अकसर मां-बाप अब बच्चों का नाम दसवीं के बाद स्कूल से कटवा देते हैं और उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार करने लगते हैं. ऐसे में बच्चे बोर्ड एग्जाम और इंजीनियरिंग मेडिकल की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के चलते स्कूल से दूरी बना लेते हैं और स्कूल से दूरी होने पर वह अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण समय को खो देते हैं. 

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स्कूल के कई बच्चों ने यह भी बताया जिनके मां-बाप डॉक्टर हैं, वो अपने बच्चों को डॉक्टर बनते देखना चाहते हैं तो जिनके मां-बाप इंजीनियर हैं वो अपने बच्चों को इंजीनियर बनते देखना चाहते हैं. कई बच्चे बताते हैं कि मां-बाप का प्रेशर वह महसूस करते हैं तो कई बच्चे अपने ही सपनों के बोझ से दबे हुए हैं. कई बच्चे ऐसे हैं जो मानते हैं कि परीक्षा पत्र का दबाव होता है तो कई यह भी मानते हैं कि उनके मन-आप हमेशा उनके साथ देते हैं और सही तैयारी के चलते उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं से या जीवन के किसी भी चुनौतियों से डर नहीं लगता. 

पेरेंट्स को दी जा रही बच्चों मानसिक रूप से तैयार करने की सलाह
स्वाति नायक जैसी काउंसलर स्कूल में बच्चों को न सिर्फ ज्ञान और योग सिखाती हैं बल्कि यह सुझाव भी देती है कि मां-बाप बच्चों पर अनावश्यक दबाव बनाने की बजाय उन्हें परीक्षा के लिए मानसिक रूप से तैयार करें ताकि बच्चे इन चुनौतियों को सार्थक तरीके से लें न की नकारात्मक रूप से. बच्चों को मानसिक रूप से स्कूलों में तैयार करने की जिम्मेदारी वसुधा चतुर्वेदी जैसी शिक्षकों की है जो बताती हैं की परीक्षा के पहले बच्चों को दबाव में डालने की बजाय साल भर उन्हें पढ़ाई के महत्व को समझाया जाए और इस तरीके से प्रेरित किया जाए कि बच्चा खुशी से सीखे लेकिन प्रश्न पत्रों से डरे नहीं. कई अभिभावक भी यह मानते हैं कि वह अपने बच्चों को कुछ बनने की नसीहत और प्रेरणा तो देते हैं लेकिन अपने सपनों का बोझ उनके कंधों पर नहीं डालते. 

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ये नोनिहाल एक अनजान डर से ग्रसित हैं. इनकी अपने सपने भी बड़े हैं तो मां-बाप की उम्मीदें भी बड़ी हैं. भविष्य के प्रति उनके मन में फिक्र है लेकिन सबसे ज्यादा समाज द्वारा तुलना किए जाने का डर भी है. सपनों, उम्मीदों और डर से जूझता हुआ बचपन खोता जा रहा है. शहर दर शहर कोटा बनते जा रहे हैं लेकिन हौसलों की उड़ान छोटी नहीं होनी चाहिए ना ही हिम्मत हारनी चाहिए. आज भी कई शिक्षक कई अभिभावक और बच्चे हमारे इर्द-गिर्द हैं जो हौसला भी दे रहे हैं और जीने की उम्मीद भी.

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