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मनुस्मृति पर दिल्ली यूनिवर्सिटी का यू-टर्न, समझिए इसके पीछे का विवाद

सामाजिक लोकतांत्रिक शिक्षक मोर्चा के अध्यक्ष डॉ. एसके सागर ने यह प्रस्ताव वापस लेने के लिए डीयू के कुलपति को पत्र लिखा था, पत्र में उन्होंने कहा, "मनुस्मृति भारत की 85% आबादी के खिलाफ है. वैज्ञानिक रूप से इसमें कानून के छात्रों के लिए अध्ययन करने की कोई वैज्ञानिक मानसिकता नहीं है."

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दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय

दिल्ली विश्वविद्यालय के लॉ फैकल्टी के पहले सेमेस्टर के पाठ्यक्रम में विवादित हिंदू ग्रंथ मनुस्मृति को शामिल करने के बाद एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया था. इसके बाद केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर योगेश सिंह द्वारा प्रस्ताव को तुरंत वापस लेने का फैसला लिया. 'मनुस्मृति' पर विवाद की वजह क्या थी? जो डीयू को इस पर यू-टर्न लेना पड़ा, एक्सपर्ट्स से समझिए. 

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भारत की 85% आबादी के खिलाफ है मनुस्मृति 

सामाजिक लोकतांत्रिक शिक्षक मोर्चा के अध्यक्ष डॉ. एसके सागर ने यह प्रस्ताव वापस लेने के लिए डीयू के कुलपति को पत्र लिखा था, पत्र में उन्होंने कहा, "न्यायशास्त्र को धर्मशास्त्र बनाया जा रहा है, यह समावेशी नहीं बल्कि अपवर्जी है. इसलिए, मनुस्मृति कानूनी पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा नहीं होनी चाहिए, यह एक राष्ट्रीय मुद्दा है. मनुस्मृति भारत की 85% आबादी के खिलाफ है. वैज्ञानिक रूप से इसमें कानून के छात्रों के लिए अध्ययन करने की कोई वैज्ञानिक मानसिकता नहीं है."

उन्होंने कहा, "भारत में जाति व्यवस्था 4 वर्णों में विभाजित है. यह जातिवाद को बढ़ावा दे रहा है और यह पुस्तक इसे बढ़ावा देना चाहती है. मनुस्मृति में कहता है कि शूद्र पैरों से पैदा होता है, ब्राह्मणों का पदानुक्रम में शीर्ष पर होना चाहिए. यह पुस्तक पिछड़ी हुई है, जबकि आज का अध्ययन प्रगतिशील होना चाहिए. दिल्ली विश्वविद्यालय एक प्रमुख विश्वविद्यालय है, क्या वे ऐसी चीजें पढ़ा सकते हैं?"

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लॉ फैकल्टी की डीन ने बताया- मनुस्मृति को पढ़ाने के लिए क्यों लाया गया था

वहीं, लॉ फैकल्टी की डीन अंजु वाली टिकू ने इसे शामिल करने की एवज में सफाई दी थी. उन्होंने कहा, "यह हमारे भारतीय विद्वानों को समझने का हिस्सा है. इसका अर्थ यह नहीं है कि यह महिला सशक्तिकरण और उनकी शिक्षा के खिलाफ है और यह हाशिए पर खड़ी हुई जातियों के खिलाफ है. विषय को "विश्लेषणात्मक सकारात्मकता" के रूप में थीम किया गया है. अगर हम नहीं समझते कि हमारे प्राचीन शास्त्रों ने क्या कहा, उनका क्या अर्थ था, तो हम कैसे विश्लेषण कर सकते हैं और अध्ययन की समझ विकसित कर सकते हैं?"

उन्होंने आगे कहा, "सिफारिशें डीयू समिति द्वारा दी गई थीं. यह विषय अचानक नहीं आया है. इसमें एक उच्च न्यायालय के रिटार्ड जज समेत एक्सपर्ट्स की सलाह ली गई है. 25 जून को स्टैंडिंग काउंसिल की बैठक हुई थी, मैं इसका हिस्सा थी, तब किसी ने इसका विरोध नहीं किया, अचानक कुछ लोग जाग गए हैं." 

डीयू वीसी की सलाह के बिना लाया गया प्रस्ताव

डीयू के कुलपति योगेश सिंह ने कहा, "एकेडमिक काउंसिल से पहले, हमारे पास समिति के भीतर प्रस्तावों पर चर्चा करने का एक सिस्टम है जहां हमने पाया कि प्रस्ताव मनुस्मृति के लिए था. हमने तुरंत इसे खारिज कर दिया और प्रस्ताव में संशोधन किया गया. एकेडमिक काउंसिल में भी कोई सदस्य नहीं था जो इस मनुस्मृति प्रस्ताव पर चर्चा करना चाहता था." उन्होंने कहा इसे कुलपति की सलाह के बिना किया, क्योंकि यह एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है जिस पर पहले चर्चा की जानी चाहिए थी. अगर प्रस्ताव सही भावना में नहीं है और समाज के एक निश्चित वर्ग को ठेस पहुंचाता है तो हमें ऐसा क्यों करना चाहिए? भारतीय ज्ञान परंपरा से शामिल करने के अन्य विकल्प थे, जैसे कौटिल्य की शिक्षाएं."

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शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने क्या कहा?

केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने शुक्रवार को एक समाचार एजेंसी से कहा, "हमें जानकारी दी गई थी कि मनुस्मृति डीयू के लॉ फैकल्टी कोर्स का हिस्सा होगी. मैंने पूछताछ की और दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति से बात की. उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि कुछ लॉ फैकल्टी सदस्यों ने न्यायशास्त्र अध्याय में कुछ बदलाव का प्रस्ताव दिया है. लेकिन जब एकेडमिक काउंसिल की बैठक में प्रस्ताव दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन के पास आया तो एकेडमिक काउंसिल के प्रामाणिक निकाय में इस तरह के किसी भी प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया. कुलपति ने उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. हम सभी अपने संविधान के प्रति प्रतिबद्ध हैं, सरकार संविधान की सही भावना और पत्र को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है. किसी भी स्क्रिप्ट के किसी भी विवादास्पद हिस्से को शामिल करने का कोई सवाल ही नहीं है." डीयू के कुलपति योगेश सिंह ने यह भी कहा कि मनुस्मृति को पेश करने के फैसले को वापस लेना पूरी तरह से विश्वविद्यालय का निर्णय था.

हिंदी विभाग के प्रोफेसर ने डीयू वीसी की इस तरह की पावर पर उठाए सवाल

दिल्ली यूनिवर्सिटी आर्ट्स फैकल्टी के हिंदी विभाग के प्रोफेसर अपरूवानंद ने कहा, "केवल एक ग्रंथ प्रस्तुत करने से कुछ नहीं होता, भारतीय विचार प्रणाली के पीछे के विचार को समझना होगा. क्या आप सभी विचारों को शामिल कर रहे हैं या केवल एक मनुस्मृति को भारत की विचार प्रणाली के रूप में शामिल कर रहे हैं? इस मामले में धर्मेंद्र प्रधान की क्या भूमिका है? इसके अलावा कुलपति को इस तरीके से मंजूरी देने की अपनी इमरजेंसी पावर का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. एकेडमिक काउंसिल के मामले कानून में निर्धारित प्रक्रियाओं के अनुसार तय होते हैं, अगर वाइस चांसलर अपनी पावर का इस तरह से इस्तेमाल करने लगेंगे, तो यह तबाही मच सकती है.”

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उन्होंने कहा, "मनुस्मृति को कानून के रूप में लागू किया जाना चाहिए, यह एक आरएसएस विचार रहा है, संघ हमेशा चाहता रहा है और यह डर रहा है कि मनुस्मृति वह पाठ है जिसका भारत में कानून के रूप में पालन किया जाएगा अगर आरएसएस को परमिशन दी जाती है. अपने तरीके से और वह डर बहुत जीवंत है. दलित इसे जानते हैं, पिछड़ी जातियां और महिलाएं जानती हैं. डॉ बीआर अंबेडकर ने ब्राह्मणवादी न्यायशास्त्र के खिलाफ प्रतीकात्मक रूप से किताब को जला दिया था. यह एक अस्थिर मुद्दा बना हुआ है और दलित भाजपा के लिए एक बहुत बड़ा वोट बैंक हैं, वे उन्हें आज नजरअंदाज या अलग नहीं कर सकते."

नीलांजन मुखोपाध्याय ने यू-टर्न को गठबंधन सरकार का फैसला बताया

मनुस्मृति पर इस यू-टर्न के कारणों पर विस्तार से बात करते हुए नीलांजन मुखोपाध्याय ने कहा, "कोर्स से इस टेक्स्ट को हटाने का निर्णय संयुक्त राष्ट्र सरकार के आग्रह के बाद लिया गया है. हम दो और दो जोड़कर पांच बना सकते हैं. उन्हें (कुलपति को) ऐसा करने की सलाह दी गई होगी, क्योंकि इस समय मौजूदा सरकार 2014 की सरकार से बहुत अलग है. यह भाजपा की सरकार नहीं है, जहां उनकी बनाई नीतियों को आगे बढ़ाया जा सके, ऐसा हो नहीं सकता क्योंकि यह गठबंधन सरकार है. यह स्पष्ट अहसास है. मनुस्मृति पिछले चार दशकों से सामाजिक बहस का केंद्र रही है. इसलिए इसे औपचारिक शिक्षा प्रणाली में शामिल करना निंदनीय के समान है." बता दें कि नीलांजन मुखोपाध्याय द डिमोलिशन, द वर्डिक्ट एंड द टेंपल: द डेफिनिटिव बुक ऑन द राम मंदिर प्रोजेक्ट के लेखक और द टाइम्स के नरेंद्र मोदी: द मैन के लेखक हैं.

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नीलांजन मुखोपाध्याय ने आगे कहा, "जेडीयू और टीडीपी के साथ गठबंधन सरकार वह हाथ है जो भाजपा को अधिक समावेशी सरकार बनने के लिए मजबूर कर रहा है. उन्होंने कहा, "दोनों राजनीतिक दलों, जेडीयू और टीडीपी को मुसलमानों से भी अच्छा खासा वोट मिलता है. 1998 में, वाजपेयी सरकार विवश थी और शासन के राष्ट्रीय एजेंडे से निर्देशित थी जो शासन के सिद्धांतों के मापदंडों से बाहर था. वर्तमान परिदृश्य में, शासन के लिए कोई राष्ट्रीय एजेंडा नहीं है."

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