दिल्ली में कोई भी चुनाव हो उस पर निगाह पूरे देश की होती है. फिर चाहे वह दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ (डूसू) चुनाव हों या फिर जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) छात्र संघ चुनाव, हर चुनाव मीडिया की हेडलाइन में शुमार रहता है. सोमवार को जब डूसू चुनावों के लगभग दो महीने बाद नतीजे घोषित हुए तो लोगों में उसको लेकर भी खूब चर्चा हुई.
बड़ी वज़ह ये भी है कि अगले दो महीनों में दिल्ली में चुनाव होने हैं और छात्र संघ चुनाव बड़े चुनावों के थर्मामीटर के तौर पर देखे जा सकते हैं. खास तौर पर युवा वोटरों में किसकी कितनी पकड़ है इसका अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है. इन चुनावी नतीजों का महत्व तब और बढ़ गया जब 7 साल बाद कांग्रेस के छात्र विंग एनएसयूआई की जीत अध्यक्ष पद पर हुई, क्योंकि पिछले सालों में लगातार बीजेपी समर्थित एबीवीपी ही अध्यक्ष पद जीतती आई थी.
क्या ये विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस का रिवाइवल है?
दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ चुनाव दिल्ली के सबसे छोटे चुनाव जरूर हों लेकिन इसका सियासी मतलब काफी अधिक है. इसलिए बीजेपी से लेकर कांग्रेस इन चुनावों के पीछे दिल्ली के सीनियर नेताओं की लंबी चौड़ी टीम लगा देती है. चूंकि अगले साल की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने हैं इसलिए इन नतीजों का महत्व काफी मालूम पड़ता है. खास तौर पर तब जब दिल्ली में कांग्रेस की हालत पतली है और वह दिल्ली में 10 साल बाद विधानसभा चुनावों में खाता खोलने की लड़ाई लड़ेगी.
लेकिन चुनाव के इर्द गिर्द शोलगुल चाहे जितना हो ये बात भी अहम है कि डूसू चुनावों में कुल वोटर महज डेढ़ लाख ही हैं और इस बार तो वोटिंग प्रतिशत भी पिछले सालों की तुलना में लगभग 7 फीसदी कम रहा. आम तौर पर यह 40 फीसदी से ऊपर होता है लेकिन इस साल महज 35 फीसदी ही रहा यानि सिर्फ 51 हज़ार छात्रों ने ही वोट डाले. इसलिए 15 हज़ार के करीब वोट पाकर एनएसयूआई अध्यक्ष पद जीत तो गई, संदेश भी बड़ा दे दिया लेकिन दिल्ली के विधान सभा चुनावों में लगभग 1 करोड़ 54 लाख वोटर होंगे जिसके हिसाब से ये सैंपल साइज काफी छोटा है.
आम आदमी पार्टी के छात्र विंग के भाग नहीं लेने से हुआ NSUI को फायदा?
दिल्ली में वैसे तो आम आदमी पार्टी की सरकार पिछले दस सालों से है लेकिन दिल्ली यूनिवर्सिटी चुनावों में शुरुआती झटकों के बाद पार्टी के छात्र विंग सीवाईएसएस ने दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ चुनावों में हिस्सा नहीं लिया. हालांकि पिछले सालों में सीवाईएसएस की गैर मौजूदगी के बावजूद एनएसयूआई चुनाव नहीं जीत पाई तो इस बार एनएसयूआई की चुनावी जीत का क्रेडिट आम आदमी पार्टी के छात्र विंग की चुनावी लड़ाई से अलग रहने को तो देना सही नहीं होगा.
फिर भी एक बात तो है कि विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी कहीं ज़्यादा मजबूत होगी, इसलिए डूसू में कांग्रेस छात्र विंग का अच्छा प्रदर्शन सीधे-सीधे विधानसभा में आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन पर रिफ्लेक्ट हो, ऐसा भी नहीं लगता है. हालांकि जो नतीजे सोमवार को आए उसमें लेफ्ट छात्र विंग ने भी अलग अलग पोस्ट पर 10 से 15 प्रतिशत तो वहीं नोटा को भी 15 से 20 प्रतिशत वोट हासिल हुए. यानि कुल डाले गए वोटों का 25 से 30 फीसदी हिस्सा ना तो बीजेपी के स्टूडेंट विंग को गया और ना ही कांग्रेस के.
दिल्ली यूनिवर्सिटी चुनावों का जातीय समीकरण भी विधानसभा चुनावों से अलग
दिल्ली यूनिवर्सिटी चुनावों में एबीवीपी हो या एनएसयूआई उनके महत्वपूर्ण उम्मीदवार अधिकतर दो जातीय पृष्ठभूमि से ही आते हैं. पिछले कई चुनावों में या तो छात्र विंग जाट उम्मीदवार देते हैं या फिर गुर्जर उम्मीदवार. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि दिल्ली के ग्रामीण इलाकों में इन्हीं दोनों जातियों की तूती बोलती है. दिल्ली की कुल आबादी के हिस्से के तौर पर जाट लगभग 6 फीसदी हैं तो गुर्जर 7 फीसदी, यानि दिल्ली के वोटरों में इन दोनों जातियों का कुल योगदान 15% से कम ही है. डीयू में इनके वर्चस्व की बड़ी वज़ह ये है कि जिस हिसाब से यूनिवर्सिटी जैसे छोटे चुनावों में पैसा खर्च होता है, उसमें स्थानीय उम्मीदवारों को ज़्यादा एडवांटेज होता है. साथ ही ग्रामीण वोटरों खास तौर पर हरियाणा से लगे इलाकों के छात्र ही ज़्यादा एक्टिव दिखाई देते हैं. वहीं, विधानसभा चुनावों में जातीय और स्थानीय कई मुद्दे हावी होते हैं. साथ ही अब मेन स्ट्रीम पार्टियां दूसरे राज्यों से दिल्ली में विस्थापित वोटरों पर ज़्यादा फोकस करतीं हैं क्योंकि उनकी आबादी लगातार बढ़ रही है.
छात्र संघ चुनावों के मुद्दे विधानसभा चुनावों से बिल्कुल अलग
जहां विधानसभा चुनावों में मुद्दे छात्रों के आस-पास रहते हैं, वहीं विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों से लेकर हर इलाके के मुद्दे अधिक असरदार होते हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी में तो कई बार मुद्दों से ज़्यादा पैसे का असर दिखाई पड़ता है, जिसकी वज़ह से लगभग दो तिहाई छात्र वोटिंग से दूरी बना कर रखते हैं. साथ ही साथ दिल्ली हाईकोर्ट को भी इस बार नतीज़ों पर रोक लगाने जैसे सख्त कदम उठाने पड़े. इसलिए दिल्ली यूनिवर्सिटी में छात्रों का वोटिंग पैटर्न की तुलना किसी भी तरीके से दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान उठने वाले मुद्दों और वोटिंग पैटर्न से करना बेमानी होगा.