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भोपाल गैस त्रासदी के 35 साल, हमें क्यों नहीं भूलना चाहिए ये हादसा

भोपाल गैस त्रासदी के 35 साल, हमें क्यों नहीं भूलना चाहिए ये हादसा
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आज से 35 बरस पहले 1984 में दो दिसंबर की रात को भोपाल में मौत ने ऐसा तांडव मचाया कि आज तक उसके जख्म नहीं भर सके. इस घटना ने पूरी व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी थी. पूरी मानवता को भोपाल गैस त्रासदी ने कहां से कहां पहुंचा दिया था. आइए उस हादसे को इन तस्वीरों से महसूस करें और जानें कि हमें क्यों ये त्रासदी कभी नहीं भूलनी चाहिए.
भोपाल गैस त्रासदी के 35 साल, हमें क्यों नहीं भूलना चाहिए ये हादसा
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घटना भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के कारखाने से जहरीली गैस रिसाव से हुई थी. इससे समूचे शहर में मौत का तांडव मच गया था. हादसा यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के पेस्टिसाइड प्‍लांट में गैस रिसने से हुआ था.
भोपाल गैस त्रासदी के 35 साल, हमें क्यों नहीं भूलना चाहिए ये हादसा
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सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस लापरवाही की वजह से 5 लाख 58 हजार 125 लोग मिथाइल आइसोसाइनेट गैस और दूसरे जहरीले रसायनों के रिसाव की चपेट में आ गए. इस हादसे में तकरीबन 25 हजार लोगों की जान गई.
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इस त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड के मुख्‍य प्रबंध अधिकारी वॉरेन एंडरसन रातोरात भारत छोड़कर अपने देश अमेरिका रवाना हो गए थे. घटना ने न सिर्फ उस पूरी नस्ल को बल्क‍ि आने वाली नस्ल को भी बर्बाद कर दिया.
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त्रासदी के बाद भोपाल में जिन बच्चों ने जन्म लिया उनमें से कई विकलांग पैदा हुए तो कई किसी और बीमारी के साथ इस दुनिया में आए. ये भयावह सिलसिला अभी भी जारी है और प्रभावित इलाकों में कई बच्‍चे असामान्‍यताओं के साथ पैदा होते रहे हैं.
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7 जून, 2010 को आए स्थानीय अदालत के फैसले में आरोपियों को सिर्फ दो-दो साल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन सभी आरोपी जमानत पर रिहा भी कर दिए गए. बता दें कि यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के तत्कालीन मुखिया और इस त्रासदी के मुख्य आरोपी वॉरेन एंडरसन की भी मौत 29 सिंतबर 2014 को हुई.
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इस हादसे पर 2014 में फिल्‍म 'भोपाल ए प्रेयर ऑफ रेन' बनाई गई थी. इस त्रासदी को बीते 35 साल हो गए है. लेकिन आज भी सरकार पीड़ितों के दर्द पर मरहम नहीं लगा पाई है. पीड़ित मुआवजे समेत बुनियादी सुविधाओं के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं.
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गैस पीड़ितों के हितों के लिए पिछले तीन दशकों से अधिक समय से काम करने वाले भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार की भी इसी साल मौत हो गई. अपनी मौत से कुछ ही दिन पहले उन्होंने कहा कि हादसे के 34 साल बाद भी न तो मध्यप्रदेशऔर न ही केन्द्र सरकार ने इसके नतीजों और प्रभावों का कोई आकलन करने की कोशिश की.
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उनका कहना था कि 14-15 फरवरी 1989 को केन्द्र सरकार और अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन (यूसीसी) के बीच हुआ समझौता पूरी तरह से धोखा था और उसके तहत मिली रकम का हरेक गैस प्रभावित को पांचवें हिस्से से भी कम मिल पाया है.
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नतीजतन, गैस प्रभावितों को स्वास्थ्य सुविधाओं, राहत और पुनर्वास, मुआवज़ा, पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति और न्याय इन सभी के लिए लगातार लड़ाई लड़नी पड़ी है. जब्बार के अनुसार समझौते के तहत मृतकों और घायलों की संख्या बहुत कम दिखाई गई है.
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उनका कहना था कि वास्तविकता में ये संख्या बहुत अधिक है. इस पर 3 अक्टूबर 1991 को उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि यदि यह संख्या बढ़ती है तो भारत सरकार मुआवजा देगी. बता दें कि इस समझौते में गैस रिसने से 3,000 लोगों की मौत और 1.02 लाख लोग प्रभावित बताए गए थे.
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जब्बार का दावा था कि असलियत में 2-3 दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात को यूनियन कार्बाइड के भोपाल स्थित कारखाने से रिसी जहरीली गैस मिक (मिथाइल आइसोसाइनाइट) से अब तक 20,000 से ज़्यादा लोग मारे गए हैं और लगभग 5.74 लाख लोग प्रभावित हुए.
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