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एजुकेशन

पत्थर खाए-बातें सुनीं, मगर बिना डिगे ऐसे इस लड़की ने बदल डाली सूरत

पत्थर खाए-बातें सुनीं, मगर बिना डिगे ऐसे इस लड़की ने बदल डाली सूरत
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कहते हैं कि सामने वाले इंसान के हालात वही समझ सकता है जिसने उसे करीब से महसूस किया हो. लेकिन ऐसे लोग भी कम ही होते हैं जो खराब हालातों से निकलकर उनके लिए सोचे जो उनमें अभी फंसे हैं. दिल्ली की बेटी शमा आज के समय की एक नजीर हैं. आइए महिला दिवस 2020 पर अंधेरों में रौशनी बिखेर रही इस बेटी को सलाम करें और जानें इनके हौसले और जज्बे से भरी ये कहानी.
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शमा बताती हैं कि जब मैं अपने स्कूल में थी तो मुझे अच्छी तरह से पढ़ाया नहीं गया था. जब मेरे आसपास के लोग अंग्रेजी में कुछ पूछते थे तो मुझे अपमानित महसूस होता था. यहां तक ​​कि हमें तो हिंदी भी अच्छी तरह से नहीं सिखाई गई थी. मैंने दिन रात संघर्ष करके किसी तरह पढ़ाई की.

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शमा ने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में स्नातक की पढ़ाई पूरी की. इसके बाद उन्होंने NIIT से सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग का कोर्स भी किया. वो कहती हैं कि मेरे बचपन का दोस्त मो नादिर मेरे लिए किताबें लाया और मेरे सभी उतार-चढ़ाव में मेरी मदद की. तभी मैंने निर्णय लिया कि मैं स्लम के बच्चों को पढ़ाऊंगी.
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वो बीते सात साल से दिल्ली के ओखला के एक स्लम में बच्चों को पढ़ा रही हैं. बच्चों में इतने सालों में बहुत बदलाव आया है. वो अच्छे ढंग से पढ़ने लिखने के अलावा तरीके से बात करना और अंग्रेजी से काफी फेमिलियर हो गए हैं. शमा को इसके लिए सरकार की तरफ से कभी कोई मदद नहीं मिली. वो बताती हैं कि सात साल से सरकारी मदद का इंतजार है. हमने कुछ सरकारी योजनाओं के लिए आवेदन भी किया था.
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शमा के लिए ये शुरुआत काफी कठिन थी. शमा उस दौर के बारे में बताती हैं, कि तब लोगों ने मुझ पर भरोसा नहीं किया. यही नहीं कुछ महिलाओं ने मुझे इन झुग्गी बच्चों को पढ़ाने से रोकने की कोशिश की. उन्होंने मुझ पर पत्थर भी फेंके, जब मैं बच्चों को पढ़ाती थी.
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इतना ही नहीं यह कहकर बच्चों को हटा लिया कि मैं अच्छी तरह से नहीं सिखाती हूं, बच्चों को उनसे नहीं सीखना चाहिए. परिणामस्वरूप, छात्रों ने मुझसे सीखना बंद कर दिया. फिर भी वो  नियमित रूप से झुग्ग‍ियों में जाती रहीं और एक या दो बच्चों को पढ़ाती रहीं. धीरे-धीरे बच्चे और उनके माता-पिता समझ गए और फिर से अपने बच्चों को भेजना शुरू कर दिया.
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शमा जहां पढ़ाती हैं, वहां कोई सुविधाएं नहीं है. वो बताती हैं कि काफी मुश्किल होता है. गर्मियों में हम पर्दे लटकाते हैं और बहुत गर्मी होने पर सुबह जल्दी कक्षाएं लेते हैं. बारिश के मौसम के दौरान, हमें कभी-कभी कक्षाएं छोड़नी पड़ती हैं.  ऐसी स्थितियों में, अगर कोई हमें आश्रय देता है, तो हम वहां सिखाते हैं.
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कठिन परिस्थ‍ितियों में भी शमा अपना काम जारी रखे हैं. अब वर्तमान में वो स्लम के 40 बच्चों को पढ़ा रही हैं. वो बताती हैं कि 40 में से 13 लड़कियों ने हमारी कक्षा में दाखिला लिया है. इन बच्च‍ियों का उत्साह देखकर मुझे मेरा बचपन याद आ जाता है.
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अपनी चुनौतियों के बारे में शमा कहती हैं कि इनके माता-पिता और स्टूडेंट्स को पढ़ाई के लिए मना पाना मुश्क‍िल काम होता है. मसलन कुछ लड़कियां हैं जिन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी और पिछले दो सालों से मैं उनसे अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए कह रही थी. लेकिन वो सुन नहीं रहे थी. मैंने लगातार उन्हें बताया कि पढ़ाई हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है. अब वे दसवीं कक्षा में पढ़ रही हैं.
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इन बच्चों के लिए ये है सपना
शमा ने बताया कि हमारी टीम के सदस्यों में से एक बाबर नमबरदार ने हमें स्कूल के लिए अपनी जगह दी है. अब हम स्लम के बच्चों को 5 वीं कक्षा तक उस स्कूल में मुफ्त शिक्षा प्रदान करेंगे. मेरा सपना है कि हम उन्हें एक स्कूल में अच्छी और क्वालिटी एजुकेशन दें. हमें उम्मीद है कि वे एक दिन बड़े स्कूलों के बच्चों के साथ कंपटीशन में पढ़ सकेंगे.
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