गलवान घाटी में चीन और भारत के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई. इस घाटी की ऊंचाई करीब 14000 फीट है और वहां तापमान शून्य से नीचे रहता है. इस घाटी का नाम लद्दाख के रहने वाले गुलाम रसूल गलवान के नाम पर है. किवदंतियों में गुलाम रसूल को कोई डाकू तो कोई चरवाहा कहता है. आइए जानते हैं कौन था गुलाम रसूल जिनके नाम पर पड़ा घाटी का नाम.
लेह के चंस्पा योरतुंग सर्कुलर रोड पर आज भी गुलाम रसूल के पूर्वजों का घर है. पूर्वी लद्दाख के गलवान घाटी में चीन और भारत के सैनिक सामने टिके हैं. गलवान घाटी की ऊंचाई लगभग 14 हजार फीट है. यहां का तापमान माइनस 20 डिग्री तक गिर जाता है.
ये है झगड़े की वजह
घाटी की ये जगह अक्साई चिन इलाके में आती है. इसलिए चीन हमेशा यहां आंखें गड़ाये रहता है. साल 1962 से लेकर 1975 तक भारत- चीन के बीच जितने भी संघर्ष हुए उनमें गलवान घाटी ही फोकस था. 1975 के बाद अब यह साल 2020 में फिर से सुर्खियों में है.
लद्दाख के रहने वाले चरवाहे गुलाम रसूल गलवान के नाम पर इस घाटी को लोग पहचानने लगे. इसके पीछे कहा जाता है कि घाटी की तलाश गुलाम रसूल ने ही की थी. गुलाम रसूल को कई लोग चरवाहे तो कुछ लोग कथित डाकू के तौर पर याद करते हैं.
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार गुलाम का जन्म साल 1878 में हुआ. जब वह 14 साल का था तभी घर से निकल गया. फिर नई जगहों को खोजने के जुनून की वजह से वह अंग्रेजों का पसंदीदा गाइड बन गया. 1899 में उसने लेह से ट्रैकिंग शुरू की थी. वह लद्दाख के आसपास गलवान घाटी और गलवान नदी समेत कई नए इलाकों तक पहुंचा था.
गुलाम रसूल गलवान बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था. लेकिन वहां टूरिस्ट के तौर पर काम करते हुए गुलाम ने अंग्रेज टूरिस्टों से बात करना सीख लिया था. वहीं से उसने अपनी कहानी को सर्वेंट ऑफ साहिब्स नाम की किताब में लिखा था. लंबे समय तक वह मशहूर ब्रिटिश एक्सप्लोरर सर फ्रांसिस यंगहसबैंड के साथ रहा.
इस दौरान वह कई भाषाएं बोलना सीखा. फिरगुलाम रसूल ने इस पुस्तक के अध्याय द फाइट ऑफ चाइना में बीसवीं सदी के ब्रिटिश भारत और चीनी साम्राज्य के बीच सीमा के बारे में भी लिखा है. आज जब सीमा विवाद पर बात हो रही है ऐसे में उसकी किताब के उस अध्याय का भी हवाला दिया जाता है.