scorecardresearch
 

गरीबी में मां के साथ घूम-घूम कर बेची थीं चूड़ियां, आज है IAS अफसर...

कभी चिलचिलाती धूम में और कंपकंपाने वाली ठंड में मां के साथ चूड़ियां बेचा करते थे रमेश. कुछ वर्षों बाद मेहनत ऐसा रंग लाई कि वह IAS आॅफिसर बन गए. जानें अभावों के रास्ते सफलता की मंजिल पाने वाली यह कहानी...

Advertisement
X
Ramesh Gholap
Ramesh Gholap

Advertisement

कहते हैं कि सपने वो नहीं होते जो आपको नींद के दौरान आते हैं, सपने तो वो होते हैं जो आपको सोने नहीं देते. महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के वारसी तहसील के महागांव के रमेश घोलप के सपने भी कुछ ऐसे थे कि उनकी नींद ने उनका साथ छोड़ दिया था.
बचपन जब संभ्रांत घरों के बच्चे स्कूल जाने के लिए तैयार हुआ करते थे तब वह अपनी मां के साथ नंगे पांव चूड़ि‍यां बेचने निकल जाया करते थे. रोटी के संघर्ष में रमेश और उनकी मां गर्मी-बरसात और जाड़े से बेपरवाह होकर नंगे पांव सड़कों पर फेरी लगाया करते थे.
लेकिन आज वही रमेश एक आईएएस अफसर हैं...

उचित स्कूलिंग के अभाव में भी पढ़ाई नहीं छोड़ी...
दुनिया में ऐसे लोग बहुतायत में हैं जो विपरीत परिस्थितियों के सामने टूट जाते हैं, लेकिन रमेश तो परिस्थितियों से लड़ने के लिए ही पैदा हुए थे. रमेश के पिता नशे के आदी थे और अपने परिवार का ख्याल नहीं रखते थे. अपने घर-बार का खर्चा उठाने के चक्कर में मां-बेटे चूड़ियां बेचने को विवश थे. कई बार तो इस काम से जमा पैसों से भी पिता शराब पी जाया करते थे.
रमेश बढ़ती उम्र से तालमेल बिठाते हुए मैट्रिक तक पहुंचे ही थे कि उनके पिता की मृत्यु हो गई. इस घटना ने उन्हें भीतर तक हिला कर रख दिया, लेकिन वे फिर भी डटे रहे. इन्हीं विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा दी और 88.50 फीसदी अंक हासिल किए.

Advertisement

कभी दीवारों पर लिखते थे नारे, आज बन गए हैं प्रेरणा...
तंगहाली के दिनों में रमेश ने दीवारों पर नेताओं के चुनावी नारे, वायदे और घोषणाओं इत्यादि, दुकानों के प्रचार, शादियों में साज-सज्जा वाली पेंटिंग किया करते थे. इस सबसे मिलने वाली रकम को वह पढ़ाई और किताबों पर खर्च किया करते थे.

मां को लड़वा चुके हैं पंचायती चुनाव...
छोटी उम्र से ही हर चीज के लिए जद्दोजहद करते-करते रमेश कई जरूरी बातें सीख गए थे. जैसे कि लोकतंत्र में तंत्र का हिस्सा होना क्या-क्या दे सकता है. व्यवस्था को बदलने के लिए क्यों व्यवस्था में घुसना बेहद जरूरी है. उन्होंने साल 2010 में अपनी मां को पंचायती चुनाव लड़ने हेतु प्रोत्साहित किया.
उन्हें गांव वालों से अपेक्षित सहयोग भी मिला लेकिन उनकी मां चुनाव हार गईं. वह कहते हैं कि उसी दिन उन्होंने प्रण किया कि वे अफसर बन कर ही गांव में दाखिल होंगे.

रमेश के संघर्ष की कहानी, रमेश की जुबानी...
रमेश कहते हैं कि संघर्ष के लंबे दौर में उन्होंने वो दिन भी देखे हैं, जब घर में अन्न का एक दाना भी नहीं होता था. फिर पढ़ाने खातिर रुपये खर्च करना उनके लिए बहुत बड़ी बात थी. एक बार मां को सामूहिक ऋण योजना के तहत गाय खरीदने के नाम पर 18 हजार रूपये मिले, जिसको उन्होंने पढ़ाई करने के लिए इस्तेमाल किया और गांव छोड़ कर इस इरादे से बाहर निकले कि वह कुछ बन कर ही गांव वापस लौटेंगे. शुरुआत में उन्होंने तहसीलदार की पढ़ाई करने का फैसला किया और इसे पास भी किया. लेकिन कुछ वक्त बाद आईएएस बनने को अपना लक्ष्य बनाया.

Advertisement

और रंग लाई मेहनत...
रमेश कलेक्टर बनने का सपना आंखों में संजोए पुणे पहुंच गए. पहले प्रयास में वे असफल रहे. वे फिर भी डटे रहे और दूसरे प्रयास में आईएस परीक्षा में 287 रैंक हासिल की. आज वह झारखंड मंत्रालय के ऊर्जा विभाग मे संयुक्त सचिव हैं और उनकी संघर्ष की कहानी प्रेरणा पुंज बनकर लाखों लोगों के जीवन में ऊर्जा भर रही है.
वाकई रमेश आज वैसे तमाम लोगों के लिए एक मिसाल हैं जो संघर्ष के बलबूते दुनिया में अपनी पहचान बनाना चाहते हैं.

Advertisement
Advertisement