महज 20 साल की उम्र में श्वेता श्रीनिवासन को पिछले महीने भर नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक हार्टमट मिशेल के साथ जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ बायोफिजिक्स में उनकी लैब में काम करने का मौका मिला. फिलहाल श्रीनिवासन मोहाली में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ऐंड रिसर्च (आइआइएसईआर) से केमिकल साइंस में बैचलर्स और मास्टर डिग्री का इंटीग्रेटेड कोर्स कर रही हैं.
उनसे मिशेल की पहली मुलाकात पिछले साल जर्मनी में 63वें लिंडाउ नोबेल पुरस्कार प्राप्त विद्वान सम्मेलन में हुई थी. जर्मन रिसर्च फाउंडेशन (डीएफजी) और साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी विभाग (डीएसटी) प्रायोजित इस सम्मेलन में भारत से 20 युवा वैज्ञानिकों को शिरकत का मौका मिला था. उन्हीं में श्रीनिवासन भी थीं. सम्मेलन हर साल आयोजित किया जाता है.
हर साल पांच दिन के इस सम्मेलन में विभिन्न विषयों के नोबेल विद्वान जुटाते हैं. भारतीय दल की यात्रा और ठहरने का सारा खर्च डीएसटी और डीएफजी संयुक्त रूप से उठाते हैं. लिंडाउ कॉन्फ्रेंस के बाद डीएफजी जर्मनी में प्रमुख इंस्टीट्यूट्स की सैर आयोजित करता है.
न्यूरोजेनेरेटिव बीमारियों के संदर्भ में प्रोटीन पर रिसर्च करने को उत्सुक श्रीनिवासन कहती हैं, ‘‘लिंडाउ कॉन्फ्रेंस और उसके बाद लिंडाउ के टूर ने मेरी जिंदगी बदल दी और मेरे लिए संभावनाओं का नया संसार खोल दिया. कॉन्फ्रेंस से घर लौटकर मैंने प्रोफेसर मिशेल की जर्मनी की रिसर्च लैब में काम करने के लिए आवेदन किया.
उन्होंने मेरा आवेदन मंजूर कर लिया तो मेरे आश्चर्य और उत्साह का ठिकाना नहीं था. डीएसटी लिंडाउ कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने वाले उन स्टुडेंट्स को फेलोशिप मुहैया करता है जिन्हें किसी प्रोफेसर के साथ जर्मनी में रिसर्च करने की मंजूरी मिल जाती है.’’
इस साल भी मामला अलग नहीं था. मेडिसिन के (जो इस साल लिंडाउ कॉन्फ्रेंस का विषय था) 20 स्टुडेंट्स को जर्मनी दौरे के लिए चुना गया. उनके रवाना होने से पहले केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने इन स्टुडेंट्स से मुलाकात की. फिलहाल इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग ऐंड बायोटेक्नोलॉजी में रिसर्च असिस्टेंट 23 वर्षीय डॉ. राघव भार्गव कहते हैं, ‘‘मैंने इस कॉन्फ्रेंस के बारे में कैसे सुना यह दिलचस्प कहानी है.
मैं सफदरजंग अस्पताल में इंटर्नशिप कर रहा था और रोजाना 12 घंटे से अधिक ड्यूटी करता था. अकसर लेबर रूम में नाइट ड्यूटी भी करता था. उसी दौरान मेरी नजर एक अखबार में लिंडाउ कॉन्फ्रेंस के विज्ञापन पर पड़ी. तब मैंने इसके बारे में और विस्तार से पढ़ा और आवेदन कर दिया. बाद में पाया कि केंद्र सरकार ने मेरा चयन कर लिया. आखिरकार मैं लिंडाउ नोबेल विद्वान कॉन्फ्रेंस काउंसिल की सूची में था.’’
वे बताते हैं, ‘‘यह कॉन्फ्रेंस बेजोड़ है और साइंस के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित विद्वानों से मिलने का अनोखा मौका मिलता है. यहां दुनियाभर से आए साइंटिस्ट्स और स्टुडेंट्स के बीच संवाद का भी मंच मुहैया कराया जाता है.’’ नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिकों से मेल-मुलाकात के बाद, साइंस के स्टुडेंट्स का दल इंस्टीट्यूट्स की सैर पर निकल जाता है. हफ्तेभर की सैर में जर्मनी के छह शहरों और पांच अलग-अलग इंस्टीट्यूट्स में उन्हें ले जाया जाता है.
इनमें ड्रेस्डन में मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ मॉलिक्यूलर सेल बायोलॉजी ऐंड जेनेटिक्स, बर्लिन में बर्लिन-ब्राडेनबर्ग स्कूल फॉर रिजेनेरिटव थेरेपीज, गॉटिनजन में ग्रेजुएट स्कूल फॉर न्यूरोसाइंसेज, बायोफिजिक्स ऐंड मॉलिकूलर बायोसाइंसेज और कोलॉन में कोलोजन क्लस्टर ऑफ एक्सलेंस इन सेलुलर स्ट्रेस रिस्पांसेज इन एजिंग-एसोसिएटेड डिजीज प्रमुख है. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च में सीनियर रिसर्च फेलो श्रीजीत राजशेखरन कहते हैं, ‘‘हर इंस्टीट्यूट में हमें वहां उपलब्ध रिसर्च और स्टडी के मौकों के बारे में बताया गया.
हमें उसके बाद लैबोरेटरी टूर पर ले जाया गया और इंस्टीट्यूट में पहले से ही काम कर रहे भारतीय विद्वानों से भेंट करवाई गई. वह अनोखा अनुभव था और उससे मेरे एकेडमिक करियर को आगे ले जाने में वाकई मदद मिली.’’ लिंडाउ कॉन्फ्रेंस में शामिल स्टुडेंट्स में से एक राजशेखरन को नोबेल विद्वान रॉल्फ जिंकेरनागेल की अध्यक्षता में मास्टरक्लास दिया गया.
सबसे बड़ा जर्मन रिसर्च फंडिंग ऑर्गेनाइजेशन डीएफजी 2001 से हर साल इस टूर का आयोजन करता है. इस साल के टूर के आखिरी दिन वैज्ञानिकों का दल बॉन में डीएफजी के हेड ऑफिस में पहुंचा और डीएफजी के जनरल सेक्रेटरी डॉ. हेराल्ड वॉन काम से भविष्य में इंडो-जर्मन रिसर्च कोऑपरेशन के तहत फंडिंग विकल्पों की जानकारी ली.
डीएफजी के नई दिल्ली ऑफिस के डायरेक्टर अलेक्जेंडर पी. हानसेन कहते हैं, ‘‘जर्मन रिसर्च फाउंडेशन और डीएसटी इंडो-जर्मन कोऑपरेशन को आगे बढ़ाने में लंबे समय से सहयोगी हैं. यह प्रोग्राम युवा इंडियन रिसर्चर के लिए यादगार अनुभव होता है. अगली पीढ़ी को रिसर्च में जर्मनी-भारत के सहयोग को और ऊंचे स्तर पर ले जाने की प्रेरणा देता है.’’