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एक महिला जो कूड़े-कचरे से डिजाइनर चीजें बनाती है...

भोपाल में जन्मी और दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ी-लिखी अनीता आहूजा कंजर्व नामक संस्था बनाकर कूड़े-कचरे को खूबसूरत रूप दे रही हैं. साथ ही वह सैकड़ों लोगों को रोजगार दे रही हैं...

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Anita Ahuja
Anita Ahuja

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हम-आप जब घर से बाहर निकलते हैं तो पाते हैं कि कई जगहों पर कूड़े का ढेर बना है. उन्हें उठवाने की व्यवस्था तक नहीं दिखती लेकिन इसी अव्यवस्था में कुछ लोग खूबसूरती देख लेते हैं. भोपाल में जन्मी अनीता आहूजा भी ऐसी ही शख्सियत हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ी-लिखी अनीता की ख्याति आज पूरी दुनिया में हैं. वह कंजर्व के नाम से एक संस्था चला रही हैं और उस संस्था के मार्फत सैकड़ों लोगों को रोजगार दे रही हैं. जानें उनके संघर्षों की दास्तां...

प्लास्टिक हैंड बैंग से की शुरुआत...
उनके पति एक इंजीनियर होने के साथ-साथ सोशल वर्कर भी थे. दोनों ने सोचा कि क्यों न एक एनजीओ खोला जाए और देश की खूबसूरती और समृद्धि में हाथ बंटाया जाए. एनजीओ का लक्ष्य था साफ सफाई और कूड़े व वेस्ट मैटेरीयल का उपयोग करके उसे अन्य प्रयोग में लाना. उन्होंने इस पर काम करना शुरू किया. शुरुआत में बहुत सारी चीजों में प्रयोग हुआ लेकिन बाद में प्लास्टिक हैंड बैग बनाने पर सहमति बनी. इससे पहले कूड़े को केवल कम्पोस्ट बनाया जा रहा था. अब प्लास्टिक से बैग बनाना शुरू हुआ.
प्लास्टिक के थैलों को पहले धोया जाता फिर उनसे प्लास्टिक के थैलों की चादरें तैयार की जातीं और इन चादरों से हैंड बैग बनाए जाने लगे. समय के साथ-साथ इसने गति पकड़ी और आज इस कार्य से सालाना आय 70 लाख से ज्यादा है. आज देश ही नहीं विदेशों से भी कई लोग इन बैग्स की डिमांड कर रहे हैं. ये बैग्स दिखने में आकर्षक होने के साथ-साथ ही काफी मजबूत और टिकाऊ भी हैं.

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अपने नजरिए के दम पर बन गई मिसाल...
जब अनीता ने कंजर्व की शुरुआत की थी तब उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था. आज अनीता अनगिनत लोगों के लिए मिसाल बन गई हैं. अनीता ने वेस्ट मैनेजमेंट के मार्फत दिखा दिया कि कोई भी काम छोटा नहीं होता. लगन और ईमानदारी हमेशा अच्छे परिणाम देती है. अनीता का प्रयास उन लोगों को सम्मान से जीने का हक दिला रहा है जो लोग देश की सफाई में लगे होने के बावजूद 2 जून की रोटी को तरस रहे हैं. कूड़ा बीनने वाले महीने में केवल 1500-2000 तक ही कमा पाते हैं. इसमें सबसे ज्यादा संख्या महिलाओं और बच्चों की होती है. वह अब अपेक्षाकृत बेहतर जिंदगी जी रहे हैं.

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