हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में 9 सितंबर 1974 को विक्रम बत्रा का जन्म हुआ. 1997 में विक्रम बत्रा को मर्चेंट नेवी से नौकरी की कॉल आई लेकिन उन्होंने यह नौकरी छोड़ लेफ्टिनेंट की नौकरी को चुना.
पढ़िए कारगिल युद्ध के दौरान कैप्टन विक्रम बत्रा की बहादुरी की वीरगाथा
पालमपुर में जी.एल. बत्रा और कमलकांता बत्रा के घर 9 सितंबर 1974 को दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बच्चों का जन्म दिया. उन्होंने दोनों का नाम लव-कुश रखा. लव यानी विक्रम और कुश यानी विशाल.
विक्रम का एडमिशन पहले डीएवी स्कूल, फिर सेंट्रल स्कूल पालमपुर में करवाया. पर सेना छावनी में स्कूल होने से सेना के अनुशासन को देख और पिता से देश प्रेम की कहानियां सुनने पर विक्रम में स्कूल के समय से ही देश प्रेम जाग उठा.
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वह स्कूल में शिक्षा के क्षेत्र में ही आगे नहीं थे, पर टेबल टेनिस में अव्वल दर्जे के खिलाड़ी होने के साथ उनमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेने का भी जज्बा था.
जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में एडमिशन लिया. दिसंबर 1997 में शिक्षा समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली.
उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए. पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया.
हम्प और राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया.
इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया.
बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया.
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विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया.
अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा.
इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया. इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई. उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा.
कारगिल के युद्ध के दौरान उनका कोड नाम 'शेर शाह' था. पॉइट 5140 चोटी पर हिम्मत की वजह से ये नाम मिला.
कारगिल युद्ध में कैप्टन विक्रम बत्रा 7 जुलाई को शहीद हुए थे. इस नौजवान ने दिखा दिया था कि भारत के जवान किसी से कम नहीं.
कारगिल के पांच सबसे इंपॉर्टेंट पॉइंट जीतने में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई थी. सबके चहेते विक्रम को शहीद होने के बाद 'परमवीर चक्र' से नवाजा गया.
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उन्होंने मरने से पहले अपने बहुत से साथियों को बचाया. उनके बारे में खुद इंडियन आर्मी चीफ ने कहा था कि 'अगर वो जिंदा वापस आते, तो इंडियन आर्मी का हेड बन गया होता''.
विक्रम बत्रा का ‘ये दिल मांगे मोर’ डायलॉग बहुत फेमस था. अक्सर किसी चोटी पर फतह हासिल करने के बाद वे यही कहा करते थे.
बतादें शुरुआती पढ़ाई के लिए विक्रम किसी स्कूल में नहीं गए थे. उनकी शुरुआती पढ़ाई घर पर ही हुई थी और उनकी टीचर थीं उनकी मम्मी.
19 जून, 1999 को कैप्टन विक्रम बत्रा की लीडरशिप में इंडियन आर्मी ने घुसपैठियों से प्वांइट 5140 छीन लिया था. ये बड़ा इंपॉर्टेंट और स्ट्रेटेजिक प्वांइट था, क्योंकि ये एक ऊंची, सीधी चढ़ाई पर पड़ता था. वहां छिपे पाकिस्तानी घुसपैठिए भारतीय सैनिकों पर ऊंचाई से गोलियां बरसा रहे थे.
विक्रम बत्रा और लेफ्टिनेंट अनुज नय्यर को महा वीर चक्र दिया गया. वो दोनों पॉइट 4875 कब्जे की कोशिश में शहीद हुए.
बतादें 16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिट्ठी में लिखा – 'प्रिय कुश, मां और पिताजी का ख्याल रखना. यहां कुछ भी हो सकता है''.