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भूकंप: सब दरारों का खेल है

भूकंप की न तो भविष्यवाणी की जा सकती है और न ही उसे रोका जा सकता है. एक ही तरीका है कि इसके लिए तैयार रहा जाए.

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आज के हालात में सबसे प्रासंगिक सवाल यह है कि क्या भूकंप का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है? दुर्भाग्यवश, न तो इसका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है और न ही इसे रोका जा सकता है. हिमालय अब भी बेचैन है. भारत उत्तर की ओर खिसक रहा है और भूकंप लगातार आते रहेंगे.

भूगर्भ विज्ञान में पूर्वानुमान लगाना समस्या पैदा करने वाला है. अधिकतर भूगर्भीय घटनाएं जटिल होती हैं और एक ही तरीके से खुद को दुहराती नहीं हैं. भौतिकी और रसायनशास्त्र जैसे प्रायोगिक विज्ञानों से उलट यहां हमारे सामने जो स्थितियां होती हैं, उन्हें हम किसी प्रयोगशाला के भीतर नियंत्रित परिवेश में नहीं जांच सकते. हमारा समूचा विज्ञान पर्यवेक्षण पर आधारित है. हम समय में पीछे की ओर यात्रा भी नहीं कर सकते. एक ही तरीका है कि अतीत के भूकंपों का अध्ययन करते हुए उनके आईने में हम वर्तमान को देखें और उससे सबक लें.
इसीलिए भूकंप संवेदी पट्टी में उन इलाकों की पहचान करना जरूरी है जहां भूकंप आ सकते हैं-कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक वाया नेपाल और भूटान, अराकन योमा पर्वत शृंखलाओं से लेकर अंडमान-निकोबार और इंडोनेशियाई द्वीपों तक. वैज्ञानिकों को यह देखने की जरूरत है कि कौन से इलाके सबसे ज्यादा संवेदनशील हैं, दरारें कहां से कहां तक जाती हैं और इनमें कितना बड़ा भूकंप आ सकता है. उन्हें बस कुछ सक्रिय उपाय करने होते हैं ताकि नुक्सान को कम किया जा सकेः इन इलाकों में निर्माण न किया जाए, अगर हो तो यह सुनिश्चित किया जाए कि ये भूकंपरोधी हों, ऐसी सड़कें न बनाई जाएं जो टूट सकें. यही इकलौता विकल्प है.

आज जहां हिमालय हैं, वह एक ऐसा क्षेत्र है जो दक्षिण की भारतीय प्लेट और उत्तर की यूरेशियन प्लेट के बीच का इलाका होता था. इन प्लेटों को टेथिस नाम का एक प्राचीन महासागर साढ़े पांच करोड़ साल पहले विभाजित करता था. इतने ही बरस पहले यह महासागर यूरेशियन प्लेट के नीचे लुप्त हो गया और नतीजतन भारतीय महाद्वीप यूरेशियाई भूखंड के साथ जाकर मिल गया. इस टकराव से होने वाला मिलान आज तक जारी है जिसे हिमालय की उत्तरी और दक्षिणी शृंखलाओं के बीच स्थित सिलसिलेवार दरारें लगातार अपने भीतर समाहित करती रहती हैं.

ये सभी दरारें उत्तर की ओर या तो धंस जाती हैं या ढलान पैदा करती हैं (मतलब कि धरती की सतह के साथ एक कोण बनाती हैं) और समय के साथ दरारों के ऊपर पैदा होने वाले लंबवत हिस्से दक्षिण की ओर खिसकते रहते हैं. इसी वजह से यहां धरती की सतह सख्त हो जाती है जिससे हिमालय इतनी ऊंचाई हासिल कर पाता है. यह प्रक्रिया आज भी जारी है और इसीलिए रह-रहकर भूकंप आते रहते हैं. जब कभी हिमालयी दरारों का दक्षिण की ओर खिसकना बाधित होता है, तब भूकंप आ जाता है. भले ही हिमालय की भव्यता इन्हीं दरारों की देन हो, लेकिन हिमालय के क्षेत्र में आने वाले भूकंप से होने वाला विनाश भी इसी प्रक्रिया की देन है.

हिमालयी क्षेत्र से उलट हिमालय के दक्षिण वाला हिस्सा (खासकर प्रायद्वीप, जिसे सामान्यतः भारतीय ढाल कहते हैं) लंबे समय से स्थिर रहा है और अरबों साल से अपनी जगह पर बना हुआ है. इन अतिप्राचीन पत्थरों के भीतर इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि बरसों पहले इनमें विकार आया था और इस क्षेत्र में भूगर्भ वैज्ञानिकों ने दरारों की पहचान भी की है. हालांकि ये दरारें अब सक्रिय नहीं रह गई हैं और फिलहाल इनसे कोई खतरा भी नजर नहीं आ रहा है.  

क्या इसका मतलब यह है कि देश का बाकी हिस्सा भूकंपों के खतरे से मुक्त माना जाए? दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं है. भारत जिस तरह से उत्तर में तिब्बत की ओर खिसकता जा रहा है, इसका अधिकतर जोर हिमालयी दरारों पर ही पड़ रहा है, इस खिसकाव का कुछ असर स्थिर भारतीय ढाल पर अवश्य पड़ता है और यदि यहां की किसी भी प्राचीन दरार के अनुकूल यह खिसकाव कभी भी हुआ (यदि ये दरारें हिमालयी दरारों के तकरीबन समानांतर हो गईं) तो ये पुरानी दरारें दोबारा सक्रिय हो जा सकती हैं. ढाल के क्षेत्र में आने वाले भूकंप विरले होते हैं, लेकिन ये विनाशक अवश्य होते हैं. उदाहरण के लिए, हम जबलपुर और लातूर के भूकंप को याद कर सकते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये इलाके सघन आबादी वाले हैं और यहां भूकंप की विभीषिका को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया है. इसीलिए अब धीरे-धीरे यह महसूस किया जा रहा है कि पुरानी दरारों की भी पहचान की जानी चाहिए और इनके जागृत होने की संभावनाओं को संज्ञान में लिया जाना चाहिए. दूसरे शब्दों में, भूगर्भशास्त्र चाहे पुराना हो या नया, उसकी उपेक्षा कर के आप शत प्रतिशत अपनी जान को जोखिम में ही डाल रहे होते हैं.
आज से डेढ़-दो करोड़ वर्षों बाद हिमालय को पैदा करने वाली चालक शक्ति समाप्त हो जाएगी. ग्लेशियर, बारिश, बादलों के फटने और तेज हवाओं से समय के साथ अपक्षरण की दर में इजाफा होता जाएगा. फिर कुदरत संतुलन का खेल खेलते हुए संभवतः हिमालय को एक पठार की तरह सपाट कर देगी. ऐसे में हिमालय की शान और भव्यता जाती रहेगी. हो सकता है कि तब आप पैदल ही तिब्बत या चीन टहलते हुए चले जाएं और रास्ते में आपको पहाड़ न दिखाई दें. जाहिर है, तब हममें से कोई भी मौजूद नहीं होगा और बेशक, भूकंप भी उसके बाद फिर कभी नहीं आएंगे.

(लेखक आइआइटी-खडग़पुर के भूगर्भविज्ञान और भूभौतिकी विभाग में प्रोफेसर हैं)

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