काल के प्रवाह में बहती जिंदगी जब मौत से गले मिलती है, तो ''भगवान की मर्जीʼʼ वाला फलसफा अचानक सूझता है. पिछले 25 अप्रैल को नेपाल में आए रिक्टर पैमाने पर 7.9 तीव्रता के भूकंप के तुरंत बाद जब दिल धक से बैठ गया था, उस वक्त हिमालय के पहरेदार भगवान पशुपतिनाथ के सामने हजारों हाथ हवा में उठे हुए थे. कुछ प्रार्थना में थे तो कुछ पीड़ा में. अब धीरे-धीरे जब खुंबू पर बर्फ थम रही है, यूरेशियन प्लेट के नीचे जमी भारतीय टेक्टॉनिक प्लेट अपनी प्राचीन लय में वापस लौट रही है और मौतों की लगातार बढ़ती फेहरिस्त गहरे दुख और आक्रोश को एक साथ जन्म दे रही है, तो वही पुराना सवाल एक बार फिर सिर पर मंडराने लगा हैः आखिर ऐसा हुआ कैसे? और हम इसके लिए तैयार क्यों नहीं थे?
कुछ लोगों का कहना है कि नेपाल को पहले जैसा बनाने में दशकों लग जाएंगे, खासकर इसलिए कि इसमें जितना खर्च आएगा, वह नेपाल के जीडीपी से भी ज्यादा है. विकासशील देशों में भूकंप के नुक्सान को कम करने का अभियान चलाने वाले अलाभकारी संगठन जियोहजार्ड्स इंटरनेशनल का कहना है कि ''काठमांडू में रहने वाला एक व्यक्ति इस्लामाबाद के निवासी के मुकाबले नौ गुना और तोक्यो के किसी निवासी के मुकाबले 60 गुना मौत के करीब हैʼʼ क्योंकि भारत-नेपाल सीमा पर 1934 में आए पिछले बड़े भूकंप के बाद से नेपाल में लगातार अनियंत्रित निर्माण कार्य हुआ है.
सामने रखे टीवी पर जारी मौत और तबाही के तांडव को देखते हुए हर भारतीय के जेहन में ''अगर यहां हुआ तो क्याʼʼ जैसे सवाल उठते हैं, तो भूकंप विज्ञानियों के पास इसका कोई जवाब नहीं है. वे निरुत्तरता में कंधे उचका देते हैं. इंटरनेशनल यूनियन ऑफ जियोडेसी ऐंड जियोफिजिक्स के अध्यक्ष हर्ष के. गुप्ता कहते हैं, ''अगर रिक्टर पैमाने पर 6 तीव्रता का कोई भूकंप दिल्ली में आया तो उससे होने वाले विनाश की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता.ʼʼ दिल्ली भूकंपीय क्षेत्रों के जोन 4 में स्थित है. देश को इस तरह के पांच जोन में बांटा गया है. वे कहते हैं, ''विशाल झुग्गियां और अनियमित कॉलोनियां, खासकर यमुना के खादर में स्थित रिहाइशी इलाकों के लाखों मकान ताश के पत्तों की तरह ढह जाएंगे. हो सकता है कि कुतुबमीनार 7.0 तीव्रता का झटका झेल ले, लेकिन उसके आगे मेरे खयाल से वह भी नहीं बच पाएगी.ʼʼ
हैदराबाद स्थित नेशनल जियोफिजिक्स रिसर्च इंस्टिट्यूट के भूकंप विज्ञानी विनीत गहलोत दबी हुई हंसी में कहते हैं, ''क्या आपने पुरानी दिल्ली के मकानों की बालकनी देखी है जो एक-दूसरे से इतनी सटी हुई हैं कि औरतें सामान का आदान-प्रदान करती हैं? अगर नेपाल जैसा कोई भूकंप दिल्ली में आया तो यहां की सड़कें इतनी संकरी हैं कि आप राहत और खोज अभियान भी नहीं चला पाएंगे.ʼʼ
गुजरात में 2001 में आए भूकंप और 2004 की सूनामी के बाद सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) ने 2012 से 2014 के बीच उत्तरी भारत में तीन बड़े ड्रिल (अख्यास) आयोजित किए ताकि भूकंप की तीव्रता का ताजा जायजा लिया जा सके और लोगों को भूकंप की विभीषिका के बारे में सूचित और शिक्षित किया जा सके.
एनडीएमए ने 13 फरवरी, 2013 की आधी रात चंडीगढ़ में 1905 के कांगड़ा में आए 8.0 तीव्रता वाले उस भूकंप की कल्पना की जिसमें माना जाता है कि पंजाब, हरियाणा, हिमाचल और चंडीगढ़ में 20,000 लोग मारे गए थे. इसने पाया कि अगर आज यह भूकंप आया होता तो दस लाख लोगों की मौत हुई होती. यह अभ्यास 2014 में उत्तर-पूर्व के आठों राज्यों में दोहराया गया जिसमें 1897 में असम में आए 8.7 तीव्रता वाले भूकंप को मानक माना गया जब करीब डेढ़ हजार लोग मारे गए थे. एनडीएमए ने पाया कि 2014 की किसी रात अगर ऐसा भूकंप आया होता तो कम से कम आठ लाख लोग मारे जाते.
एनडीएमए के सदस्य लेफ्टिनेंट जनरल एन.सी. मारवाह बताते हैं कि इन तीनों बड़े अभ्यासों ने (पहला दिल्ली में 2012 में किया गया था, देखें बॉक्स) आबादी के बीच बहुत जागरूकता पैदा की, लेकिन वे मानते हैं कि राष्ट्रीय आपदा योजना को अब भी प्रधानमंत्री कार्यालय से मंजूरी मिलना बाकी है. दिल्ली या जोन 4 और 5 के तहत आने वाले दूसरे शहरों में होने वाले नुक्सान का आकलन पूछे जाने पर मारवाह कहते हैं कि एनडीएमए को ऐसे अध्ययन करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि इसका क्रियान्वयन राज्यों को करना है. वे कहते हैं, ''हम भारत को सिर्फ विनाश प्रतिरोधी होने संबंधी दिशानिर्देश जारी कर सकते हैं, और हां, एनडीएमए बेशक एक दंतविहीन संस्था है.ʼʼइंटरनेशन काउंसिल ऑफ मॉन्युमेंट्स ऐंड साइट्स की जोखिम तैयारी कमेटी के प्रमुख रोहित जिज्ञासु मानते हैं कि एनडीएमए के दिशानिर्देशों को आसान होना चाहिए और इसमें देसी प्रौद्योगिकी और निर्माण तकनीकों के ज्यादा इस्तेमाल पर बात होनी चाहिए, मसलन कश्मीर की तरह, जहां इमारतें आम तौर से लकड़ी की बनाई जाती हैं.
जिज्ञासु कहते हैं, ''सांस्कृतिक विरासतों के लिए एनडीएमए के पास कोई दिशानिर्देश नहीं है. मसलन, कुतुब मीनार के लिए कोई जोखिम प्रबंधन योजना मौजूद नहीं है, जो नेपाल जितने बड़े भूकंप को शायद ही झेल पाएगी.ʼʼ वे कहते हैं, ''वास्तव में, एनडीएमए और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) जैसे सांस्कृतिक संगठन के बीच कोई संपर्क या तालमेल ही नहीं है. किसी भी आपदा की स्थिति में आखिर एएसआइ किससे संपर्क करेगा?ʼʼ
मुंबई के लिए एक जोखिम रिपोर्ट तैयार करने में सहयोग करने वाले आइआइटी मुंबई के रवि सिन्हा कहते हैं कि एनडीएमए राज्य सरकारों पर इसका दोष मढ़ता है, लेकिन किसी भी राज्य के पास समग्र आपदा प्रबंधन योजना मौजूद नहीं है. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण खुद को नीतिगत नियोजन और जन जागरूकता जैसी कवायदों तक ही सीमित रखता है जबकि मौसम विभाग द्वारा दिल्ली में और भू-गर्भ विज्ञान मंत्रालय द्वारा 30 शहरों में की जा रही माइक्रो जोनिंग सिर्फ टोपोग्राफिकल सर्वेक्षण तक सीमित है. सचाई यह है कि इन एजेंसियों में से किसी के पास भी देश के किसी भी हिस्से में भूकंप के प्रति तैयारी की सूचना मौजूद नहीं है, चाहे गांव हों या शहर.
भू-गर्भ विज्ञान मंत्रालय में काबिज इस नौकरशाही जकड़न से परदा हटाने का काम आइआइटी रुड़की के भूकंप अभियांत्रिकी विभाग के एक प्रोफेसर को करना पड़ा. मंत्रालय ने आइआइटी द्वारा 10 साल से चलाई जा रही एक परियोजना को सितंबर 2014 में अनुदान देना बंद कर दिया था. इस परियोजना के तहत हिमालयी क्षेत्र में कुछ अहम स्थानों पर 293 उपकरण लगाए गए थे जिनका काम भूकंपों से होने वाली संरचनात्मक प्रतिक्रिया पर आंकड़े एकत्र करना था.
नेपाल के भूकंप से ठीक एक माह पहले 26 मार्च को आइआइटी रुड़की के अशोक कुमार ने मंत्रालय को शिकायत लिखकर भेजी जिसमें कहा कि मंत्रालय ने एकतरफा तरीके से इस परियोजना को इसलिए बंद कर दिया क्योंकि यह काम वह अपने अधीन आने वाले नेशनल सेंटर फॉर सीस्मोलॉजी को देना चाहता था.
अशोक कुमार एक दूरदर्शी की तरह बताते हैं, ''अगर कोई बड़ा भूकंप आया तो हमारे देश की स्थिति बहुत अपमानजनक और दर्दनाक हो जाएगी क्योंकि उपकरण मापन के इस मौजूदा दौर में हो सकता है कि हमारे पास इससे संबंधित कोई मजबूत रिकॉर्ड ही उपलब्ध न रहे.ʼʼ
उनकी बात इस तथ्य से साबित होती है कि हालिया भूकंप के तुरंत बाद जब देश भर के वैज्ञानिकों ने आंकड़े खोजने शुरू किए तो उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा. मंत्रालय ने आइआइटी रुड़की को उसकी परियोजना बंद करने को तो कह दिया लेकिन उसके अधीन आने वाले सीस्मोलॉजी सेंटर ने इस काम को अपने हाथ में नहीं लिया था.
अपने मंत्रालय के फैसले के बचाव में मंत्रालय के सचिव शैलेश नाइक ने इंडिया टुडे को बताया कि आइआइटी की परियोजना पिछले दस साल से चल रही थी और यही वक्त था कि उसे एक स्थायी तंत्र के साथ जोड़ा जाता. नाइक कहते हैं, ''परियोजना खत्म होने पर उन्हें निश्चित रूप से मुझे एक स्टेटस रिपोर्ट भेजनी चाहिए थी. मैं कोई वकील तो नहीं हूं कि यह जांचने का काम करूं कि एकीकरण का काम पहले हुआ था या बाद में.ʼʼ
नाइक का कहना था कि उन्हें पक्का भरोसा है कि कम से कम ''एक या दोʼʼ केंद्रों ने फिर भी नेपाल के भूकंप को दर्ज किया रहा होगा क्योंकि ''उनकी बैटरी लाइफ एक साल की हैʼʼ. उन्होंने अब इसका पता लगाने के लिए सभी केंद्रों पर एक टीम भेजने का आदेश दिया है. उनका कहना था कि वैसे भी हिमालय में लगे सभी 64 सीस्मोमीटर (देश भर में कुल 82 मीटर हैं) से आंकड़े पहले ही जारी किए जा चुके हैं. शिमला को पहाड़ों की रानी कहा जाता था. आज वहां नौकरशाही की संवेदनहीनता और सियासी लोभ ने मिलकर शहर को बरबाद कर दिया है. यहां 2013 की एक आपदा प्रबंधन योजना कहती है कि अगर यहां 7.5 तीव्रता वाला कोई भूकंप आया तो 98 फीसदी शहर या तो ढह जाएगा या फिर यहां भारी नुक्सान होगा. एनडीएमए के सलाहकार बी.के. खन्ना की मानें तो शिमला की आठ लाख से ज्यादा आबादी का कम से कम एक-चौथाई हिस्सा ऐसे भूकंप में साफ हो जाएगा.
वास्तुकार-योजनाकार ए.जी.के मेनन कहते हैं, ''राष्ट्रीय भवन संहिता बहुत अच्छी है और इसमें लगातार संशोधन हो रहा है लेकिन यह बाध्यकारी नहीं है. सचाई यह है कि किसी भी शहर में 90 फीसदी इमारतें बिना मंजूरी के बनाई जाती हैं.ʼʼ
जानकार लोग इस बात पर दुख जताते हैं कि भारत भूकंप के झटके झेलने के मामले में बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं. आइआइटी रुड़की में भूकंप अभियांत्रिकी विभाग के प्रमुख एम.एल. शर्मा कहते हैं, ''हम लोग हिमालयी क्षेत्र में भी तेज ढलानों पर बहुमंजिला इमारतें बना रहे हैं. भारत के लोगों को लगता है कि भूकंप दूसरों के यहां आता है.ʼʼ
भारत में तैयारी न होने के पीछे एक बड़ी वजह संसाधनों का टोटा है. नापा वैली में 2014 में जब भूकंप आया, तब कैलिफोर्निया की आधुनिक शॉकएलर्ट प्रणाली ने 5 से 10 सेकंड पहले ही संभलने का मौका दे दिया था जिससे लोग बच गए. जापान के सेंदाई में 2011 में जब भूकंप आया था, तो यहां की पूर्व सूचक प्रणालियों (देखें बॉक्स) ने 9 पैमाने की पी-तरंगों के पैदा होने से 12-22 सेकंड पहले जापान रेलवे को सूचना दे दी जिसके चलते बुलेट ट्रेनों को अचानक रोका जा सका.
जापान का मौसम विभाग करीब 800 सीस्मोमीटरों का परिचालन करता है जबकि स्थानीय सरकारें 3,600 सीस्मिक तीव्रता मीटरों का परिचालन करती हैं. इनसे आने वाली तमाम सूचनाओं को तत्काल तोक्यो और ओसाका स्थित अर्थक्वेक फेनॉमिना ऑब्जर्वेशन सिस्टम में डाला जाता है और प्रसारित कर दिया जाता है. इसके उलट भारत ने हिमालयी क्षेत्र में सिर्फ 72 जीपीएस उपकरण और 64 सीस्मोमीटर लगाए हैं. लेकिन इन पर निरंतर निगरानी का अभाव दिखता है, जो हाल के भूकंप के मामले में स्पष्ट हो गया. यह नए खतरे का संकेत है और अब भी अगर हम नहीं चेते तो मंहगी कीमत चुकानी होगी. गुजरात में 2001 के भूकंप में बरबाद हो चुके कस्बे अंजार में पुनर्विकास के काम से जुड़े रहे मेनन कहते हैं, ''पुराने कस्बे को दुरुस्त करने और इसकी सड़कें चौड़ी करने के लिए तमाम लोगों को बाहरी इलाके में जमीनें दे दी गई थीं. जब मैं कुछ साल बाद यहां वापस आया, तो मैंने पाया कि अधिकतर लोग नई जमीनों को छोड़कर वापस अपने 'घरʼ आ गए थे.ʼʼ
भारत में सबसे ज्यादा भूकंप संवेदी शहर मिजोरम की राजधानी आइजोल है जो जोन 5 में आता है. इसके बाद दूसरा स्थान सिक्किम के गंगटोक का है. जियोहजार्ड्स का एक अध्ययन बताता है कि कैसे पूरा आइजोल पहाड़ के सहारे टिका हुआ है और यहां के कुछ मकान तो दस मंजिला तक हैं. संस्था के दक्षिण एशियाई प्रतिनिधि हरि कुमार कहते हैं, ''अगर आइजोल में भूकंप आया तो सिर्फ भूस्खलन में हजारों लोग दफन हो जाएंगे.ʼʼ
नौकरशाही की लापरवाही, सियासत की बेपरवाही और संवेदनहीनता की ऐसी मिश्रित दास्तानें समूचे राष्ट्रीय परिदृश्य को जकड़े हुए हैं. दिल्ली विकास प्राधिकरण के एक अभियंता याद करते हुए बताते हैं कि कैसे 2005 में राज्य सरकार ने अमेरिकी दानदाता एजेंसी यूएसएड के सहयोग से शहर की पांच अहम इमारतों को भूकंपरोधी बनाने की प्रायोगिक परियोजना अपने हाथ में ली थी. इनमें दिल्ली सचिवालय, पुलिस मुख्यालय, जीटीबी अस्पताल और लुडलो कैसल स्कूल शामिल थे. कुछ काम हुआ भी-स्कूल को सीस्मिक बेल्ट मिल गया और दिल्ली सचिवालय को भूकंपरोधी योजना की पूरी खुराक पिलाई गई. 2007 के आसपास राज्य के कुछ अभियंता प्रशिक्षण के लिए अमेरिका भी गए, लेकिन इसके बाद यह काम अचानक रोक दिया गया. उस समय अचानक पता चला कि दिल्ली को 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी मिल गई है और युद्धस्तर पर इसके लिए सारा काम पूरा किया गया. इसके बाद नेपाल में आए भूकंप तक दिल्ली सोती रही, जब तक कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ऐलान नहीं कर डाला कि शहर को अब कमर कसनी होगी.
कुछ इस तरह से जिंदगी का चक्का लगातार भगवान की मर्जी से घूमता चला जा रहा है. उधर, हिमालय में यूरेशियाई प्लेट के नीचे भारतीय टेक्टॉनिक प्लेट खदबदाते हुए लगातार कह रही है कि अगले बड़े भूकंप का दिन करीब है. नेपाल में लंबी होती मौतों की फेहरिस्त अगर भारत के लिए कोई सबक रखती है, तो वह यह है कि इस देश को अब बेपरवाही की आड़ में पल रहे अपने नियतिवाद से निजात पानी ही होगी और हर एक जिंदगी की इज्जत करना सीखना होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो निराशा में कंधे उचकाने की भारी कीमत चुकानी पड़ जाएगी.