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याद आती है उस सस्ते मेकअप की महक:आसिफ अली

आसिफ अली आज भी जब किसी नाटक में अभिनय के लिए मेक-अप करने ग्रीनरूम में घुसते हैं तो उसकी खुशबू से उनका रोयां-रोयां रोमांचित हो उठता है.

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Asif Ali
Asif Ali

आसिफ अली आज भी जब किसी नाटक में अभिनय के लिए मेक-अप करने ग्रीनरूम में घुसते हैं तो उसकी खुशबू से उनका रोयां-रोयां रोमांचित हो उठता है. मेक-अप मटीरियल की महक ही उनके लिए किक का काम कर जाती है. यह महक तुरंत उन्हें दो दशक पहले के उन दिनों में पहुंचा देती है, जब बिहार के शहर मुजफ्फरपुर में वे शौकिया नाटक करते थे. ‘‘सस्ते मेक-अप की वो महक मेरे पूरे शरीर में सनसनी पैदा कर देती थी.’’

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लंबा कद, सामान्य चेहरा, थोड़ी दबी लेकिन पैनी आवाज. इस 40 वर्षीय अभिनेता, निर्देशक, शिक्षक और नाट्यलेखक के रंगकर्मी, या कहें कि संपूर्ण रंगकर्मी बनने का असाधारण सफर उत्तर भारत के किसी साधारण-से युवक के लिए भी दिलचस्प और प्रेरक हो सकता हैः बिहार में छपरा जिले के खैरा गांव में जन्म.

रेलवे में कार्यरत पिता ने चार साल की उम्र में मामा के पास पटना भेज दिया. दो साल बाद फिर गांव लौट आए. जहां पास में सिर्फ मदरसा ही था. वहां मौलवी साहब उर्दू और अरबी पढ़ाते थे. नतीजाः बाद में जब मुजफ्फरपुर रहने गए तो वहां हिंदी भी उर्दू के अंदाज में दाएं से बाएं लिखते थे.

दसवीं में पढ़ते वक्त सरस्वती पूजा के दिनों में मोहल्ले में ऑर्केस्ट्रा के उस दौर में आधे घंटे का अंधेर नगरी नाटक बिना स्क्रिप्ट के, मां से सुनी कहानी के आधार पर कर डाला. पटना से मेक-अप खरीद कर लाए. खूब पोता. मंडली के लोग डायलॉग भूल गए पर दर्शकों को खूब मजा आया. 500 रु. इनाम मिला.

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बस यहीं से बदल गई दिशा. खंजड़ी खरीदी, बैनर बनवाया. पहले नुक्कड़ और फिर नियमित नाटक शुरू. पिता तो उन्हें एकेडमिक्स या ब्यूरोक्रेसी में भेजने का सपना देख रहे थे. बेटे का नाटक जब चौराहों पर आ गया तो वे चिंतित हो उठे. पर आग तो लग चुकी थी. आखिरकार पटना विवि से एमए करते हुए 1997 में दूसरे प्रयास में एनएसडी पहुंचकर ही उन्होंने दम लिया.

पर उनका रचनात्मक विस्तार असाधारण लगता है. तथ्यों में देखें तो 40 से ज्यादा नाटकों में अभिनय, 10 का निर्देशन, इतने का ही लेखन, पांच का रूपांतरण. अनामदास का पोथा (हजारी प्रसाद द्विवेदी) के लिंगबोध शून्य नायक रैक्व और (वामन केंद्र निर्देशित) जानेमन में किन्नर शकीला जैसे खासे चुनौतीपूर्ण किरदार निभाने से उपजे आत्मविश्वास का ही नतीजा था कि वे 2005 में करियर तलाशने मुंबई जा पहुंचे. पर वहां मिली ऊब ने उनकी शख्सियत का एक नया पहलू खोल दिया.

सुबह-शाम 8-10 घंटे निकालकर वे नाटक लिखने लगे. आश्चर्य! अगले ही साल उन्हें नाट्यलेखन के लिए युवा बिस्मिल्लाह खां पुरस्कार मिल गया. यह उनके लिए टर्निंग पॉइंट बना. वे इस विधा पर और गंभीरता से काम करने दिल्ली लौट आए. काफ्काः एक अध्याय, गुलाब बाई, बावरा मन और रंग अभंग जैसे उनके नाटकों को देखने के बाद शीर्ष रंगकर्मी मोहन महर्षि ने उन्हें हिंदी नाट्यलेखन में एक बड़ी प्रतिभा घोषित किया.

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लव जेहाद जैसे ताजा संवेदनशील मसले को रोमियो-जूलियट से जोड़कर आज की पीढ़ी की जबान में नया नाटक उन्होंने हाल ही पूरा किया है. यह उस समय में हुआ है जब नाम और पैसे के लिहाज से नाटक लिखने को बहुत अच्छा उपक्रम नहीं माना जाता. पर सुकून उनके लिए बड़ी चीज थी, जो उन्हें मिली.

संघर्ष
रंगकर्म में जीने-मरने देने के लिए पिता को राजी करने में खासी जद्दोजहद करनी पड़ी. लेखन के लिए अनुत्प्रेक माहौल में भी शिक्षण से जीविका कमाकर नाटक लिखने का स्पेस निकालने में कामयाब रहे.

टर्निंग पॉइंट
2005 में वे अभिनय में बड़ा मौका तलाशने मुंबई गए. वहां मौके न मिलने पर सुबह-शाम 8-10 घंटे का समय निकाल नाटक लिखने लगे. अपने व्यक्तित्व के इस पहलू को तब उन्होंने गंभीरता से महसूस किया.

उपलब्धियां
नाट्यलेखन के लिए उन्हें 2006 में बिस्मिल्लाह खां अवॉर्ड मिला. शीर्ष रंगकर्मी मोहन महर्षि ने उन्हें हिंदी नाट्यलेखन में एक बड़ी प्रतिभा बताया.

 

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