वैसे तो पूरी दुनिया ही इस बात से इत्तेफाक रखती है कि सफल लोगों के पास कुछ तो खास होता है जो उन्हें औरों से अलग रखता है. एक अलग आइडिया, एक अलग विजन, एक अलग नजर और उससे भी बढ़ कर संघर्ष करने और कभी हार न मानने वाला साहस. एक ऐसे ही साहसी शख्स का नाम है खलील अहमद. उन्हें भारत में बायोटेक्निक्स को मशहूर और सफल बनाने वाले शख्स के तौर पर जाना जाता है. वे आज भी बहुतों के लिए उम्मीद की किरण हैं.
भारत में बायोटेक्निक्स की शुरुआत की...
भारत के भीतर मेडिकल क्षेत्र में अच्छा करने वाले और उससे संपर्क रखने वाले कहते हैं कि बायो-टेक्नोलॉजी की कहानी शांता बायोटोनिक्स से शुरू होती है. इस कंपनी ने अपने कामों से भारत में नई और सकारात्मक ऊर्जा का संचार किया. यहां निर्मित टीकों से दुनिया भर के करोड़ों जरूरतमंद लोगों ने फायदा उठाया. इससे पहले यह टीके महंगे होने की वजह से आम आदमी की जद से बाहर थे. शांता बायोटेक्निक्स ने करोड़ों बच्चों को इन खतरनाक बीमारियों का शिकार होने से बचाया है.
मंगलौर-मुंबई के रास्ते ओमान तक गए...
वैसे तो खलील मूल रूप से कर्नाटक के रहने वाले हैं लेकिन पिता की सरकारी नौकरी की वजह से वे परिवार के साथ मुंबई आ गए. पिता घर का सारा खर्च पूरा करने में असहाय थे तो मां ने दूसरों के कपड़े सिलने का काम शुरू कर दिया. पिता सरकारी नौकरी में होने की वजह से सारी दिक्कतें समझते थे और वे नहीं चाहते थे कि उनके परिवार में अब कोई और सरकारी नौकरी करे.
खलील के ऊपर इन बातों का असर पड़ा और वे मुंबई में एक कंसल्टंसी कंपनी में काम करने लगे. यहीं से उन्हें ओमान जाने का मौका मिला. वहां उन्हें विदेश मंत्री के सहायक के सहायक की नौकरी मिली थी. ओमान ने इस काम को पूरी तन्मयता से करना शुरू किया. अपनी मेहनत और लगन के दम पर वे धीरे-धीरे सबकी नजरों में आ गए. वे बाद के दिनों में विदेश मंत्री के सहायक बने और फिर बिजनेस मैनेजर हो गए.
हवाई जहाज और उड़ानों से होते हुए रासायनिक लैब्स में पहुंचना..
खलील शुरुआती दौर में हवाई यात्राओं की बारीकियां समझने के लिए मुंबई पहुंचे. वहां उन्हें कुछ दोस्तों ने हैदराबाद के बायो-टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में शुरू किए जा रहे प्रोजेक्ट के बारे में बताया. वे हैदराबाद आकर वरप्रसाद रेड्डी से मिले. इस मुलाकात से ऐतिहासिक यात्रा की शुरुआत हुई. उन्होंने वरप्रसाद रेड्डी के साथ मिल कर भारत में खतरनाक और जानलेवा बीमारियों से बचाने वाले टीके बनाने की शुरुआत की.
ओमान के ऐश-ओ-आराम से एक छोटे कमरे का सफर...
खलील ने जब इस सारे प्लान के बारे में विदेश मंत्री को बताया कि वे इस क्षेत्र में हाथ आजमाना चाहते हैं तो विदेश मंत्री ने उनका उत्साहवर्धन करने के साथ-साथ आगाह भी किया. हालांकि खलील अपने लिए सब-कुछ तय कर चुके थे. वे बायोटेक्नोलॉजी में दाखिल होने और आम व गरीब जनता के लिए कुछ बेहतर करने के पक्षधर थे. उन्होंने अपनी सारी कमाई बायोटेक्निक्स लैब को स्थापित करने में लगा डाली.
अंत में मदद भी ओमान से ही आई...
इस काम में ढेर सारे रुपये-पैसे की जरूरत थी और उन्होंने हैदराबाद के सारे बैंकों के दरवाजे खटखटा लिए लेकिन उसका हासिल कुछ भी नहीं रहा. सारे बैंकों ने उनके एप्लीकेशन रिजेक्ट कर दिए. अंत में उन्होंने ओमान से संपर्क किया. वहां विदेश मंत्री ने निजी गारंटी देकर ओमान से शांता बायोटेक्निकिस को कर्जा दिलवाया. वे धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे और लायंस क्लब, रोटरी क्लब और दूसरे गैर-सरकारी संस्थाओं की मदद से इस क्षेत्र में प्रयास करने लगे और उनका टीका आम जनों और मेडिकल से जुड़े लोगों के बीच प्रचलित होने लगा.
शांता बॉयोटेक्निक्स ने जो किया वो देश और दुनिया में बड़ी मिसाल बनी. हेपेटाइटिस-बी के बाद शांता बायोटेक ने दूसरी जानलेवा और भयानक बीमारियों से बचाने वाले टीके बनाए. दुनिया के अलग-अलग देशों ने ये टीके मंगवाए और अपने यहां जरूरतमंद लोगों को लगवाए. शांता बॉयोटेक्निक्स को यूनीसेफ से भी आॅर्डर मिले.
अब इस कहानी से सकारात्मक क्या हो सकता है कि एक सरकारी नौकर का लड़का जिसे कभी दो जून की रोटी भी मिलने में भी दिक्कतें आ रही हों. वह एक समय में पूरी दुनिया के लिए उम्मीद की किरण बन जाए. हमें आप पर गर्व है खलील...