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पढ़ें: 'दमादम मस्त कलंदर' वाले सूफी बाबा, जिनकी दरगाह बनी निशाना

पाकिस्तान के सिंध प्रांत में जिस लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह पर आतंकी हमला हुआ, जानिए उसके बारे में खास बातें...

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लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह
लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह

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पाकिस्तान में सिंध प्रांत के सहवान कस्बे में स्थित लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह पर आतंकी हमला हुआ. ये दरगाह दुनिया भर में मशहूर दमादम मस्त कलंदर वाले सूफी बाबा यानी लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह है. यह वही हैं, जिनका जिक्र 'दमादम मस्त कलंदर' में आता है.

बताया जाता है कि महान सूफी कवि अमीर खुसरो ने शाहबाज कलंदर के सम्मान में 'दमादम मस्त कलंदर' का गीत लिखा. बाद में बाबा बुल्ले शाह ने इस गीत में कुछ बदलाव किए और इनको 'झूलेलाल कलंदर' कहा. सदियों से ये गीत लोगों के जेहन में रचे-बसे हैं. इसी से इस दरगाह की लोकप्रियता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है.

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लाल शाहबाज कलंदर की मजार पर उनकी बरसी के समय सालाना मेला लगता है, जिसमें पाकिस्तान के लाखों लोग शरीक होते हैं.

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कौन थे बाबा कलंदर
- सूफी दार्शनिक और संत लाल शाहबाज कलंदर का असली नाम सैयद मुहम्म द उस्मानन मरवंदी (1177-1275) था. कहा जाता है कि वह लाल वस्त्र धारण करते थे, इसलिए उनके नाम के साथ लाल जोड़ दिया गया.

- बाबा कलंदर गजवनी और गौरी वंशों के समकालीन थे. वह फारस के महान कवि रूमी के भी समकालीन थे.

- बाबा कलंदर के पुरखे बगदाद से ताल्लुलक रखते थे लेकिन बाद में ईरान के मशद में और फिर मरवंद गए. मुस्लिम जगत में खासा भ्रमण करने के बाद सहवान में बस गए थे. बताया जाता है, तकरीबन 98 साल की उम्र में 1275 में उनका निधन हुआ. उनकी मौत के बाद 1356 में उनकी कब्र के पास दरगाह का निर्माण कराया गया. उनके मकबरे के लिए ईरान के शाह ने सोने का दरवाजा दिया था.

- कुछ इतिहासकारों का मानना है कि लाल शाहबाज कलंदर ने पाकिस्तान के विभिन्न हिस्सों के अलावा भारत के दक्षिणी सूबों की भी यात्राएं भी की थीं.

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चार यार में से एक
संत लाल शाहबाज कलंदर मजहब के खासे जानकार थे. उनको पश्तोन, फारसी, तुर्की, अरबी, सिंधी और संस्कृत का भी ज्ञान था. उन्होंने सहवान के मदरसे में भी पढ़ाया था और यहीं कई किताबों की रचना भी की. उनकी लिखी किताबों में मिज़ान-उस-सुर्फ, किस्मन-ए-दोयुम, अक्दा और जुब्दांह का नाम लिया जाता है.

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मुल्तान में उनकी दोस्ती तीन और सूफी संतों से हुई, जो सूफी मत के 'चार यार' कहलाए.

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