यमुना पार के दिलशाद गार्डन इलाके का डीडीए फ्लैट. खड़ी दोपहरी की चिलचिलाती धूप. फ्लैट नंबर एफ2 में एक 84 वर्षीय शख्स किताबों की दुनिया में डूबा है. उनके कमरे का पंखा झुलसा देने वाली गर्मी से जैसे हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है. हमारे पहुंचते ही वे चहकते हुए बतियाना शुरू कर देते हैं. धीरे-धीरे उनके अंदर का बच्चा, युवा, तेज-तर्रार आलोचक और किस्सागो एक-एक कर सामने आने लगते हैं. अपने गांव (बिस्कोहर, जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश) और गुरु (हजारी प्रसाद द्विवेदी) के बारे में लिख चुका यह कद्दावर बुजुर्ग लेखक अब बच्चों के लिए किताब लिख रहा है. ''पंडिज्जी (हजारी प्रसाद द्विवेदी) की जीवनी पर सातवीं-आठवीं के बच्चों के लिए मैं किताब लिखना चाहता था. अब साहित्य अकादमी ने यह काम मुझे सौंपा है तो उसी में जुटा हूं."
ये हैं हिंदी साहित्य के वरिष्ठ आलोचक, कवि, गद्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी. गुरु ऋण तो उन्होंने चुका दिया है. गुरु की जीवनी पर लिखी उनकी किताब व्योमकेश दरवेश को हाल ही मूर्ति देवी पुरस्कार देने की घोषणा हुई है. उन्हें व्यास सम्मान भी मिल चुका है. जितनी रस भरी उनकी बातें और लेखनी है, वैसा ही उनका जीवन भी. वे किसान के घर जन्मे लेकिन देखा कि परिवार के लोगों का जी किसानी में कम, मारपीट में ज्यादा लगता था. पूरा परिवार इलाके में मारपीट करने वालों के रूप में सरनाम था. उनसे द्ब्रयौरा सुनिए जरा: ''मेरी कद-काठी देखकर आप मेरे परिवार का अंदाजा नहीं लगा सकते. सब एक से एक मुस्टंड थे. पिताजी गुस्सा होतेतो मेरे कद को लेकर यह तंज अकसर कसते कि 'साला हाथी के घर में मूस पैदा हुआ है."
जब खेती किसानी में किसी का मन ही न लगे तो घर के हालात कैसे सुधरें. सो बालक 'बिस्सनाथ' के जीवन का अच्छा-खासा हिस्सा उपवास में बीता. पढऩे के लिए उन्होंने हिंदी को चुना और स्कॉलरशिप के दम पर आगे बढ़ते रहे. 1951 के दौर में उन्हें 60 से 70 रु. स्कॉलरशिप मिलती थी. लेकिन पैसे की इस खनक ने उन्हें ट्रैक से उतार दिया. बीए में सब अध्यापकों को उनसे टॉप करने की उम्मीद थी, लेकिन उन्हें तो सिनेमा का ऐसा चस्का लगा कि रविवार को दोपहर 12 से लेकर रात 12 बजे तक के शो देखते. आवारा फिल्म आई तो लगातार छह दिन मतवाला युवा नरगिस के खुमार में ही डूबा रहा. नतीजा: वे सेकंड डिविजन में पास हुए. शर्म आनी ही थी. कानपुर को अलविदा कह वे बनारस आ गए. यहां संस्कृत के उनके पसंदीदा अध्यापक उन्हें द्विवेदी से मिलवाने उनके घर ले गए पर वे नहीं मिले. अगले दिन वे अकेले ही जा पहुंचे. फटा पाजामा और उधार की कमीज. द्विवेदी को देखते ही विश्वनाथ ने कहा कि वे उनके शिष्य बनना चाहते हैं. द्विवेदी ने हामी भर दी. वे बताते हैं, ''गुरुजी के यह पूछने का मुझ पर सबसे ज्यादा असर हुआ कि 'तुम्हें भूख लगी है?" उन्होंने कहा कि तुम खुद ही अपना जीवन बना सकते हो."
वे दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाने लगे. कविताएं भी लिखने लगे. लेकिन उन्हें आलोचक बनाया उनके सहपाठी और अध्यापक डॉ. नामवर सिंह ने. त्रिपाठी बताते हैं, ''नामवर दिल्ली आए. आलोचना के संपादक बने. उनके कहने पर मैंने कुछ समीक्षाएं लिखीं और आलोचक हो गया." हालांकि गद्य लेखन उन्हें ज्यादा भाया. पर हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा पर उनकी आलोचना की खासी चर्चा हुई. ''बच्चन की आत्मकथा की मैंने सबसे ज्यादा खिंचाई की."
व्योमकेश दरवेश में उन्होंने अपने गुरु के साथ जिए समय को शब्दों में उतारा है तो नंगातलाई का गांव में अपने गांव और बचपन की यादों को ताजा किया है. स्वघोषित वामपंथी त्रिपाठी वर्ण व्यवस्था के सख्त खिलाफ हैं. वे एक किस्सा सुनाते हैं: ''1944 की बात है. मैं 12 साल का था. गांव से स्टेशन 15 किमी था. जुलाई-अगस्त का महीना था. बारिश के बाद तीखी धूप निकली थी. मुझे प्यास लगी. गठरी सिर पर लादे जा रहा था. देखा, पास ही बगीचे में एक बुजुर्ग पौधों को पानी दे रहा है. मैंने पानी मांगा. उसने उस जमाने की रीत के मुताबिक, मेरी जात पूछी. 'बाभन' बताते ही उसने पानी देने से मना कर दिया क्योंकि वह दलित था. बहुत कहने पर उसने कहा कि 'आगे बनिया है, उससे पानी ले लो. यह पाप मैं अपने सिर नहीं लूंगा.' इस बात ने गहरा असर किया." वे मानते हैं कि अब दलितों और स्त्रियों के हालात में सुधार आया है और यह बदलाव उनके गांव में भी नजर आता है. इसीलिए वे इन दिनों अपने गांव के दलितों और वहां की वेश्याओं पर किताब लिखने का काम कर रहे हैं.
इस बीच जब खाने-पीने की बात आई तो उनके चेहरे पर रौनक आ गई. जज्बाती मजाक वाले लहजे में वे बोले: ''मैंने जीवन में उपवास बहुत किए हैं, इसलिए मुझे खाना बहुत प्रिय है." चावल, अरहर की दाल, भरवां करेले, दही भल्ले, भुने आलू का चोखा, गोल गप्पे, कबाब और मिठाई में जलेबी, लड्डू उन्हें बेहद पसंद हैं. चाँदनी चौक के घंटेवाला हलवाई से लेकर छोले-भटूरों के लिए मशहूर कमला नगर के चाचे दी हट्टी तक का जिक्र वे एक सांस में कर जाते हैं: ''1960 में दिल्ली आया ही था. उन दिनों जामा मस्जिद की सीढिय़ों पर मतीसा कबाबवाले के सीख कबाब कमाल के थे. एक रु. में कबाब के चार पीस आते, साथ में पाव भर रोगनी रोटी लेता. डेढ़ रु. में भरपेट खाना खाकर मजा आ जाता."
उनकी दिनचर्या सुबह छह बजे मेथी के काढ़े से शुरू होती है. दिन में अब वे तीन ही काम करते हैं: खाना, पढऩा और सोना. पर इससे इतर एक काम उन्हें विशेष प्रिय है: पत्नी से झगडऩा. वह भी आटे और गुड़ के पकवान गुलगुलों के वास्ते. वे चाहते हैं कि हफ्ते में कम से कम दो बार तो यह बने ही. पत्नी के भूल जाने पर त्रिपाठी उनसे झगडऩा नहीं भूलते. तो आखिर उनके हिसाब से उनके जीवन का निष्कर्ष क्या है? ''कई बार साधनहीनता या आपकी गलती ही आपका जीवन बना देती है, और यही मेरे साथ भी हुआ."