‘युवा हूं. डिग्री है. मगर नौकरी नहीं.’ आज के भारत के इस अहम सवाल पर मंथन हुआ इंडिया टुडे कॉन्क्लेव 2015 में.
सवालः क्या है ये स्किल डिवेलपमेंट मंत्रालय?
रूडीः 100 दिन पहले ही बना है ये मंत्रालय. 66 साल पीछे चल रहे हैं. क्यों बना ये मंत्रालय. क्योंकि पिछले दो सेशन से 24 मंत्री
स्किल डिवेलपमेंट से जुड़े सवालों का जवाब दे रहे थे. इसलिए चीजों को व्यवस्थित किया गया.
सवालः मोदी के वादे के मुताबिक अच्छे दिन लाने में आपकी क्या भूमिका होगी?
रूडीः विकसित देशों में या फिर चीन जैसे देशों में भी स्किल्ड वर्क फोर्स कम से कम 40 फीसदी से ऊपर है. मगर भारत में यह
नंबर है 2 फीसदी. इसलिए मुश्किल बेरोजगारी नहीं, मुश्किल रोजगार के लिए लोगों को सही तरीके से तैयार करने की है. इसलिए ऐसी
शिक्षा पर जोर है, जो लोगों में रोजगार के लिए जरूरी स्किल डिवेलप करे. और यहीं हमारी भूमिका शुरू होती है. सिर्फ भूमिका ही नहीं,
सबसे ज्यादा फोकस की भी जरूरत है.
सवालः मिस्टर चेतन भगत, कहां है मुश्किल?
चेतन भगतः मुश्किल सिर्फ सरकार के लेवल पर नहीं है. दो चीजें हैं. एक, सरकार कितना भी कर ले. स्किल डिवेलपमेंट कर ले.
विदेशी कंपनियां आ जाएं. 1 करोड़ नौकरी नहीं पैदा हो सकती हैं. जरूरत एंतरप्रेन्योरशिप की है. मारवाड़ी और गुजराती जैसे कुछेक
उदाहरण छोड़ दें, तो बाकी भारत की सोच अच्छी नौकरी लो, सैटल हो जाओ वाली है. जरूरत शुरुआती स्तर पर मिनी एंत्ररप्रेन्योरशिप
की है. दूसरी बात, लोगों को इस सवाल का जवाब भी देना होगा कि क्या वह ऐसी सरकार की सराहना करेंगे जो वोट बैंक के लिए
त्वरित और पॉपुलर फैसले लेने के बजाय विजनरी और लंबे समय तक असर और नतीजे देने वाले फैसले करे. Conclave15: सचिन को क्यों है पछतावा?
सवालः क्या बड़े शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला लेना ही सफलता की गारंटी है. खासतौर पर आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए?
आनंद कुमारः सब इंग्लिश में बोल रहे हैं. मैं अपनी भाषा में, हिंदी में बोलूंगा. दिल की बात कह पाऊंगा. आईआईटी एक सपना है.
भारत के सुदूर इलाकों में जहां ज्यादा मौके नहीं हैं. माता-पिता डॉक्टर, इंजीनियर और बहुत ज्यादा तो सिविल सर्वेंट तक का सोच पाता
है. इंजीनियर के लिए सबसे बड़ा मंदिर आईआईटी है. भले ही आईआईटी दुनिया के टॉप 200 टेक इंस्टिट्यूट में न आए. भले ही ये
मंजुल भार्गव सा गणितज्ञ पैदा न कर पाए. मगर भारत का ये सर्वश्रेष्ठ और तुलनात्मक सस्ता विकल्प है. आईआईटी में पढ़ने से मौके
ज्यादा मिलते हैं. बाकी सरकार कर ही रही है.
रूडीः मैं भी बिहार से हूं और आनंद जी भी. बिहार में 10 करोड़ लोग रहते हैं. मैं एक एयरलाइंस में कप्तान हूं. वहां 100 लड़कियां
एयरहोस्टेस के रूप में आती हैं. सब 10 या 12वीं पढ़ी हैं. इनमें जो अच्छे, कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ी हैं, उन्हें ही ऐसी नौकरी मिलती है.
उनको अंग्रेजी की अहमियत बहुत समझ आती है. सर्विस सेक्टर में इंग्लिश बहुत जरूरी है. बिहार में इसकी संभावना बहुत कम है.
समाज की तरफ से एक नकार है. इससे युवाओं के मौके कम हो जाते हैं.
आनंद कुमारः माननीय मंत्री जी अच्छा बोल रहे हैं. बड़े भाई हैं. आप जब स्कूल में अंग्रेजी सिखाने की बात करते हैं. तो कौन से
स्कूल ध्यान में आते हैं. ऐसी वाले बड़े महंगे स्कूल. गांव के स्कूल में तो मास्टर ही नहीं पहुंच रहा. वहां अंग्रेजी कौन सीखेगा.
रूडीः मेरा सिर्फ यह कहना है कि युवाओं के लिए भाषा बाधा के रूप में नहीं आनी चाहिए. अरुण पुरी के भाषण के साथ IT कॉन्क्लेव शुरू
सवालः अब बात करते हैं उच्च शिक्षा की. मंजुल भार्गव, आप मोदी सरकार की इस सिलसिले में बनी एक कमेटी में भी हैं. किस
तरह के सुधारों की जरूरत है?
मंजुल भार्गवः जरूरत दुनिया भर के विद्वानों को भारत बुलाने की है. ऐसा माहौल तैयार करने की है. वे यहां आएंगे. स्टूडेंट्स से
बात करेंगे. उनकी इस टॉक के वीडियो पूरे देश की यूनिवर्सिटी में दिखाए जाएंगे. इसमें नई तरह की रिसर्च, जो हर क्षेत्र में हो रही है,
उसके बारे में बात की जाएगी. इसके साथ ही भारत की समस्याओं और उन पर जरूरी रिसर्च के बारे में बात की जाएगी. इससे युवाओं
की सोच बदलेगी.
सवालः क्या यह प्रतिभाओं को बाहर जाने से रोकेगा?
मंजुल भार्गवः ये सही बात है कि रिसर्च के लिए नामी विदेश संस्थान हमसे मीलों आगे हैं. जो वहां जा सकते हैं, जाएं. मगर
हमारी कोशिश उसी तरह की सुविधाएं और माहौल देश में पैदा करने की है. मेरे पास भारत से रोजाना हजारों ईमेल आ रहे हैं. कमेटी
बनी ही है, मगर लोगों ने इस तरह की पहल में अपार उत्साह दिखाना शुरू कर दिया है. हमें इस पर खरा उतरना होगा.
सवालः मंत्री बार बार कह रहे हैं कि 66 साल में स्किल डिवेलपमेंट पर ध्यान नहीं दिया गया. सिर्फ डिग्री पर फोकस रहा. क्या कहीं
कोई माइंडसेट है. डिग्री मिल जाए. मैं बीकॉम करूं और बेरोजगार रहूं या प्लंबिंग का कोर्स करूं और काम पाऊं?
चेतन भगतः हां, माइंडसेट का सवाल तो है. हमने नौकरियों का जाति विभाजन कर दिया है. प्लंबिंग लोअर जॉब है. मेज पर
कागजी काम करना अच्छा. यूरोप में कई समृद्ध परिवारों के स्टूडेंट्स पार्ट टाइम ड्राइविंग करते हैं. अपनी पॉकेट मनी कमाने के लिए.
मगर यहां क्या ये मुमकिन है. लोग कहेंगे, अरे तुम्हारा बेटा ड्राइवर है.
रूडीः मेट्रोमोनियल ऐड आता है. लड़का कम से कम बीए पास हो. जिस दिन ऐसा इश्तहार आएगा कि लड़का प्लंबर हो, फिटर हो.
बस उसका वेतन अच्छा हो. तब बदलाव सच्चा हो जाएगा. जरूरत स्कूलों के स्तर पर ही स्किल डिवेलपमेंट शुरू करने की है. यह एक
बड़ी चुनौती है.
सवालः आनंद कुमार, माइंड सेट पर आप क्या सोचते हैं?
आनंद कुमारः पहले ड्राइवर का बेटा सोचता था कि मेरा बेटा भी बड़ा होकर बस मेरी जगह ड्राइवर लग जाए. मगर अब वह सोचता
है कि चाहे मुझे कितनी मेहनत करनी पड़े, लेकिन मेरा बेटा मेरे साहब से भी बड़ा साहब बने. मगर सरकार क्या कर रही है. आईआईटी
के लिए सरकार ने क्या बनाया. दो ही बार पेपर दे सकता है. ये तो बडे़ शहरों और बड़े स्कूलों के लिए मौके बेहतर करने की बात हुई.
गांव में तो लोग आईआईटी और आईटीआई का फर्क समझने में ही वक्त लगाते हैं. मौका मिलने की जरूरत है. प्लंबर तक क्यों सीमित
रखते हैं. भैंस पर बैठने वाला बच्चा बड़ा इंजीनियर या गणितज्ञ बन सकता है.
सवालः ये आर्यभट्ट, भास्कर जैसों का देश था. मगर आज की जेनरेशन में देखें तो कोई मैथ्स नहीं करना चाहता. बच्चे प्योर साइंस
से दूर क्यों भाग रहे हैं. कहां है?
मंजुलः हां, ज्यादातर बच्चे रुचि नहीं दिखा रहे हैं. मगर जो रुचि रखते भी हैं, उन्हें भी नहीं पता कि आगे इसमें कैसे राह खोजनी है.
हमें ये सोचना और समझाना होगा कि प्योर साइंस करने वाले भी इज्जत पाते हैं. अपनी जिंदगी अच्छे से चलाते हैं. ये माइंडसेट का
इशू है. मौकों का मसला उतना अहम नहीं है. क्योंकि अब प्रतिभाशाली युवा वैज्ञानिकों के लिए बहुत मौके हैं. तो ये सोच गलत है कि
साइंस या मैथ्स अच्छी करो ताकि आईआईटी या पीएमटी निकाल सको. अच्छे स्टूडेंट्स इस तरफ नहीं आ रहे हैं तो उसका असर
फैकल्टी पर पड़ रहा है. कई जगह साइंस के शिक्षकों की कमी है.
सवालः क्या शिक्षा में, स्किल में भी, अंग्रेजी की अहमियत सबसे ज्यादा है.
चेतन भगतः मैं चेतन भगत नहीं बन पाता, अगर मुझे हिंदी नहीं आती. देखिए. हिंदी को पॉलिटिकल इशू बनाने की जरूरत है.
हिंदी इज योर मदर. इंग्लिश इज योर वाइफ. यू हैव टु लव बोथ. अब ये मत पूछना कि किसे ज्यादा प्यार करते हो.
आनंद कुमारः हम ये नहीं कहते कि इंग्लिश नहीं सीखो. हमारे बिहार के बच्चे आज लंदन और अमेरिका में काम कर रहे हैं.
जरूरत उन्हें उस हीन भावना से मुक्त करने की है कि तुम्हें अंग्रेजी नहीं आती, तो कुछ नहीं आता. मगर चेतन भाई. जिसे अंग्रेजी नहीं
आती, वह मुख्यधारा से न कट जाए.
स्किल की बात करूं तो जिला लेवल पर ट्रेनिंग होनी चाहिए. अगर तब पांच साल में हालत बदलें. अखबार में शादी के ऐड ऐसे आएं
मंजुलः हर किसी को इंजीनियर बनना ही क्यों है. ऐसे स्कूल बनें, जहां संपूर्ण शिक्षा दी जाए. साइंस, आर्ट्स. और फिर कुछ
स्पेशलिस्ट स्कूल हों. जहां खास तरह के स्किल, सब्जेक्ट पढ़ाए जाएं. और तमाम अलग अलग क्षेत्रों के बीच आपसी संवाद की बहुत
जरूरत है.
चेतनः बच्चों को मॉर्डन सेंस में एंत्ररप्रेन्योरशिप सिखाने की जरूरत है. उन्हें इंग्लिश सिखाएं. अकाउंट्स सिखाएं. कुछ अपना करने
के लिए प्रेरित करें.