यह 1989-90 का दौर था, जब वरुण कुमार तिवारी लखनऊ में गुमनाम जिंदगी जी रहे थे. एक तो नौकरी छूट गई, तिस पर खिड़की-दरवाजों की वेल्डिंग जैसा काम. वरुण के रिश्तेदारों से जब कोई उनके बारे में पूछता तो सभी व्यंग्यात्मक अंदाज में जवाब देते, ''वरुण आजकल लोहार का काम कर रहे हैं.'' करीब 26 साल बाद आज वही रिश्तेदार 50 वर्षीय वरुण पर नाज करते हैं और बताते नहीं थकते कि वे उनके रिश्तेदार हैं. उत्तर प्रदेश के नोएडा के सेक्टर-34 में अपने मकान में अपनी ही कंपनी के सोफे पर झक सफेद धोती-कुर्ते में बैठे वरुण बताते हैं, ''हमारे परिवार में कभी किसी ने इस तरह का काम नहीं किया था. लेकिन मैंने कभी अपने काम को हीन नहीं समझा और अपनी धुन में लगा रहा.'' शायद यही वह जज्बा और लगन है कि महज 16,000 रु. के कर्ज से शुरू हुआ उनका कारोबार आज सालाना 100 करोड़ रु. के आसपास पहुंच गया है.इस मुकाम तक पहुंचना वरुण के लिए आसान न था. चित्रकूट के मानिकपुर के रहने वाले वरुण ने 1984 में बांदा से वेल्ंडिंग ट्रेड में आइटीआइ किया. उसके बाद उनका चयन लखनऊ के हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) में अप्रेंटिस के लिए हो गया. उन्होंने जमकर मेहनत की और 1986 में उन्हें ऑल इंडिया स्किल कंपीटीशन में सिल्वर मेडल भी मिला. एचएएल में उन्होंने तकरीबन तीन साल काम किया. सब कुछ ठीकठाक चल रहा था कि अचानक उनकी जिंदगी में संकट आ गया. वरुण बताते हैं कि उन दिनों देश में राजीव गांधी की सरकार थी और एचएएल में मैन पावर कम करने के लिए बड़ी संख्या में छंटनी कर दी गई. इसमें उनकी भी नौकरी चली गई और वे सड़क पर आ गए.
लेकिन संकट में ही समाधान के सूत्र निहित होते हैं. वरुण को वह सूत्र एचएएल के एक अधिकारी राजेश कुमार भारती के रूप में मिला. भारती ने उन्हें अपना धंधा शुरू करने को प्रेरित किया और उन्हें 16,000 रु. लोन भी दिलवा दिया. यह उनके लिए टर्निंग पॉइंट था. यह 1990 की बात है, जब उस कर्ज से उन्होंने लखनऊ के इंदिरा नगर में 300 रु. प्रति माह किराए पर दुकान लेकर वेल्डिंग मशीन ली और सिर्फ तीन कारीगरों के साथ वेल्ंडिंग का अपना धंधा शुरू किया. वे लोगों के घरों की खिड़कियां और दरवाजे वेल्ंडिंग करने लगे. तिवारी कहते हैं, ''राजेश भारती जी ने मेरी जिंदगी में मोड़ ला दिया और यह उन्हीं की देन है कि त्रिवेणी अल्मीरा आज इतने बड़े रूप में स्थापित हो चुका है.''
वरुण के संघर्ष के दिन यहीं खत्म नहीं हुए. उन दिनों वे अपने कारखाने का बिजली बिल भी जमा नहीं कर पाते थे. 1991 में एक बार उनका बिजली बिल 14,000 रु. तक पहुंच गया और वे उसे अदा नहीं कर सके. तब बिजली विभाग वालों ने कारखाने की बिजली काट दी. वे कहते हैं, ''तब मानो भगवान ने मेरी मदद के लिए दूत भेज दिया.'' अगले ही दिन उनके पड़ोस में रहने वाले पोस्ट ऑफिस के एक रिटायर्ड अधिकारी ने उन्हें 12,000 रु. थमाते हुए कहा, ''मेरे यहां मकान बनेगा, तो उसमें काम करके इसे एडजस्ट कर लीजिएगा.'' इसी तरह उन दिनों अलमारी बेचने वाले डीलर्स उनकी अलमारियों को उधार में भी नहीं रखते थे. वे बताते हैं, ''आज वही डीलर मेरी कंपनी की अलमारियों के लिए एडवांस देकर जाते हैं.''देवी-देवताओं और गुरुओं में वरुण की गहरी आस्था है. और इसी से उनकी जिंदगी में दूसरा बड़ा मोड़ आया. सन् 2000 में वे हरिद्वार में स्वामी अभयानंद सरस्वती के संपर्क में आए और उसके बाद उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी होने लगीं. स्वामी अभयानंद के मार्गदर्शन में उन्होंने अपने कारोबार को त्रिवेणी अल्मीरा कंपनी का स्वरूप दिया. वे बताते हैं, ''स्वामीजी ने मुझे भगवद्गीता और उपनिषद् का ज्ञान दिया, जिनके सबक को मैंने अपनी जिंदगी में उतारा और उससे मुझे मेरे कारोबार में मदद मिली. यही वजह है कि मेरी कंपनी आज इस मुकाम पर है.'' वे बताते हैं कि ग्राहकों और सहयोगियों से किस तरह का व्यवहार करना चाहिए, उन्हें कैसे डील करना चाहिए, यह उन्होंने स्वामी अभयानंद से ही सीखा.
उन्होंने 2003 में इंदिरा नगर के अपने कारखाने में बनी अलमारियों को त्रिवेणी अल्मीरा ब्रांड नाम से बेचना शुरू किया. उन दिनों वे प्रति माह 15-20 अलमारी बेच लेते थे और उनका कारोबार सालाना महज 30,000 रु. के आसपास था. यह 2009 में त्रिवेणी अल्मीरा प्राइवेट लि. कंपनी में बदल गई. इससे पहले 2007 में उन्होंने लखनऊ में ही त्रिवेणी हाउसहोल्ड आइटम्स मैन्युफैक्चरर्स प्राइवेट लि. नाम से एक और कारखाना स्थापित कर लिया. 2008 में उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार से बेस्ट इंडस्ट्री का अवॉर्ड मिला. बेहद नपे-तुले अंदाज में वरुण कहते हैं, ''हर संतुष्ट ग्राहक अगले दस साल में 100 ग्राहक लाता है, मैंने इस सूक्ति को गांठ बांध लिया था और कोशिश की कि हर ग्राहक को संतुष्ट कर सकूं.''
2010-11 तक वरुण की कंपनी का टर्नओवर 25 करोड़ रु. पहुंच गया और 2012-13 में यह 50 करोड़ रु. हो गया. अपनी कामयाबी के बारे में बताने के लिए वे गीता का एक 'लोक धुन में गाते हुए कहते हैं, ''श्रेष्ठ लोग जिस तरह का आचरण करते हैं और जो सिद्ध करते हैं, बाकी लोग उन्हीं का अनुसरण करते हैं. आज आलम यह है कि अलमारी बनाने के लिए मेरे डिजाइन और रंग का अनुसरण देश में अन्य कंपनी वाले करते हैं.'' वे कहते हैं कि उन्होंने अपने गुरु के कहने पर इन डिजाइनों का पेटेंट भी नहीं करवाया. त्रिवेणी अल्मीरा 18 मॉडलों में 11,000 रु. से लेकर 50,000 रु. तक की कीमत में उपलब्ध हैं. वरुण ने इनके मॉडलों का नाम भारतीय परंपरा के मुताबिक बहूरानी, गृहलक्ष्मी, गृहशोभा आदि रखा है. उनकी कंपनी से रोजाना तकरीबन 300 अलमारियां बिकती हैं.पिछले साल वरुण ने ग्रेटर नोएडा में भी व्यास इंडस्ट्रीज इंडिया लिमिटेड नाम से एक कारखाना स्थापित किया. यहां सोफे बनते हैं. प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान से प्रभावित होकर उन्होंने नई शुरुआत के तहत रोटो मोल्ट तकनीक का इस्तेमाल कर प्लास्टिक के टॉयलेट भी बनाने शुरू कर दिए हैं. कंपनी के टॉयलेट केबिन की कीमत 15,000 रु. तो 1,000 लीटर वाले सेप्टिक टैंक की कीमत 10,000 रु. है. उनकी कोशिश है कि देशभर में उनका यह टॉयलेट बिके और खासकर ग्रामीण इलाकों में खुले में शौच की परेशानी खत्म हो.
2014-15 में त्रिवेणी अल्मीरा का कारोबार 65 करोड़ रु. था. तिवारी के मुताबिक, यह अब करीब 100 करोड़ रु. पहुंच गया है. कंपनी में करीब 500 कर्मचारी काम कर रहे हैं. दो साल पहले उन्होंने 30 लाख रु. कीमत के माइक्रोसॉफ्ट के सॉफ्टवेयर के जरिए कंपनी को अत्याधुनिक रूप देकर अंदरूनी नेटवर्क स्थापित किया है, जिसमें कंपनी की हर गतिविधि दर्ज होती है. वे उसकी मॉनिटरिंग करते हैं. आज कंपनी के पास 11 राज्यों के 500 शहरों में 1,100 डीलर्स हैं. जाहिर है, त्रिवेणी अल्मीरा घर की चीजों को सहेजने का काम कर रही है. वरुण कहते हैं, ''जिस चीज की समझ न हो, किसी से उसकी जानकारी लेने में शर्म महसूस नहीं करनी चाहिए. मेरी इनोवेशन और कामयाबी का राज यही है.''