बचपन से ही डॉ राजेश एस गोखले को बायोलॉजी से ज्यादा लगाव था, लेकिन वे स्टुडेंट रहे केमिस्ट्री के. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी-बॉम्बे से बायोटेक्नोलॉजी में एमएससी करने के दौरान उनके अंदर केमिस्ट्री की नॉलेज को बायोलॉजी की फील्ड में इस्तेमाल करने की इच्छाओं ने जोर मारना शुरू किया. डॉ. गोखले ने बंगलुरू के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस से मॉलिक्यूलर बायोफिजिक्स में पीएचडी की. उसके बाद उन्होंने स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट के बाद की पढ़ाई की. ट्यूबरक्युलोसिस या टीबी के क्षेत्र में खास रिसर्च करने के लिए आज उनका नाम दुनियाभर में लोग जानते हैं.
इन्फोसिस साइंस प्राइज इन लाइफ साइंसेज में जूरी चेयर इंदर वर्मा कहते हैं, “हर साल 20 लाख लोग टीबी से इन्फेक्टेड होते हैं और मर जाते हैं. हर साल टीबी के लगभग एक करोड़ नए मरीज सामने आ जाते हैं. डॉ. गोखले के काम से कुछ महत्वपूर्ण एंजाइमों का पता चला है जो माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्युलोसिस (एमटीबी) बैक्टीरिया के सिंथेसिस के लिए जरूरी हैं. यह इस बैक्टीरिया की जटिल संरचना का पता लगाने के लिए किसी चमत्कारिक उपलब्धि से कम नहीं है. इस खतरनाक बीमारी के इलाज के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण अवसर मुहैया कराता है.” डॉ. गोखले को कई प्रतिष्ठि पुरस्कार मिल चुके हैं, जिनमें स्वर्ण जयंती फेलोशिप (2006-2011), शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार (2006) और नेशनल बायोसाइंस पुरस्कार उल्लेखनीय हैं. 2009 में सीएसआइआर से जुडऩे से पहले वे इंस्टीट्यूट ऑफ जीनॉमिक्स और इंटीग्रेटिव बायोलॉजी में आने के अलावा व्योम बायोसाइंसेज की भी स्थापना कर चुके हैं. व्योम बायोसाइंसेज दवा कंपनी है, जो जीनॉमिक्स की नॉलेज का इस्तेमाल करके त्वचा रोगों के लिए दवाएं विकसित करती है.
खोजी जीवन सच कहूं तो स्कूल की पढ़ाई में मेरा ज्यादा मन नहीं लगता था. वहां किताबी पढ़ाई पर ज्यादा और प्रैक्टिकल पर बहुत कम जोर दिया जाता था. लेकिन जब मैं एमएससी की पढ़ाई कर रहा था तो मुझे मजा आने लगा. मैं हमेशा नए प्रोजेक्ट के बारे में सोचता और खुद को ही चुनौती देता रहता था. मैंने बायोलॉजी के विभिन्न पहलुओं का पता लगाया, जिनमें मेरी गहन दिलचस्पी पैदा हो गई और मैं उस क्षेत्र में और भी नई बातों का पता लगाने की इच्छा करने लगा. जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो यह महसूस करता हूं कि एक वैज्ञानिक के लिए सबसे अच्छी बात यह होती है कि वह हमेशा कुछ नया खोजने में लगा रहता है. यह अपने आप में एक अनोखा एहसास है. इस तरह देखें तो वैज्ञानिक बहुत भाग्यशाली होता है, क्योंकि वह उस काम के पैसे पाता है, जिसे करने में उसे आनंद आता है.
मेरा रिसर्च मैं 1990 में जब स्टैनफोर्ड से भारत लौट रहा था तो माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्युलोसिस के विषय पर गहराई से सोचता रहता था. मैं इसकी जटिल बनावट को अच्छे ढंग से समझने के लिए बेहतर क्लिनिकल और बायोलॉजिकल मिक्स को इस्तेमाल करना चाहता था. मेरी रिसर्र्च का डिस्कवरी वाला हिस्सा अब खत्म हो चुका है. अब हम इसके ट्रांसलेशन पार्ट या परिवर्तित करने पर काम कर रहे हैं और पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि हम किस तरह ट्यूबरक्युलोसिस के खास एंजाइम्स को निशाना बनाने के लिए मॉलीक्यूल्स का उत्पादन कर सकते हैं. साथ ही यह भी जानने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या इनसानों के लिए सुरक्षित दवाएं बनाने में इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. मैंने ल्यूकोडर्मा पर भी कुछ काम शुरू किया है. मैं समझता हूं कि इस फील्ड में काम करने की बहुत ज्यादा गुंजाइश है. मैं इस बीमारी की वजहों को गहराई से समझना चाहता हूं.
करत-करत अभ्यास अपना ट्यूबरक्युलोसिस रिसर्च वर्क पूरा करने में मुझे चार साल लग गए. पहले तो इससे बहुत निराशा हुई, लेकिन बाद में मुझे एहसास हुआ कि असफलता स्वीकार करना जरूरी है, लेकिन साथ ही कोशिशें भी जारी रखने चाहिए. मैं समझता हूं कि बचपन में खेल में हिस्सा लेना मेरे लिए बहुत उपयोगी साबित हुआ. उसी वजह से मेरे अंदर सकारात्मक नजरिया आया. स्पोट्र्स से मैंने सीखा कि आप आज भले ही जीत न पाएं, लेकिन एक न एक दिन आप जरूर जीतेंगे.
डॉ. राजेश एस. गोखले, सीएसआइआर—इंस्टीट्यूट ऑफ जीनॉमिक्स ऐेंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी