कहते हैं जो लोग अपना सफर काफी नीचे से शुरू करते हैं, वे काफी ऊपर तक जाते हैं. तभी तो 1999 में शूल फिल्म में वेटर और सरफरोश में मुखबिर का रोल करने वाले नवाजुद्दीन सिद्दीकी ऐसे सितारे बन चुके हैं जिनकी कान फिल्म फेस्टिवल में एक साथ तीन-तीन फिल्में अपना जलवा बिखेरने जाती हैं तो उन्हें एक नहीं चार फिल्मों के लिए एक साथ राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है.
39 वर्षीय नवाजुद्दीन को 2012 की तलाश, गैंग्स ऑफ वासेपुर-1,2 और कहानी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया है. शांत और संकोची स्वभाव वाले नवाजुद्दीन स्क्रीन पर एकदम अलग किस्म के किरदार करते हैं. गैंग्स ऑफ वासेपुर से उन्हें बड़ा मौका देने वाले डायरेक्टर अनुराग कश्यप ने कहा है, ‘‘इंडस्ट्री के लोग कहते थे कि नवाजुद्दीन स्टार नहीं बन सकते. मैं फिल्में बनाना चाहता था और वे फिल्मों में काम करना चाहते थे. वे वाकई एक बेहतरीन कलाकार हैं.’’ अपनी धुन के पक्के नवाजुद्दीन की कहानी उन्हीं की जुबानीः
मुजफ्फरनगर से मुंबई तक
मैं उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के छोटे-से कस्बे बुढ़ाना के किसान परिवार से हूं. हरिद्वार की गुरुकुल कांगड़ी यूनिवर्सिटी से साइंस में ग्रेजुएशन किया है. लेकिन छोटे कस्बे की जिंदगी रास नहीं आई तो दिल्ली चला आया. जिंदगी चलाने का जरिया चाहिए था तो मैं चौकीदार तक का काम करने से पीछे नहीं हटा. लेकिन मेरे अंदर कुछ क्रिएटिव करने की भूख थी और कुछ कर दिखाने का जज्बा था. इसलिए मैंने दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में दाखिला ले लिया और 1996 में वहां से ग्रेजुएट होकर निकले. दिल्ली में मैंने साक्षी थिएटर ग्रुप के साथ काम भी किया, जहां मुझे मनोज वाजपेयी और सौरभ शुक्ला जैसे कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला. लेकिन यहीं से असली संघर्ष की दास्तान शुरू हुई. इसके बाद मैं मुंबई चला आया और यहां लगातार रिजेक्शन का दौर जारी रहा. मेरे साथ मुंबई आए सभी दोस्त अपने घरों को लौट गए, लेकिन मैं डटा रहा. हताशा के इन दिनों में मुझे अपनी मम्मी की एक बात याद रही कि 12 साल में तो घूरे के दिन भी बदल जाते हैं बेटा तू तो इनसान है.
टर्निंग पॉइंट
मेरा संघर्ष जारी था, लेकिन साल 2010 मेरी किस्मत बदलने के इरादों के साथ आया था. इस साल रिलीज हुई आमिर खान प्रोडक्शंस की पीपली लाइव ने मुझे मेरी ऐक्टिंग की वजह से सबकी नजरों में ला दिया. साल 2012 में कहानी, गैंग्स ऑफ वासेपुर-1,2, तलाश और पान सिंह तोमर जैसी फिल्मों ने बॉलीवुड में एकदम अलग किस्म के कलाकार के रूप में मेरी पहचान कायम कर डाली. मेरे लिए खुशी की बात यह थी कि हर साल के साथ कान जाने वाली मेरी फिल्मों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है. 2012 में मेरी मिस लवली, गैंग्स ऑफ वासेपुर-1,2 कान गई थीं तो 2013 में लंचबॉक्स, मॉनसून शूटआउट और बॉम्बे टाकीज ने रंग जमाया. जब भी मेरी फिल्मों का वहां स्टैंडिंग ओवेशन मिलता है तो मुझे मम्मी की कही बातें याद आ जाती हैं. मेरे हौसले और बुलंद हो जाते हैं.
जिंदगी का फलसफा
मैंने जीवन में रिजेक्शन और परेशानियों का एक लंबा दौर देखा है, लेकिन मैंने कभी धीरज नहीं खोया सिर्फ और सिर्फ अपना काम करने में लगा रहा. मैंने सिर्फ ओरिजिनेलिटी पर ध्यान दिया. फिर चाहे वह मेरी फिल्में हों या फिर असल जिंदगी, मैं सिर्फ एक अच्छे कलाकार के तौर पर पहचान चाहता हूं. मेरे जीवन का सिर्फ यही फलसफा रहा है, ‘‘यह इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजिए, आग का दरिया है और डूब कर जाना है.’’ बस इस मशîर शेर में इश्क की जगह मैं जिंदगी शब्द जोड़ देता हूं.