जब 2001 में किदांबी श्रीकांत पुलेला गोपीचंद को ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप जीतते हुए देखने के लिए टीवी के सामने बैठे थे, उस वक्त उनके पास बैडमिंटन का एक नया रैकेट भी था, जो हाल ही उनके हाथ लगा था. छह महीने बाद वे अपने बड़े भाई के. नंदगोपाल के साथ गोपीचंद से मिलने जा पहुंचे, जो आंध्र प्रदेश के गुंटूर में श्रीकांत के घर के नजदीक एनटीआर इनडोर स्टेडियम में अभिनंदन समारोह में आए थे. श्रीकांत के पिता के.वी.एस. कृष्णा याद करते हैं, गोपीचंद की मां सुब्बारवम्मा ने उनके बेटे से कहा था, ''एक दिन तुम्हें भी गोपी की तरह बनना है.'' श्रीकांत ने उनके आशीर्वाद को दिल से लगा लिया. तब वे महज आठ बरस के थे.
चौदह साल बाद 22 बरस के श्रीकांत की झोली में हाल ही के इंडिया ओपन सहित दो सुपरसीरीज और दो ग्रां प्री खिताब जगमगा रहे हैं. शानदार संभावनाओं के साथ वे अपने आदर्श गोपीचंद के तमगों की बराबरी करने की ओर बढ़ रहे हैं, जो अब उनेकोच भी हैं. श्रीकांत ने इंटरनेशनल सर्किट में अपनी पहली कामयाबी 2013 में थाइलैंड ओपन जीतकर हासिल की थी. लेकिन उनकी असली उड़ान उसके अगले साल शुरू हुई, जब वे धूमकेतु की तरह ऊपर उठते हुए विश्व रैंकिंग में 47वें पायदान से चौथे पायदान पर पहुंच गए. लोगों की निगाहें जब इंडिया ओपन में विश्व की नंबर-1 बनने वाली पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल पर लगी हैं, ऐसे समय में दुनिया के शीर्ष बैडमिंटन खिलाडिय़ों की फेहरिस्त में शिखर पर श्रीकांत उनका साथ दे रहे हैं.
गोपीचंद कहते हैं, ''वे मेधावी और निडर खिलाड़ी हैं. वे चीजों को सीखते बहुत जल्दी हैं और कोर्ट पर हौसला नहीं खोते.'' श्रीकांत बहुत आक्रामक अंदाज में खेलते हैं. उनके राउंड-द-हेड, डीप, एकदम सही जगह पर सधे हुए फास्ट स्मैश मारक होते हैं और कभी-कभी तो 400 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से जाते हैं. इस आक्रामकता के साथ कोर्ट में उनकी शांत और संयत चाल-ढाल उनके खेल को दर्शनीय और आनंददायक बना देती है. श्रीकांत के खेल का यही वह संयोग था, जिसने 2014 के चाइना ओपन में पांच बार के विश्व चैंपियन और दो बार के ओलंपिक चैंपियन लिन डैन को हैरान कर दिया था, जबकि घरेलू दर्शकों की भीड़ डैन का हौसला बढ़ा रही थी. श्रीकांत के खेल में ''हैरान'' करने वाली इस बात को सबसे पहले गोपीचंद ने पहचाना था. उन्होंने देखा कि वीडियो एनालिसिस के इस दौर में उनके खेल को ''समझना लोगों के लिए आसान'' नहीं था.
यह वह खिलाड़ी है, जिसने खेल में महज इसलिए हाथ आजमाना शुरू किया, क्योंकि उनके बड़े भाई खेलते थे. नौ बरस की उम्र में श्रीकांत ने घर छोड़ दिया और आंध्र प्रदेश खेल प्राधिकरण में पहले विशाखापत्तनम और बाद में खम्मम में अपने भाई नंदगोपाल के साथ आ गए. 2008 में नंदगोपाल हैदराबाद में गोपीचंद बैडमिंटन एकेडमी से जुड़े; उनके पीछे-पीछे एक साल बाद श्रीकांत भी वहां आ गए. तब वे 17 वर्ष के थे. उनके पिता कृष्णा बताते हैं कि तब उनकी बात-बात पर अपनी पत्नी से झगड़ा हो जाता था, जो इस बात से नाराज थीं कि उनके दोनों बेटों को इतनी कम उम्र में दूर भेज दिया. वे भविष्य के तमगों की आस दिखाकर किसी तरह उन्हें मनाते. कृष्णा कहते हैं, ''मुझे लगा कि बैडमिंटन ही बेहतरीन है, क्योंकि यह एकल खेल है और खालिस काबिलियत पर (आप कामयाब होते हैं). और ऊपर वाले की मेहरबानी से वे अच्छे हुए तो कोई उन्हें रोक नहीं पाएगा.''
श्रीकांत के कोचिंग गुरुओं को यकीन नहीं था कि सिंगल्स में कामयाब होने के लिए जरूरी शारीरिक ताकत उनमें है. लिहाजा शुरुआत में उन्होंने डबल्स भी खेले, मेन डबल्स टी. नगेंद्र के साथ और मिक्स्ड डबल्स मनीषा के.के साथ. कृष्णा कहते हैं, ''हमें उसे जबरदस्ती खाना खिलाना पड़ता था. वह ऊर्जा से भरा नहीं था.'' इसके बावजूद उसने अंडर-19 मेंस और मिक्स्ड डबल्स में नंबर एक की रैंक पर पहुंचकर अपनी उत्कृष्टता साबित की.
यह गोपीचंद ही थे, जिन्होंने इस दुबले-पतले नौजवान की अनगढ़ प्रतिभा को पहचाना, जो तराशे जाने का इंतजार कर रही थी. तब 19 बरस के श्रीकांत से उन्होंने कहा कि वे पूरी तरह सिंगल्स पर अपना ध्यान लगाएं. कामयाबी हासिल करने में उन्हें थोड़ा समय लगा, लेकिन जब वह घड़ी आई, पहले 2013 में थाइलैंड और फिर तमगों से भरे 2014 में तो फिर उन्होंने रुकने का नाम नहीं लिया. श्रीकांत बताते हैं कि टर्निंग पॉइंट पिछले साल जुलाई में मेनिनजाइटिस के साथ उनकी जंग थी. वे कहते हैं, ''बीमारी ने मुझे बदल दिया. मेरे भीतर जुनून पैदा हुआ. मैं कई गुना ज्यादा मेहनत करने और सीखने लगा. तभी से मैं खुशकिस्मत हूं कि सब सही होता गया और हर मैच में मैं अहम पॉइंट जीत सका.''
उन्होंने साबित कर दिया कि एक-दो मैच में उनकी जीत कोई तुक्का नहीं थी. सैयद मोदी इंटरनेशनल बैडमिंटन चैंपियनशिप-2015 में वे रनर-अप रहे, तो स्विस ओपन का खिताब उन्होंने डेनमार्क के विक्टर एक्सेल्सन को हराकर जीता. अब श्रीकांत को पसंदीदा खिलाड़ी होने और जीतने की उम्मीदों के अतिरिक्त दबाव का सामना करना है; इंडिया ओपन सुपर सीरीज में वे दूसरी वरीयता प्राप्त खिलाड़ी बन चुके हैं. खुद श्रीकांत इस चुनौती के लिए तैयार हैं. उन्होंने तो अपनी नजरें दरअसल इससे भी ऊपर जमा रखी हैः पी.वी. सिंधु की तरह विश्व बैडमिंटन चैंपियनशिप में पदक और फिर साइना नेहवाल की तरह ओलंपिक पदक. गोपीचंद कहते हैं, ''इसमें कोई शक नहीं कि वे यहां लंबी दौड़ के लिए हैं. प्रतिद्वंद्वी उनके खेल को समझकर काट ढूंढ़ ही लेंगे. उन्हें अपनी ताकत और खूबियों को इतना मजबूत बनाना है कि उसकी कमजोरियों का फायदा उठा पाना मुश्किल हो जाए. उसे शारीरिक तौर पर चुस्त-दुरुस्त भी रहना है.''
श्रीकांत की मां का तो मानना है कि उसमें कोई कमजोरी है ही नहीं. वे कोई कसर नहीं छोड़ रही हैः उन्होंने सौभाग्य के लिए उनके गले में रुद्राक्ष की तीन मालाएं डलवा दी हैं और कलाई पर धागे बंधवा दिए हैं. गोपीचंद एकेडमी में श्रीकांत अब भी अपने भाई के साथ एक ही कमरे में रहते हैं. जब वे प्रैक्टिस नहीं कर रहे होते हैं, तब टेनिस देखते हैं, खासकर तब जब उनके पसंदीदा खिलाड़ी रोजर फेडरर खेल रहे होते हैं. वे क्रिकेट भी देखते हैं. उनके शब्दों में, ''मैं अपनी जिंदगी की चाल से खुश हूं.'' बिलाशक खुश तो बैडमिंटन के वे कद्रदान भी हैं, जो बड़े गौर से उनका खेल देख रहे हैं.