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बिंदेश्वर पाठक: कभी घर में नहीं था शौचालय, अब वे देशभर में बनाते हैं शौचालय

बिंदश्वर पाठक के घर में नहीं था शौचालय, अब वे देशभर में बनाते हैं. जानिए किस तरह उन्होंने चुनौतियों का सामना करते हुए बदल दी लोगों की जिंदगी.

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यह बच्चों की फितरत है कि उसे जिस ओर जाने से मना किया जाए, उस ओर जरूर जाता है. बिंदेश्वर से भी घर में काम करने आने वाली दलित महिला से दूर रहने के लिए कहा जाता. लेकिन बाल मन ने एक दिन उसे जिज्ञासावश छू लिया. बस, ब्राह्मïण परिवार में हंगामा हो गया. दादी ने उसके शुद्धिकरण के लिए उसे जबरन गोबर और गोमूत्र मिलाकर पिलाए. जीवन आगे बढ़ा. अलस्सुबह जब अंधेरा छंटा भी नहीं होता, घर की महिलाओं और पुरुषों को बाल्टी और लोटा लेकर खेतों में शौचालय जाने के लिए पानी भरने की भड़भड़ बिंदेश्वर के कानों को बिल्कुल नहीं भाती.

बिहार के वैशाली जिले के रामपुर बघेल गांव में उनका बड़ा घर था. उसमें 8-9 कमरे, पूजाघर, रसोई सब कुछ था, लेकिन शौचालय नहीं. यही बात उन्हें खटकती. उस समय तक उसे अंदाजा नहीं था कि  शौचालयों के निर्माण और मैला ढोने वालों की मुक्ति उनके जीवन का ध्येय बनेगा और वे देश के लोगों की जिंदगी बदल देंगे.
बिंदशेवर पाठक सुलभ इंटरनेशनल के शुरूआती दिनों में
(1979 में सुलभ के साथी और सरकारी अधिकारी संग बिंदेश्वर, बीच में)

उनके जीवन को दिशा देने वाला साल 1968 था. उन्होंने अपराध विज्ञान में पीजी करने के लिए मध्य प्रदेश के सागर विश्वविद्यालय में आवेदन किया, जहां उन्हें करीब 45 रु. प्रति माह वजीफा मिलता. वहां दाखिले के लिए वे ट्रेन से निकले. हाजीपुर पहुंचे तो चाय पीने ट्रेन से उतरे. यहां उन्हें दो रिश्तेदारों ने जबरन यह कहते हुए रोक लिया कि बिहार गांधी शताब्दी समारोह समिति में 600 रु. महीने की नौकरी है. जब उनके रिश्तेदार उन्हें संस्था के सचिव के पास ले गए तो उन्होंने कोई नौकरी न होने की बात कही. काफी अनुरोध के बाद उन्हें वहां बिना किसी वेतन के अनुवादक की भूमिका मिल गई. फिर उनकी बहाली 200 रु. प्रति माह हो गई और 1968 में वे संस्था के स्कैवेंजर्स मुक्ति समिति में शामिल हो गए. मैला ढोने वालों की जिंदगी को समझ्ने के लिए उन्हें 1968-69 में बेतिया की दलित बस्ती में भेजा गया. उनकी नारकीय जिंदगी देखकर वे दहल उठे. लेकिन वहां हुए दो वाकयों ने उनका नजरिया ही बदलकर रख दिया: बस्ती के एक घर की नई बहू ने जब मैला ढोने का काम करने से मना किया और पाठक उसके पक्ष में आए तो महिला के ससुर ने कहा, ''तो आप ही उसके खाने-जीने का इंतजाम कर दीजिए." इसी तरह एक मैला ढोने वाले बच्चे पर सांड़ ने हमला कर दिया, तो उसे अछूत बताते हुए कोई बचाने नहीं आया और घायल बच्चे ने दम तोड़ दिया. बस, उसी दिन से उन्होंने अपना जीवन मैला ढोने वालों की मुक्ति के लिए झेंकने का प्रण कर लिया.

अब सवाल यह था कि वे यह सब करेंगे कैसे? बकट टॉयलेट का विकल्प ढूंढे बिना, यह संभव नहीं था. उन्होंने सुलभ शौचालय का निर्माण किया. 1970 में उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल संस्था एनजीओ की स्थापना की. 1973 में पहली बार उन्हें आरा में नगरपालिका ने दो शौचालयों को स्थापित करने के लिए 500 रु. का चेक दिया. आज उनकी संस्था पूरे देश में 13 लाख घरेलू और 8,500 सामुदायिक शौचालय स्थापित कर चुकी है. उनका काम आज भी जारी है.

बिंदेश्वर पाठक का संघर्ष
ब्राह्मण परिवार से होने की वजह से उन्हें इस काम में रिश्तेदारों के विरोध का सामना करना पड़ा.
आजीविका के लिए रांची के थर्मल पावर स्टेशन में 5 रु. दिहाड़ी पर काम किया.
 सुलभ शौचालयों को बनाने की मंजूरी के लिए उन्हें चार साल तक सरकारी विभागों के चक्कर काटने पड़े.

उनकी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट
1968 में सागर विश्वविद्यालय में अपराध विज्ञान की पढ़ाई की खातिर रेलगाड़ी में जा रहे थे. रास्ते में उनके रिश्तेदारों ने यह कहते Þए हाजीपुर उतार लिया कि गांधी शताब्दी समारोह समिति में नौकरी करने पर उन्हें अच्छे पैसे मिलेंगे. नौकरी तो मिली लेकिन पैसे नहीं. फिर वे मैला ढोने वालों की मुक्ति के अभियान से जुड़े. इसी के तहत जब वे बेतिया में मैला ढोने वालों की बस्ती में पÞंचे तो उनकी दुर्दशा देख उन्होंने उनके लिए काम करने का बीड़ा उठाया.

उनकी उपलब्धियां
पाठक को देशी-विदेशी करीब 40 अवार्ड मिल चुके हैं-के.पी. गोयनका मेमोरियल अवार्ड, पद्म भूषण, इटली का द सेंट फ्रांसिस प्राइज, इंदिरा गांधी प्रियदर्शनी अवार्ड और स्टॉकहोम वाटर प्राइज.
उनकी संस्था ने 13 लाख घरेलू और 85,000 सामुदायिक शौचालय बनाए हैं.

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