scorecardresearch
 

वाल्तेयर: वो दार्शनिक जो कहता था धर्म तोड़ता है, बिजनेस जोड़ता है

वाल्तेयर मानते थे कि सामाजिक समरसता के लिए थोडी-थोड़ी दैव आस्था जरूरी है. वाल्तेयर की कल्पनाओं के मुताबिक भगवान ने दुनिया बनाई. लोगों में अच्छाई और बुराई का भाव भरा इसके बाद वो किनारे हो गए. बाकी का काम मनुष्य को खुद करना था. धर्म को लेकर वाल्तेयर की आलोचनात्मक कटुता उसे संस्थागत रूप देने पर थी. वे नास्तिक नहीं थे, उनका विरोध रोमन कैथोलिक चर्च के कठमुल्लापन को लेकर था.

Advertisement
X
यूरोपीय ज्ञानोदय के नायक, फ्रांसीसी दार्शनिक वाल्तेयर
यूरोपीय ज्ञानोदय के नायक, फ्रांसीसी दार्शनिक वाल्तेयर

Advertisement

  • यूरोपीय ज्ञानोदय के नायक, सामाजिक क्रांति के सूत्रधार थे वाल्तेयर
  • आपके बोलने के अधिकार की मरते दम तक रक्षा करूंगा: वाल्तेयर

असहमति के अधिकार की जब बात होती है तो एक कथन का हवाला बार-बार दिया जाता है. ये कथन है 'जरूरी नहीं है कि मैं आपकी बात से सहमत रहूं, लेकिन मैं आपके बोलने के अधिकार की मरते दम तक रक्षा करूंगा.' टॉलरेंस डिबेट और धार्मिक असहिष्णुता के दौर में वर्ल्ड प्रेस में शायद ही ऐसा कोई हफ्ता गुजरता हो जब इस कथन को कोट न किया जाता हो. क्या आप जानते हैं इस कथन का ताल्लुक किससे है?

पूर्व पीएम डॉ मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री अपने व्याख्यानों में इस कथन का कम से कम तीन बार उपयोग कर चुके हैं. 2005 में जब तत्कालीन पीएम डॉ मनमोहन सिंह जेएनयू में छात्रों को संबोधित करने गए थे तो वहां उन्हें यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर विरोध का सामना करना पड़ा था. वहां उन्हें काले झंड़े दिखाए थे.

Advertisement

बोलने के अधिकार की मरते दम तक रक्षा करूंगा

लेकिन मनमोहन सिंह जब छात्रों से मुखातिब हुए तो उनका पहला कथन था, 'जरूरी नहीं है कि मैं आपकी बात से सहमत रहूं, लेकिन मैं आपके बोलने के अधिकार की मरते दम तक रक्षा करूंगा.' दरअसल ये कथन ही इतना पावरफुल है कि दुनिया के कई राजनीतिज्ञ सहिष्णुता का संदेश देते हुए बार-बार इसकी चर्चा करते हैं. मनमोहन सिंह ने दो अन्य मौकों पर इस बयान की चर्चा की.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सूत्र वाक्य बना कथन

अब आपकी जिज्ञासा और भी बढ़ गई होगी कि इस बयान का संदर्भ किससे है. उत्तर है, यूरोपीय ज्ञानोदय ( Age of enlightenment) के नायक, सामाजिक क्रांति के सूत्रधार, कवि, नाटककार, इतिहासकार और फ्रांस के दार्शनिक फ्रांस्वा मेरी ऐरोएट (Francois-Marie Arouet) जिन्हें दुनिया में प्रसिद्धि मिली वाल्तेयर (Voltaire) के नाम से. वाल्तेयर से जुड़ा ये वाक्य आगे चलकर विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आधार स्तंभ बन गया.

बेटे लेखक बनना लाभदायक पेशा नहीं है

चलिए हम आपको ले चलते हैं 18वीं सदी के फ्रांस में. 17वीं सदी खत्म हुई थी, 18वीं बाल्यकाल में थी. बरस रहा होगा यही कोई 1711-12. पेरिस के मकान में एक वृद्ध पिता अपने नवयुवक बेटे से उसके करियर पर बहस कर रहा था, "देखो पुत्र, लेखक बनना लाभदायक पेशा नहीं है, पेरिस के लेखक बड़े बुरे हाल में होते हैं. दो जून की रोटी के अलावा वो कुछ जुगाड़ नहीं कर पाते हैं, मेरा कहना मानो, जिद छोड़ दो और वकालत सीखो." दरअसल बेटा साहित्य और समाज की सेवा करना चाहता था, और पिता उसे कमाऊ पेशे वकालत में ले जाना चाहते थे.

Advertisement

फ्रांस के कुलीन वर्गों में सबसे निचले तबके से थे वाल्तेयर

दरअसल वाल्तेयर जिस काल में फ्रांस में पैदा हुए थे उस वक्त फ्रांसीसी समाज में सघन अंधेरा छाया हुआ था. तारीख थी 21 नवंबर 1694. फ्रांस का समाज मुख्यत: दो भागों में बंटा था. प्रभुसत्ता संपन्न और अधीनस्थ. वाल्तेयर के पिता फ्रांस के सामाजिक पदानुक्रम में सबसे निचले वर्गे से ताल्लुक रखते थे. पेरिस की सामान्य जनता चर्च और सामंती दमन से कराह रही थी और वे नहीं चाहते थे कि उनका बेटा लेखन जैसे गैरलाभकारी क्षेत्र में जाकर एक संघर्षरत फ्रांसीसी का जीवन जिए, उन्होंने अपने पुत्र को वकालत सीखने के लिए मनाया. वाल्तेयर दिमाग से वकील तो बन गए, लेकिन हृदय से साहित्यकार ही रहे. लिखना उन्होंने कभी नहीं छोड़ा.

आपको याद होगा, स्कूल के दिनों में जब हम नागरिक बोध की बातें जैसे कि समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व और अभिव्यक्ति की आजादी जैसी चीजें पढ़ते थे. आधुनिक विश्व को मानवीय मूल्यों की यें भेंट फ्रांस से ही मिली है. जब वाल्तेयर पैदा हुए थे उस वक्त समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की अवधारणा फ्रांसीसी समाज में अंकुरित ही हो रही थी.

फ्रेंच एरिस्टोक्रेसी पर व्यंग्य

युवा वाल्तेयर ने जब लिखना शुरू किया तो उनके लेख फ्रेंच एरिस्टोक्रेसी को नश्तर की तरह चुभने लगे. उस समय फ्रांस में लुई पंद्रहवां का शासन था. वो क्रूर और विलासी था. फ्रांस की सामंत और चर्च सत्ता तो मजे में थी, लेकिन एक आम फ्रांसीसी बेहद दुश्वारी में जी रहा था. वाल्तेयर को ये गैरबराबरी हैरान कर गई, उससे भी ज्यादा हैरानी उन्हें लोगों की यथास्थिति (status quo) में रहने की प्रवृति से हुई. वे अपनी रचनाओं में इस पर लिखने लगे.

Advertisement

शिक्षित व्यक्तियों तक उनकी स्वतंत्र चेतना का संदेश पहुंच रहा था, लेकिन आज फैशन की रानी कहे जाने वाले पेरिस में तब बड़ी संख्या में अनपढ़ लोग रहते थे, उनसे संवाद स्थापित करने के लिए उन्होंने रंगमंच का सहारा लिया. इस विधा में वे निष्णात हुए और अपने नाटकों से समाज में बदलाव का अंडरकरंट पैदा कर गए. इसकी परिणति 1789 में फ्रांसीसी क्रांति के रूप में हुई.

सिस्टम पर कसा तंज तो खाई जेल की हवा

वाल्तेयर के नाटकों में मौजूदा सिस्टम पर तीखा व्यंग्य था. प्रतिक्रियास्वरूप वहां की प्रभु सत्ता तिलमिला उठी और वाल्तेयर पर ऐसा अभियोग लगवाया कि उन्हें जेल हो गई. जेल में समाज को परखने की उनकी दृष्टि और भी पैनी हो गई. यहां से उनकी जिंदगी का नया दौर शुरू हुआ. यहां पर ही उन्होंने अपना नाम फ्रांस्वा मेरी ऐरोएट से बदलकर वाल्तेयर रख लिया. ये 1718वीं ईसवी थी. जेल में रहते हुए उन्होंने नाटक ईडिपस की रचना की.

पढ़ें- 'विश्व विजेता' सिकंदर के गुरु अरस्तू ने दुनिया को सिखाई ये 10 बातें

वाल्तेयर मानते थे कि सामाजिक समरसता के लिए थोडी-थोड़ी दैव आस्था जरूरी है. वाल्तेयर की कल्पनाओं के मुताबिक भगवान ने दुनिया बनाई. लोगों में अच्छाई और बुराई का भाव भरा इसके बाद वे किनारे वो किनारे हो गए. बाकी का काम मनुष्य को खुद करना था. धर्म को लेकर वाल्तेयर की आलोचनात्मक कटुता उसे संस्थागत रूप देने पर थी. वे नास्तिक नहीं थे, उनका विरोध रोमन कैथोलिक चर्च के कठमुल्लापन को लेकर था.

Advertisement

पुरोहित ईश्वरों के सैकड़ों रूपों को रचते हैं

अपनी रचनाओं में उन्होंने फ्रांस के प्रभु संपन्न और अभिजात्य घरानों पर धारदार कलम चलाई. पुरोहितों की कारगुजारियों पर लिखा. वाल्तेयर की रचना 'लेटर्स ऑन द इंग्लिश' में इसी की चर्चा है. हर धर्म के पुरोहितों पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा कि ये लोग ईश्वर का सैकड़ों रूप निर्माण करते हैं, फिर ईश्वर को ही खाते-पीते हैं."

आस्था को तर्क की कसौटी पर कसने वाले वाल्तेयर धार्मिक कट्टरता के प्रखर विरोधी थे. उनका मत था कि एक व्यक्ति अपने धार्मिक सिद्धांत की रक्षा के लिए, जिसे वह बमुश्किल समझ पाता है, किसी की हत्या कैसे कर सकता है. वाल्तेयर का कहना था कि धर्म का उपयोग अमूमन वही लोग करते हैं, जो ज्ञान-विज्ञान और आधुनिकताबोध से कटे रहना चाहते हैं, उन्हें बदलाव की संकल्पना से अपनी सत्ता दरकती मालूम दिखती है. यथास्थिति की राह में कोई बाधा न आए इसके लिए उन्होंने परमात्मा नाम के मिथक का सृजन किया. वाल्तेयर का कथन है, "If God did not exist, it would be necessary to invent him."

न्यूटन की भतीजी ने बताई सेब वाली कहानी

इंग्लैंड प्रवास के दौरान वाल्तेयर ने अंग्रेजी भाषा सीखी. इसी के साथ ही उनके लिए ज्ञान के नए द्वार खुल गए. यहां उन्होंने शेक्सपीयर के नाटकों और कहानियों का अध्ययन किया. वो वैज्ञानिक तो नहीं थे, लेकिन न्यूटन के नियमों से काफी प्रभावित हुए. न्यूटन की व्याख्याओं पर उन्होंने प्रयोग भी किया. लंदन में ही वे न्यूटन की भतीजी कैथरिन बार्टन से मिले.

Advertisement

पढ़ें- क्यों महादेव का नाम पड़ा नीलकंठ? जानें श्रावण मास की कैसे हुई शुरुआत

बताया जाता है कि न्यूटन की भतीजी ने ही वाल्तेयर को सेबों के गिरने की वो कहानी सुनाई जिसे देखकर युवा न्यूटन के मन में गुरुत्व बल के बारे में पहली जिज्ञासा विकसित हुई थी. न्यूटन ने ही इस वाकये को अपने इस रिश्तेदार को बताया था. वाल्तेयर ने इस जानकारी को अपने पत्रों में लिखा. इसके बाद ही दुनिया ये जान पाई कि बगीचे में बैठे न्यूटन को गुरुत्वकर्षण समझने की प्रेरणा पेड़ से सेब को गिरता देखकर हुई.

बिना कोई घृणाभाव रखे मृत्यु को वरण करता हूं...

जीवन के अंतिम दिनों में वाल्तेयर स्विटजरलैंड में वक्त गुजार रहे थे, तभी उन्हें पेरिस लौटने की इच्छा हुई. तब उनकी उम्र 83 साल की थी. डॉक्टरों ने वाल्तेयर की सेहत को देखते हुए उन्हें यात्रा से मना किया, लेकिन वे कहां मानने वाले थे. 5 दिनों के लंबे सफर के बाद फरवरी 1778 में वाल्तेयर स्विटरलैंड से पेरिस लौटे. वे पूरी तरह से पस्त हो चुके थे, उन्हें लगने लगा कि उनका अंतकाल निकट है. उन्हें आभास हुआ कि 28 फरवरी को उनकी मौत हो जाएगी. इसी दिन उन्होंने लिखा, "मैं ईश्वर की उपासना करते हुए, अपने दोस्तों को प्यार करते हुए, अपने दुश्मनों के प्रति किसी भी प्रकार घृणाभाव न रखते हुए, अंधविश्वास और अविवेक की निंदा करते हुए मृत्यु का वरण करता हूं."

Advertisement

हालांकि वाल्तेयर के ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था. वे स्वस्थ हो गए. 16 मार्च 1778 को जब पेरिस में वाल्तेयर के नाटक Irene का मंचन हुआ तो दर्शकों ने उनका अभिनंदन किया. लौटे हुए नायक की तरह उनका सत्कार हुआ. लेकिन वाल्तेयर का अंतिम वक्त सचमुच आ चुका था. मई में वे एक बार फिर बीमार पड़े और 30 मई 1778 को वो हमेशा के लिए शांत हो गए.

रचनाओं से बदलाव और संघर्ष का संदेश

वाल्तेयर की रचना लेटर्स ऑन द इंग्लिश में धर्म को लेकर उनकी एक टिप्पणी का आज भी दुनिया से भी ताल्लुक है. ब्रिटेन का जिक्र करते हुए वे लिखते हैं, "यदि इंग्लैंड में सिर्फ एक ही धर्म को इजाजत दी जाए तो बहुत संभव है कि सरकार मनमानी पर उतारू हो जाए, यदि दो धर्म होगा तो लोग एक दूसरे का ही गला काटने लग जाएंगे, लेकिन क्योंकि यहां कई धाराएं हैं इसलिए सभी लोग खुशी और शांतिपूर्वक रहते हैं." वाल्तेयर का मत है कि धर्म लोगों को एक दूसरे से दूर करता है लेकिन व्यापार जोड़ता है.

अपने उपन्यास 'CANDIDE' में वाल्तेयर अच्छाई और बुराई पर चर्चा करते हैं. वाल्तेयर की ये कृति उत्कृष्ट साबित हुई और ये किताब यूरोपीय पुनर्जागरण का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला दस्तावेज बन गया. इस पुस्तक का दुनिया की हर संभव भाषा में अनुवाद हुआ. इस किताब का एक सवाल है कि यदि ईश्वर अच्छा है तो क्या उसने जान बूझकर दुनिया में बुराई को रहने दिया. किताब में राजद्रोह की भावना, कुफ्र से जुड़े संवाद की वजह से इस पर तुरंत प्रतिबंध लगा दिया गया.

पढ़ें- 'विश्व विजेता' सिकंदर के गुरु अरस्तू ने दुनिया को सिखाई ये 10 बातें

बता दें कि 'आपके बोलने के अधिकार की मरते दम तक रक्षा करूंगा' वाल्तेयर से जुड़े इस कथन को उनकी रचना मानी जाती है, लेकिन ऐसा नहीं है, इस कथन की रचना वाल्तेयर की जीवनी लिखने वाली अंग्रेज लेखिका Evelyn Beatrice Hall ने की है. अभिव्यक्ति की आजादी पर वाल्तेयर का कितना अटूट विश्वास था, इसे बताने के लिए उन्होंने इस वाक्य को गढ़ा था, लेकिन दुनिया में ये कथन वाल्तेयर की उक्ति के नाम से ही अमर हुआ.

मनुष्यता के विकास में, मानव का स्वतंत्र चिंतन विकसित करने में, बंधनमुक्त समाज के निर्माण की प्रक्रिया में वाल्तेयर के योगदान को हमेशा याद किया जाएगा. वाल्तेयर कहते हैं, 'यदि मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है, तो यह उचित है कि वह सदैव आजाद रहे, यदि कहीं निष्ठुरता अथवा तानाशाही है तो उसे उखाड़ फेंकने का अधिकार भी उसको होना चाहिए.'

Advertisement
Advertisement