आप जरा किसी मिडिल क्लास फैमिली के बीच डीपीएस शब्द का जिक्र भर करिए, सामने वाले के कान खड़े हो जाएंगे. उसके मन में गुंताड़ा चलने लगेगा कि कैसे अपने या परिचित के बच्चे का दाखिला दिल्ली पब्लिक स्कूल में कराया जाए. लेकिन देश में 200 से ज्यादा स्कूलों का संचालन करने वाली डीपीएस सोसाइटी में इस बात पर जंग छिड़ी है कि सोसाइटी का असली बॉस कौन है? और क्या डीपीएस में भ्रष्टाचार और धांधली का बड़ा खेल चल रहा है? विवाद इतना बढ़ चुका है कि दिल्ली के ईस्ट ऑफ कैलाश स्थित संस्था के मुख्यालय में पुलिस ने सोसाइटी के आजीवन सदस्यों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी है. गौरतलब है कि इसके स्कूलों में 2 लाख से ज्यादा छात्र और 20,000 शिक्षक हैं.
देश में क्रिकेट की शीर्ष संस्था बीसीसीआइ और आइपीएल की तर्ज पर 400 करोड़ रु. से ज्यादा के फिक्स्ड डिपॉजिट और अरबों की जायदाद वाली डीपीएस सोसायटी के इस विवाद में प्रख्यात शिक्षाविद् डॉ शारदा नायक, दिवंगत मशहूर लेखक खुशवंत सिंह, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद, देश के पूर्व महालेखा परीक्षक (सीएजी) वी.के. शुंगलू, योजना आयोग के आखिरी उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया, डीपीएस सोसाइटी के पूर्व अध्यक्ष अशोक चंद्रा सहित देश के कई नामी-गिरामी लोगों की प्रतिष्ठा दांव पर है.सोसाइटी की आजीवन सदस्य डॉ. शारदा नायक का दावा है कि 28 मार्च, 2015 को हुए चुनाव में आजीवन सदस्यों ने बहुमत के आधार पर उन्हें संस्था का अध्यक्ष चुन लिया है और शुंगलू अब इस पद पर नहीं हैं. इसके बाद से, एक तरफ नायक के मोबाइल की घंटी शुभकामना संदेशों से घनघना रही है, तो दूसरी तरफ संस्था के मुख्यालय में उनके प्रवेश पर पाबंदी लग गई है. पहले से ही संस्था के उपाध्यक्ष पद पर तैनात रियर एडमिरल एम.एम. चोपड़ा ने 8 3 वर्षीया शिक्षाविद् के खिलाफ संस्था में जबरन घुसने की कोशिश की रिपोर्ट लिखाई है. नायक जिस समय कार्यालय में कथित रूप से दाखिल होने की कोशिश कर रही थीं, उस समय संस्था के एक अन्य आजीवन सदस्य और पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद भी उनके साथ थे. घटनाक्रम से नाराज नायक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री राजनाथ सिंह और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से पूरे मामले की शिकायत कर दी. अब शुंगलू का पक्ष सुनिएः ''जनवरी 2014 में हुए चुनाव के बाद से तीन साल के लिए मैं ही अध्यक्ष हूं. इस तरह किसी कागज पर कुछ लोग आपस में दस्तखत करके अध्यक्ष का चुनाव नहीं कर सकते.''
दरअसल, स्कॉटलैंड में जन्मे शिक्षाविद् और कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर के पिता जेम्स डगलस टाइटलर ने 1949 में जब डीपीएस मथुरा रोड की स्थापना की थी, तब उन्हें गुमान नहीं रहा होगा कि शिक्षा के प्रसार से जुड़ी यह निजी संस्था इतनी रौबदार हो जाएगी. इसीलिए जनवरी 2014 में जब डीपीएस सोसाइटी के पदाधिकारियों के चयन के लिए बाकायदा चुनाव हुआ तो यह सत्ता की जंग जैसा दिखाई देने लगा. तब तत्कालीन अध्यक्ष अशोक चंद्रा और शुंगलू अध्यक्ष पद की दौड़ में शामिल थे. तय हुआ कि 8 जनवरी, 2014 को संस्था के 18 आजीवन सदस्य वोटिंग के जरिए नए पदाधिकारियों का चयन करेंगे. चूंकि खुशवंत सिंह तब बीमार थे और दो अन्य सदस्य भी गंभीर वजहों से वोटिंग करने नहीं आ पा रहे थे, ऐसे में इन तीनों ने एक बंद लिफाफे में अपने-अपने वोट मुख्यालय भेज दिए. ये लिफाफे जब 7 जनवरी को पहुंचे तो कहा गया कि चुनाव 8 को है, लिहाजा लिफाफा 8 तारीख को ही स्वीकार किया जाएगा. खैर, जब नतीजा सामने आया तो शुंगलू को 9 और चंद्रा को 8 वोट मिले. इस तरह शुंगलू सोसाइटी के अध्यक्ष बन गए. इस बीच पता चला कि जो एक वोट नहीं पड़ा है, वह खुशवंत सिंह का है. चूंकि चुनाव का फैसला एक वोट से हुआ था, ऐसे में खुशवंत का वोट निर्णायक हो सकता था. पर इसी बीच उनका निधन हो गया और उनके वोट की गुत्थी उनके साथ ही चली गई. चंद्रा ने चुनाव नतीजों को दिल्ली हाइ कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन मार्च 2015 में मामला वापस भी ले लिया. उसी के बाद तेज हुए घटनाक्रम में नायक को अचानक अध्यक्ष बना दिया गया.
नायक गुट का दूसरा आरोप है कि चंद्रा के कार्यकाल में फ्रेंचाइजी को लेकर 25 करोड़ रु. का हेरफेर हुआ, लेकिन शुंगलू इस पर कार्रवाई नहीं कर रहे हैं. यह भी कि अध्यक्ष पद पर काबिज रहने को शुंगलू ने पूर्व आइएएस बी.के. चतुर्वेदी और खुशवंत सिंह के बेटे राहुल सिंह को आजीवन सदस्य बना लिया, ताकि चुनाव की स्थिति में बहुमत उनके पक्ष में हो सके. इसके अलावा फ्रेंचाइजी देने के एवज में किसी भी तरह की फीस लेने की मनाही होने के बावजूद डीपीएस सोसाइटी पर स्कूलों से 12 लाख रु. सालाना रकम लेने की कोशिश का भी आरोप है.
ये सारे मामले गंभीर हैं. ऐसे में आम अभिभावक के मन में यह सवाल खड़ा होना वाजिब है कि क्या डीपीएस का फ्रेंचाइजी सिस्टम गुणवत्ता पर चल रहा है या पैसा देकर कोई भी डीपीएस के नाम पर अपनी दुकान चला सकता है? और अगर वाकई डीपीएस का मुखिया चुनने में धांधली और लॉबीइंग हो रही है तो कोई क्यों इस ब्रांड का भरोसा करे? डीपीएस भी शिक्षा के घर की बजाए रिटायर्ड नौकरशाहों और कद्दावर नेताओं का ठिकाना तो नहीं बन रहा?