उत्तराखंड की लोकगायिका कबूतरी देवी का कुछ समय पहले ही निधन हुआ है. यह उनके जीवन संघर्ष और गायन पर आधारित लेख का तीसरा और आखिरी हिस्सा है. पहले हिस्से में हमने देखा कि उनके गायन में मूर्त और अमूर्त रूप में पहाड़ के जीवन का चित्रण तो देखने को मिलता है. उनके गीतों में प्रकृति के चित्रण के साथ ही, पहाड़ की दूभर जिंदगी, पहाड़ से पलायन, प्रेम, वियोग आदि विषय प्रमुखता से आते हैं. (लेख का पहला हिस्सा पढ़ने के लिए यहां पर क्लिक करें )
लेख के दूसरे हिस्से में हमने देखा कि उत्तराखंड में दलितों की क्या सामाजिक स्थिति रही है और वह लोककलाओं, लोकगायन की किस परंपरा से आते हैं. कबूतरी के गायन के इन पहलुओं के साथ ही यह विषय भी बहस योग्य है कि दलित लोकगायिका अपने सामाजिक परिवेश को किस हद तक बदल पाती हैं और तत्कालीन परिस्थितियों को कितनी चुनौती देती हैं. (लेख के दूसरे हिस्से को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )
इस लेख श्रृंखला के तीसरे और आखिरी हिस्से में हम उनके जाने के बाद उत्तराखंड में मौजूदा लोकगायन की स्थिति और समक्ष वैश्वीकरण की चुनौतियों का जायजा लेंगे.
कबूतरी का गायन: जन, लोक और शास्त्र
कबूतरी देवी के गायन के बहाने और अक्सर उनकी तुलना बेगम अख्तर या तीजन बाई से होने की वजह से जन, लोक और शास्त्र की बहस भी अनछुई नहीं रह जाती. उत्तराखंड के उभरते रंगकर्मी और साहित्यकार डॉ. अनिल का मानना है कि कबूतरी लोक की आवाज बनीं जो श्रम के साथ सामूहिक रूप से उत्पादित होता है, न कि शास्त्र की जो उत्पादन से दूर रहकर विशुद्ध मनोरंजन के लिए होता है. वह कहते हैं कि शास्त्र के पास सुरों का अनुशासन है तो लोक के पास प्रकृति का अनुशासन है. कबूतरी के गीत ‘पनि जौं’ को अगर आप आंख बंद करके सुनें तो आपको गीत के चढ़ने-उतरने के क्रम में क्रमश: महाकाली नदी का शोर, उसकी उदासी और शांति भी सुनाई देगी. वह कहते हैं कि लोकसंगीत में सहअस्तित्व की धाराएं होती हैं. प्रकृति के साथ सहजीवन, पेड़-पौधों-चिड़ियों से संवाद, पर्यावरण को लेकर संवेदनशीलता (नि काटो-नि काटो झुमरैली बांज) लोकसंगीत और ग्रामीण जीवन में ही मिलेगा.
गिर्दा के जनगीत और कबूतरी के लोकगीत
युवा आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी अध्येता मोहन आर्या का मानना है कि उत्तराखंड की लोककलाओं में समाज का सांस्कृतिक वर्चस्ववाद झलकता है, इसलिए इनके लोप को अतिरिक्त मोह के साथ न देखते हुए समय के प्रवाह के साथ देखा जाना चाहिए. वह कहते हैं कि कबूतरी के प्रसिद्ध गीत ‘आज पनि जौं’ में दलितों या महिलाओं का पलायन नहीं दिखता है. साथ ही वह मानते हैं कि उत्तराखंड के ही एक और जनकवि और लोककलाकार गिरीश तिवाड़ी उर्फ गिर्दा के बरक्स कबूतरी के गीतों में दलित चेतना के स्वर नहीं सुनाई देते जबकि गिर्दा अपने कर्म से एक आदर्श लोक की तस्वीर भी पेश करते हैं. मोहन कहते हैं कि गिर्दा के गीतों में व्यापक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य हैं. वह अपनी बात को समझाने के लिए गिर्दा द्वारा मशहूर शायर फैज अहमद फैज की गजल ‘हम मेहनतकश जब जगवालों से अपना हिस्सा मांगेंगे, एक खेत नहीं-एक देश नहीं-सारी दुनिया मांगेंगे‘ को लीसा श्रमिकों के आंदोलन के लिए स्थानीय भाषा में रूपांतरित करके ‘हम ओड़, बारुड़ि, कुल्लि-कबाड़ी, जैं दिन यो दुनिं तैं हिसाब ल्यूंलो, एक हांग नि मांगुन, एक फांग नि मांगुन, सारी खसरा-खतौनी मांगुन’ जैसा चेतनासंपन्न जनगीत बनाने का उदाहरण सामने रखते हैं.
परंपराओं को तोड़ता लोकगायन
हालांकि कबूतरी केवल गायिका थीं, जबकि गिर्दा कवि और गायक थे. इसलिए गिर्दा के पास ‘कैसा हो स्कूल हमारा’, ‘एक तरफ बर्बाद बस्तियां’, ‘जैंता एक दिन तो आलौ दिन यो दुनि में’, ‘आज हिमाल तुमनकै धत्यूंछो’ जैसे जनगीत हैं जिनमें राज्य निर्माण, समाज निर्माण, वैश्वीकरण की चुनौतियां, शिक्षा नीति, पर्यावरण नीति पर चिंता जैसे विविध विषय आते हैं. संस्कृति और मीडिया के अध्येता डॉ. भूपेन कहते हैं कि उत्तराखंड के कई लोककलाकारों ने समाज को बदलने की सायास कोशिश की है. जिस हुड़क्या (डमरू के आकार का हाथ से बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र) को कभी गाली माना जाता था, सवर्ण समाज के कई लोकगायकों, देवीदत्त पंत, मोहन उप्रेती (बेड़ू पाको बारामासा को लोकप्रिय बनाने वाले कलाकार), गौरी दत्त पांडे उर्फ गौर्दा, गिरीश तिवाड़ी उर्फ गिर्दा ने गले में हुड़का डालकर गाने गाए और 'दा' परंपरा को आगे बढ़ाया यानी जाति, उम्र, लिंग के भेदभाव से परे ये कलाकार हर उम्र के लोगों के लिए 'दा' होते थे.
आधुनिक समय में लोक और शास्त्र
लोक और शास्त्र के बीच के द्वंद्व पर भूपेन कहते हैं कि लोक समाज का प्रतिरूप होता है जो किसी जॉनर में बंधा नहीं होता. उसका अपना सौंदर्य होता है. समाज के विकास के साथ-साथ जब भाषा और संगीत का व्याकरण बनता है तो शास्त्र पैदा होता है. इन दोनों में लंबे समय से अंतर्विरोध रहा है. शास्त्रीय गायन हमेशा आम लोगों की पहुंच में नहीं रहा है. भारत के संदर्भ में यह कुछ घरानों या एलीट क्लास के कब्जे में रहा है, जहां जाति विशेष के लोगों को ही एंट्री मिलती थी. हां, नए मीडिया के आने से फोक और क्लासिकल के बीच का अंतर कम हुआ है. तकनीकी विकास और आधुनिकता ने दोनों की अवधारणाएं कमजोर की हैं. इससे संगीत सभी के लिए सुलभ हुआ है.
लोक के सामने वैश्वीकरण के बुलडोजर की चुनौती
कबूतरी के निधन के साथ ही वैश्वीकरण के दौर में लोककलाओं के ह्रास और विभिन्न संस्कृतियों को एकाकार करने की चुनौतियों पर डॉ. अनिल का मानना है कि पहचानों के संकट के वैश्वीकरण के दौर में उत्तराखंड का लोक कबूतरी की आवाज को अपनी पहचान बना सकता है. अनिल कहते हैं कि वैश्वीकरण की किसी भी चुनौती का समाधान केवल 500 साल पहले बसे शहर नहीं बता सकेंगे, उन सवालों का सामना करने लिए हमें दो-ढाई हजार साल पुराने ग्रामीण जीवन यानी सहअस्तित्व के लोक की ओर ही लौटना होगा, जिस समाज ने अभी पूंजीवादी अनिवार्यताओं के सामने घुटने नहीं टेके हैं. इसी चुनौती के संदर्भ में मोहन आर्या कहते हैं कि वैश्वीकरण का मुकाबला वही समाज मुकाबला कर पाएगा, जिसमें कम से कम अंतर्विरोध होंगे, सांस्कृतिक वर्चस्ववाद कम होगा. इसके लिए वह आदिवासी समाजों और नगालैंड के कुछ जातीय समुदायों का उदाहरण देते हैं कि वह कैसे कम से कम अंतर्विरोधों वाले ये समाज अपनी इस दौर में अपनी लोककलाओं को बचाने में सक्षम हैं.
अब लोकगायन बाजार की शर्तों पर
कबूतरी देवी का गायन भले ही गिर्दा की तुलना में जनपक्षधर न रहा हो, पर उन्होंने उत्तराखंड के लोक को अपनी आवाज दी थी, लेकिन स्थानीय भाषाओं का नया गायन निराशाजनक है. भूपेन कहते हैं कि उत्तराखंड के लोकजीवन में पहले नाचना-गाना सम्मानजनक नहीं समझा जाता था. यह काम और लोककलाओं के विकास की जिम्मेदारी दलित जातियों के कंधों पर थी. बाद में सम्मान और पैसा आने पर इस पेशे में सवर्ण जातियां भी आ गईं. वह बताते हैं कि उत्तराखंड के नए गायकों में लोक का तत्व गायब है. अब इस पेशे से सम्मान जुड़ गया है तो सवर्ण गायक भी आगे आ रहे हैं, लेकिन अब उनका गायन केवल बाजार के लिए हो रहा है और वह धार्मिक अंधविश्वास को भी बढ़ावा दे रहा है. हालांकि, अनिल मानते हैं कि अभी यह गायन मुंबइया बाजार तक पहुंचने की दौड़ में दूसरी भाषाओं के लोकगीतों की तरह भ्रष्ट नहीं हुआ है.
जैसा समाज होगा, वैसा लोकगायन बनेगा
कबूतरी के जाने के बाद क्या लोककलाओं के क्षेत्र में शून्य बन जाने के सवाल पर गिरिजा पांडे कहते हैं कि समाज में कभी वैक्यूम नहीं रहता है और विभिन्न वर्गों से चीजें आकर वैक्यूम में भरती जाती हैं. वह कहते हैं कि श्रोता के बदलने के साथ ही गायक भी बदलता है. श्रोता अगर खुद को वैश्वीकरण से जोड़ रहा है और समृद्ध हो रहा है तो गायक पर भी वैश्वीकरण का असर पड़ेगा. यह तो संभव नहीं है कि श्रोता धनाड्य हो जाए, उसकी सांस्कृतिक रुचि बदल जाए और कलाकार उसी गरीबी में रहे और पुराने गीत गाता रहे. वह भी मानते हैं कि लोक को बचाना है तो यह सबकी साझी जिम्मेदारी होगी और साथ ही समाज अपने कलाकार की प्रतिभा की कद्र करे और उसकी आजीविका भी सुनिश्चित करे.
वह आगे कहते हैं कि वैश्वीकरण की चुनौती से निपटने के लिए सांस्कृतिक धरोहरों को नए तरीकों से संभाला जा सकता है, उनके साथ प्रयोग किए जा सकते हैं, क्योंकि पुराने सामाजिक परिवेश और पुरानी विश्वदृष्टि को बनाए रखना संभव नहीं है. बदलता समय और बाजार लोक कलाकारों के लिए भी चुनौती लेकर आ रहा है. अफ्रीका का संगीत यूरोप में नए फॉर्म में मौजूद है. वह कहते हैं कि सामाजिक और आर्थिक हैसियत के मानक बदल रहे हैं तो उत्तराखंड की शादियों में भी छोलिया नृत्य के बजाए डीजे ही बजाया जाएगा.
कबूतरी देवी का संभावित आखिरी इंटरव्यू
नए रूप में आ सकता है लोकगायन
गिरिजा पांडे कहते हैं कि तकनीक ने कलाकारों को प्रयोग करने के अवसर दिए हैं और अब नई पीढ़ी के हाथों में है कि वह अपनी परंपरा को किस दिशा में ले जाती है. नई तकनीक के साथ ही नई आर्थिकी ने भी लोककलाओं का पारंपरिक स्वरूप तोड़ा है. आज कलाकार पैसा और सम्मान दोनों कमा सकते हैं. वह कहते हैं कि संगीत समाज की आवश्यकतानुसार बदलता है. कष्टकारी जीवन खत्म होने, किसानों के बच्चों के नौकरीपेशा बनने, प्रकृति के साथ जीवनयापन न होने, बंद समाज के खुलने, तकनीक की मदद से एक गाने के सब जगहों पर पहुंचने से गीतों में पुरानी चीजें छूट रही हैं और नई चीजें सामने आ रही हैं. वह कहते हैं कि लोक को पुराने रूप में देखने की चाह केवल नॉस्टैलजिया है. संगीत भी जीवन का एक पक्ष है और विकास यात्रा के साथ यह बदलता रहता है. पहले जानवरों के सींगों और बांस के तने के वाद्ययंत्र बनते थे जो अब हारमोनियम से लेकर ड्रम और ट्रंपेट तक आ गए हैं. संगीत में प्रयोग हो रहे हैं. कोक स्टूडियो ने फैज अहमद फैज के ‘हम देखेंगे’ को बिल्कुल नए अंदाज में पेश किया है. नेपाल के युवा संगीत में अभिनव प्रयोग कर रहे हैं. वह कहते हैं कि कबूतरी के स्पेस को उसी गायिकी से तो नहीं भरा जा सकता, क्योंकि हाल के समय में उनके जैसे संगीत की मांग नहीं रही. अगर ऐसा होता तो वह अंतिम समय तक विपन्नता में न रहतीं.