दिल्ली में अगले साल विधानसभा चुनाव हैं. आज हम आपको दिल्ली के उस मुख्यमंत्री के बारे में बताएंगे, जिनका जन्म पाकिस्तान में हुआ और 12 साल की उम्र में भारत आ गए. दिल्ली में आकर पले-बढ़े. राजनीति में आए तो छा गए और 'दिल्ली के शेर' नाम से फेमस हो गए. हम बात कर रहे हैं मदन लाल खुराना की. जिन्होंने दिल्ली में खुद की पहचान आदर्श स्वयंसेवक, समर्पित विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता और जनसंघ-बीजेपी के मजबूत स्तम्भ के तौर पर बनाई. हालांकि, जैन हवाला कांड मामले में नाम विवादों में आया और तीन साल बाद ही उन्हें दिल्ली के सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी.
दरअसल, साल 1993 में दिल्ली में नई विधानसभा गठित हुई और उसी साल विधानसभा चुनाव हुए. देश में राम मंदिर आंदोलन तेज हो चला था. जनजागरण अभियान चलाए जा रहे थे. बीजेपी के दिग्गज नेता बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे. इस बीच, जब दिल्ली के चुनावी नतीजे आए तो बीजेपी ने पहली बार प्रचंड जीत हासिल की और मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बनाए गए.
दिल्ली को जब 37 साल बाद मिला मुख्यमंत्री
इससे पहले 1952 में दिल्ली में अंतरिम विधानसभा थी और तब चुनाव में कांग्रेस ने जीत हासिल की थी. चौधरी ब्रह्म प्रकाश यादव पहले सीएम बने. उसके बाद 1955 में सरदार गुरमुख निहाल सिंह को दिल्ली का दूसरा सीएम बनाया गया. हालांकि, 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के बाद 1 नवंबर 1956 से दिल्ली पार्ट-सी स्टेट नहीं रही और विधानसभा भंग कर दी गई. दिल्ली विधानसभा का अस्तित्व समाप्त हो गया.
प्रशासन के लिए दिल्ली मेट्रो काउसिंल का गठन हुआ. उसके बाद 1991 में 69वां संविधान संशोधन हुआ और दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी बन गई और विशेष राज्य का दर्जा मिला. पूर्ण विधानसभा मिली और 1956 के बाद (37 साल बाद) 1993 में दिल्ली को तीसरी बार मुख्यमंत्री मिला.
जानिए मदन लाल खुराना के बारे में...
मदन लाल खुराना का जन्म पाकिस्तान के ल्यालपुर में साल 1936 में हुआ. तब यह इलाका पंजाब प्रांत में आता था. अब पाकिस्तान के पंजाब में फैसलाबाद कहा जाता है. साल 1947 में देश आजाद हुआ और विभाजन की नौबत आ गई. उस समय खुराना मुश्किल से 12 साल के थे. परिवार को पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा. खुराना और उनका परिवार नई दिल्ली पहुंचा और रिफ्यूजी कैंप में कीर्ति नगर में आकर बस गया. यहीं से उन्होंने अपना जीवन संवारना शुरू किया. दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज से खुराना ने ग्रेजुएशन किया. उसके बाद पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए इलाहाबाद पहुंचे और यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया. खुराना ने संघ संचालित बाल भारती स्कूल में पढ़ाया और कुछ साल बाद एक कॉलेज में लेक्चरर दिए.
इकॉनोमिक्स के स्टूडेंट और पॉलिटिक्स में इंटरेस्ट
यही वो दौर था, जब खुराना को राजनीति थोड़ा-थोड़ा समझ आने लगी थी और रुचि भी बढ़ने लगी थी. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में वे इकॉनोमिक्स के छात्र थे, लेकिन एक्टिविटी पॉलिटिक्स में ज्यादा दिखाई देती थी. 1959 में वे इलाहाबाद छात्र संघ के महासचिव बने. 1960 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के महासचिव बने. धीरे-धीरे वे चर्चाओं में आने लगे और संगठन में मजबूत पकड़ बना ली.
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दिल्ली में जनसंघ की जमाईं जड़ें
इस बीच, खुराना राजनीति से थोड़ा इतर हुए और दिल्ली के PGDAV कॉलेज में विजय कुमार मल्होत्रा के साथ शिक्षक बन गए. लेकिन, मन तो राजनीति में ही बसा था और जल्द ही वे फुल टाइम पॉलिटिक्स में आ गए. उन्होंने विजय कुमार मल्होत्रा, केदार नाथ साहनी और कंवर लाल गुप्ता के साथ मिलकर जनसंघ की दिल्ली शाखा की स्थापना की.
खुराना 1965 से 1967 तक जनसंघ के महासचिव रहे. उन्होंने नगर निगम की राजनीति भी की और फिर महानगर परिषद में अपना दबदबा बनाया. वहां वे मुख्य सचेतक, कार्यकारी पार्षद और विपक्ष के नेता भी रहे.
जब माकन को हराकर चर्चा में आए खुराना
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब जनसंघ की स्थापना की तो दिल्ली में उन्हें मदन लाल खुराना का साथ मिला. उस समय दिल्ली में मदन लाल, केदार नाथ साहनी और विजय कुमार मल्होत्रा की तिकड़ी चर्चा में थी. इस तिकड़ी ने पंजाबियों के बीच जनसंघ को खूब मजबूत किया. 1967 में मदन लाल ने पहाड़गंज वॉर्ड के चुनाव में कांग्रेस के ओमप्रकाश माकन को हराया.
'दिल्ली का शेर' की मिली उपाधि
साल 1980 में जनसंघ, बीजेपी में परिवर्तित हो गई. साल 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के बाद देश में आम चुनाव हुए और बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा. दिल्ली बीजेपी में नेतृत्व का संकट गहरा रहा था. हालांकि, खुराना ने मोर्चा संभाला और संगठन खड़ा करने में ताकत झोंक दी. उन्होंने अथक परिश्रम किया, जिसके कारण उन्हें 'दिल्ली का शेर' की उपाधि मिली. खुराना को दिल्ली में बीजेपी को पुनर्जीवित करने का भी श्रेय दिया जाता है.
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1993 में बिगाड़ दिए कांग्रेस के सारे समीकरण
1983 के महानगर पालिका के चुनाव में बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा, जिसके बाद मदन लाल खुराना ने कड़ी मेहनत की और बीजेपी को फिर से दिल्ली में स्थापित किया. 1993 के आखिरी में जब विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी मदन लाल खुराना के नेतृत्व में मैदान में उतरी और कांग्रेस को बुरी तरह हरा दिया. खुराना ने बाहरी दिल्ली और यमुना पार के इलाकों पर खूब फोकस किया. मुस्लिम बहुल इलाकों में कांग्रेस के समीकरण बिगाड़ने के लिए जाल बुना और सफलता पाई.
तीन साल के अंदर छोड़नी पड़ी सीएम की कुर्सी
खुराना ने पहले विधानसभा चुनाव में ओमप्रकाश माकन की बेटी और कांग्रेस उम्मीदवार अंजलि माकन को हराया. अंजलि उस समय दूरदर्शन की प्रेजेंटर थीं. 2 दिसंबर 1993 को खुराना ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. ये ऐतिहासिक था. लेकिन तीन साल के अंदर ट्विस्ट आया और खुराना को कुर्सी छोड़नी पड़ी. वे 26 फरवरी 1996 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे. उन्हीं के मुख्यमंत्री रहते हुए दिल्ली को मेट्रो मिली और विकास कार्यों को रफ्तार मिली.
राज्यपाल बने, लेकिन दिल्ली के लिए छोड़ दिया पद
1998 में वे दिल्ली सदर लोकसभा सीट से सांसद चुने गए. इसी साल जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी तो मदन लाल खुराना केंद्रीय मंत्री बने. 13 महीने बाद वाजपेयी सरकार गिर गई और जनवरी 1999 में खुराना को कैबिनेट से इस्तीफा देना पड़ा. 2003 में दिल्ली विधानसभा चुनाव हुए और बीजेपी की हार के बाद खुराना ने प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया.
उसके बाद में वे 14 जनवरी 2004 से 28 अक्टूबर 2004 तक राजस्थान के राज्यपाल रहे. इस बीच, उन्होंने मुख्य धारा की राजनीति में आने का ऐलान किया और राज्यपाल के पद से इस्तीफा दे दिया.
जब जयपुर पहुंच गए दिल्ली के बीजेपी विधायक
उस समय दिल्ली बीजेपी में फिर नेतृत्व का संकट गहरा गया था. कांग्रेस लगातार दो चुनाव जीत चुकी थी. शीला दीक्षित का दबदबा था. बीजेपी में गुटबाजी चरम पर देखने को मिल रही थी. इस बीच, दिल्ली के करीब आधा दर्जन बीजेपी विधायक जयपुर राजभवन पहुंचे और खुराना को हालात से अवगत कराया और आग्रह किया कि वे सक्रिय राजनीति में लौट आएं. उसके बाद उन्होंने दिल्ली की राजनीति में वापसी की. हालांकि, 2008 में चुनाव हुए तो बीजेपी हार गई.
2005 और फिर 2006 में पार्टी से निकाले गए थे खुराना
2005 में खुराना विवादों में आए और तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी की सार्वजनिक रूप से आलोचना कर दी. इतना ही नहीं, आडवाणी के साथ काम करने में असमर्थता और असहजता भी जाहिर कर दी. पार्टी ने एक्शन लिया और 20 अगस्त 2005 को अनुशासनहीनता के आरोप में सस्पेंड कर दिया. हालांकि, 22 दिन बाद जब उन्होंने अपने बयान पर खेद जताया तो पार्टी में वापसी हो गई और संगठन में जिम्मेदारियां दी गईं.
19 मार्च 2006 को एक बार फिर खुराना को पार्टी विरोधी बयानों के कारण बीजेपी की प्राथमिक सदस्यता गंवानी पड़ी. पार्टी ने उन्हें टर्मिनेट कर दिया. खुराना ने फिर पार्टी नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाई थी और ऐलान किया था कि वे दिल्ली में बीजेपी की निष्कासित नेता उमा भारती की रैली में शामिल होंगे. खुराना ने आरोप लगाया कि बीजेपी उनके मसलों पर ध्यान नहीं दे रही है. जबकि वे दिल्ली के विकास के लिए पूरी ताकत से जुटे हैं.
82 साल की उम्र में हो गया निधन
खुराना की शादी राज खुराना से हुई थी. उनके दो बेटे और दो बेटियां थीं. एक बेटे विमल का अगस्त 2018 में हार्ट अटैक से निधन हो गया था. दो महीने बाद 27 अक्टूबर 2018 को मदन लाल खुराना का भी 82 वर्ष की आयु में निधन हो गया. 2013 में उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ था और तब से वो बीमार चल रहे थे. खुराना के बेटे हरीश बीजेपी के प्रवक्ता रहे हैं और वर्तमान में दिल्ली बीजेपी में सचिव हैं.
खुराना ने केदार नाथ साहनी और विजय कुमार मल्होत्रा के साथ मिलकर दिल्ली में काम किया और 1960 से 2000 तक यानी चार दशकों से ज्यादा समय तक पार्टी के बड़े चेहरे के तौर पर गिने गए. दिल्ली में खुराना एक ऐसे नेता थे, जिनकी हर वर्ग में पकड़ रही.
खुराना को क्यों छोड़नी पड़ी थी सीएम की कुर्सी?
जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने 29 जून, 1993 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और खुराना पर गड़बड़ी के आरोप लगाए. उन्होंने कहा, मैं यह साबित कर दूंगा कि एक दलाल और हवाला कारोबारी सुरेंद्र जैन ने 1991 में लालकृष्ण आडवाणी को दो करोड़ रुपए दिए. सुरेंद्र जैन उस जाल से जुड़े थे, जो विदेशी धन को यहां गैरकानूनी तरीके से रुपये में बदलता था और कश्मीर के अलगाववादी संगठन JKLF की मदद करता था.
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जब जैन हवाला कांड में घिर गए खुराना
हालांकि, सुब्रह्मण्यम स्वामी के इस दावे पर उस समय ध्यान नहीं दिया गया, लेकिन लोकसभा चुनाव से ठीक चार-पांच महीने पहले उस डायरी के नाम बाहर आने लगे, जिसमें कई कांग्रेसी, बीजेपी और दूसरे नेताओं के नाम के पहले अक्षर और उनके सामने दी गई रकम कथित रूप से दर्ज थी. इस डायरी में मदन लाल खुराना का भी नाम था. आरोप था कि खुराना ने 1988 में तीन लाख रुपये लिए थे. खुराना पर मुख्यमंत्री का पद छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा. मामले में सीबीआई चार्जशीट दाखिल की तैयारी करने लगी. इस बीच, जनवरी, 1996 में लाल कृष्ण आडवाणी ने तत्काल बीजेपी अध्यक्ष पद छोड़ा और बेदाग साबित होने तक चुनाव ना लड़ने का ऐलान कर दिया. 22 फरवरी 1996 को आडवाणी की सलाह पर खुराना ने इस्तीफा दे दिया. खुराना 2 साल, 86 दिन सीएम रहे.
जब राष्ट्रपति ने मांगी मदनलाल से मदद...
1983 का वक्त था. कांग्रेस ने दिल्ली में नगर पालिका चुनाव जीत लिए थे. बीजेपी मुख्य विपक्षी पार्टी बनी और मदन लाल सदन में नेता प्रतिपक्ष बनाए गए. अगले साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हो गई. उसके बाद दिल्ली में सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए. उस समय ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति थे. उन्होंने खुराना को फोन किया और अपने एक सिख रिश्तेदार की सुरक्षा के लिए मदद मांगी. मदन लाल खुद अपनी कार से गए और उस परिवार को सुरक्षित जगह पहुंचाया.
कैसे रहे थे 1993 के चुनाव नतीजे?
1993 में 70 सीटों पर चुनाव हुए थे. बीजेपी ने 49 सीटें जीतीं थीं और 42.80 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था. दूसरे नंबर पर आई कांग्रेस ने 14 सीटें जीतीं थीं. कांग्रेस को 34.50 प्रतिशत वोट मिले थे. तीसरे नंबर पर जनता दल आया और उसे 4 सीटें और 12.60 प्रतिशत वोट मिले थे. तीन निर्दलीय भी चुनाव जीते थे और उन्हें 5.90 प्रतिशत वोट मिले थे. शालीमार बाग से बीजेपी के साहिब सिंह वर्मा ने सबसे ज्यादा 21770 वोटों से जीत हासिल की थी. विश्वास नगर से मदन लाल खुराना को 6560 वोटों से जीत मिली थी. पार्टी ने खुराना को सीएम बनाया, लेकिन वे करीब 27 महीने ही पद संभाल सके और इस्तीफा देना पड़ा था.