देश की राजधानी दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए तैयार है. शहर में विकास के तमाम दावे और चुनावी वादे लोगों के सामने हैं लेकिन दिल्ली का अपना एक अलग ही मिजाज रहा है. कभी शांति और सुकून के लिए जानी जाने वाली दिल्ली आज भागमभाग की जिंदगी, भीड़भाड़ और महंगाई वाली लाइफस्टाइल के लिए जानी जाती है. दास्तान-ए-दिल्ली सीरीज की इस स्टोरी में हम जानेंगे कि क्या है दिल्ली शहर की आर्थिक लाइफलाइन और पहले की दिल्ली कैसी थी यानी महंगाई काल से पहले की दिल्ली?
दुनिया में अगर महंगे शहरों की रैंकिंग देखी जाए तो दिल्ली शहर देश में मुंबई के बाद दूसरी और दुनिया में 165 नंबर पर आती है. लेकिन प्रति व्यक्ति आय की बात की जाए तो दिल्ली सबसे रईस है. औसत प्रति व्यक्ति आय के मामले में दिल्ली सबसे आगे है. साल 2023-24 में दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय 4,61,910 रुपये है जबकि देश में औसत प्रति व्यक्ति आय 13.14 हजार डॉलर यानी करीब 2.28 लाख रुपये है.
जमीन की कीमतें तो दिल्ली में पूछिए ही मत. लुटियंस दिल्ली में तो कई इलाके ऐसे हैं जहां एक वर्ग फुट जमीन की कीमत 3 लाख से भी ऊपर हैं. इसके इलावा निजामुद्दीन ईस्ट, साउथ एक्स, मॉडल टाउन, सिविल लाइंस, हौज खास, वसंत कुंज और लाजपतनगर जैसे इलाकों में भी जमीनों की करोड़ों से नीचे कोई बात ही नहीं करता. लेकिन दिल्ली में महंगाई का ये आलम हमेशा से नहीं था. कभी दिल्ली सस्ती हुआ करती थी, जहां कौड़ियों के भाव जमीनें मिलती थीं और कुछ रुपयों में बंगले किराये पर मिल जाते थे. हम आपको ले चलते हैं इतिहास के उस दौर में जब दिल्ली इतनी सस्ती हुआ करती थी.
मॉर्डन दिल्ली की नींव पड़ी साल 1911 में जब अंग्रेजी शासन ने कोलकाता से राजधानी दिल्ली शिफ्ट करने का ऐलान किया. साल 1931 में लुटियन की डिजाइन की हुई दिल्ली का उद्घाटन हुआ और फिर सड़कें, कॉलोनियां और बाजार बसाए जाने लगे. लेकिन भागमभाग और भीड़ वाली दिल्ली बनने से पहले ये शहर कभी सुकून, शांति और सस्ती होने के लिए जानी जाती थी. उस दौर में नई दिल्ली ताजा ताजा बस रही थी, देश आजादी की ओर बढ़ रहा था यानी साल 1940 से 1950 के दशक में दिल्ली में चीजों की कीमतें सुनकर आप भी हैरान रह जाएंगे. राजेंद्र लाल हांडा ने उस दौर में अपने दिल्ली प्रवास के दौरान के कई किस्सों का जिक्र अपनी किताब में किया है.
हांडा लिखते हैं- 'इन 10 वर्षों में (1940-50) दिल्ली की जनसंख्या में गंभीर परिवर्तन हुआ है. हजारों, संभवतः लाखों की संख्या में यहां के पुराने निवासी बाहर चले गए और लाखों बाहर के लोग यहां आ बसे हैं. जब निवासी बदले तो भाषा और रहन-सहन न बदले ऐसा कैसे हो सकता है सो दिल्ली लगातार बदलती चली जा रही है. खैर, मैं अपनी बात पर आता हूं. द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के साल यानी 1939 में मैं जब दिल्ली आया, मेरे दो-चार पुराने मित्र भी उन्हीं दिनों यहां आ बसे थे. उनमें से एक अध्यापक थे. कूचा नटवां में किसी प्राइमरी स्कूल में 30 रुपये मासिक पर काम करने लगे थे. वे रहते करोलबाग में थे, जो उन दिनों दिल्ली का एक उपनगर था. एक दिन बहुत घबराए हुए मास्टर साहब मेरे पास आए, बोले- भाई मैं तो करनाल जा रहा हूं, रातभर मकान मालिक से तू-तू मैं-मैं होती रही. टूटा-फूटा झोपड़ा है उसका फिर भी 3 रुपया किराया मांगता है, जबकि अब तक 2 रुपया लेता था. मैं अपने मित्र के साथ हो लिया और करोलबाग जाकर उनके मकान मालिक से बात किया. उनके मकान मालिक पास ही के घर में रहते थे. दोनों मकान उसी के थे.
उसने दो टूक कहा- मास्टर जी को मैं यहां नहीं रहने दूंगा. इनके बच्चों ने सब किवाड़ तोड़ दिये हैं.
मैंने कहा- भाई बच्चे तो शरारती होते ही हैं, आपके भी होंगे.
मकान मालिक तैश में आकर बोला- जी, हां मेरे भी शरारती हैं, लेकिन मकान मेरा ही है. ऐसी बराबरी करनी है तो ये मकान खरीद क्यों नहीं लेते. 550 रुपये मेरे हवाले करें और फिर ये मकान इनका, जो चाहें सो करें.
मैंने चुनौती स्वीकार कर ली और मित्रों-दोस्तों से पैसे जुटाकर मित्र को पैसे दिए और अगले दिन मास्टर साहब के नाम मकान की रजिस्ट्री हो गई. इस झगड़े में मित्र का भला हो गया. लेकिन असली कहानी अब शुरू होती है. उस मकान की जमीन थी 300 गज. चार साल बाद जमीन का दाम 25 रुपये गज हो गया. अब मास्टर जी को बिजनेस सूझा. उन्होंने 100 गज जमीन खुद के रहने के लिए रखा और 200 गज का सौदा खड़ा कर लिया. मोटा पैसा आ गया तो मास्टरी छोड़कर ठेकेदारी में उतर आए. कुछ ही सालों में अच्छे-खासे धनी हो गए. अब नई दिल्ली में रहते हैं और मोटर के नीचे कभी-कभी ही पांव रखते हैं.'
राजेंद्र लाल हांडा लिखते हैं- दिल्ली ऐसे बहुतों को रास आई. जब अक्टूबर 1939 में मैं दिल्ली पहुंचा था तो राजधानी उजाड़ सी ही थी, केवल रेलवे स्टेशन पर चहल-पहल थी क्यों राजधानी शिमला से दिल्ली शिफ्ट हो रही थी जाड़े से पहले. मुझे मकान चाहिए था तो मैं अपने एक मित्र के साथ निकला. वे मुझे बाबर रोड पर एक सब्जी वाले के पास ले गए. वह चाबियों का गुच्छा लेकर हमारे साथ निकल पड़ा और धड़ाधड़ कोठीनुमा कई मकान दिखा डाले. उनमें से हमने एक पसंद कर ही लिया. किराया 24 रुपया महीना तय हुआ. बाबर रोड बड़ी खुली और सुन्दर जगह थी. हम रहने आ गए. नौकर दूध वाले को ले आया.
डेयरी वाला आते ही बोला- साहब दूध सही दूंगा लेकिन दाम एकदम कड़क लूंगा. मैंने पूछा- कितना है रेट? उसने तपाक से जवाब दिया- हम नौ सेर का लगा देंगे.
दिल्ली में दूध, घी, फल, सब्जियां सभी चीजें बाकी अन्य शहरों से कुछ ज्यादा ही सस्ती थी. इसका कारण पूछा तो कुछ दुकानदारों ने बताया कि दिल्ली में फल की खपत कम ही है साहब इसलिए कम रेट करके ही बेचना पड़ता है. यहां तक कि रोहतक का घी दिल्ली में रोहतक से भी सस्ता बिकता था, बेचने वाले से पूछा तो उसका जवाब था- बाबू साहब रेट को खपत से तय होता है न. साल 1932 में मेरे भाई साहब ने बारहखंबा में बंगला किराया पर लिया 26 रुपया मासिक किराये पर.'
तीन साल और बीत गए, यूरोप में युद्ध तेज हो रहा था और उसका असर दिल्ली तक दिखने लगा था. ब्रितानिया हुकूमत यहां भी थी और यूरोप में उसे हो रहे नुकसान की भरपाई भारत जैसे उपनिवेश नहीं करते तो कौन करता.
राजेंद्र लाल हांडा लिखते हैं- मुझे याद है- अप्रैल 1940 की बात है, एक दिन सांयकाल अपने कुछ मित्रों के साथ मैं कनॉट प्लेस घूम रहा था. अचानक एक अखबार वाला चिल्लाया- शाम का ताजा अखबार! हिटलर पेरिस पहुंच गया है, सारे फ्रांस पर नाजियों का कब्जा.' सभी ने ये खबर सुनी, कुछ लोग आश्चर्य में पड़ गए लेकिन फिर अपने आप में बिजी हो गए. बाजार भरे हुए थे, सिनेमाघरों के सामने पहले की तरह भीड़ लगी हुई थी. लड़ाई के पहले दो सालों में दिल्ली में तो लोग फायदे में दिखे. सरकारी कर्मचारियों के वेतन बढ़ गया, ठेकेदारों को नया काम मिलने लगा, बेरोजगारों लोगों की भर्तियां होने लगीं लेकिन असल समस्या 1941 के बाद शुरू हुईं. जापान युद्ध में कूदा और पासा पलट गया. लडाई के समाचारों में दिल्ली के लोगों की रुचिबढ़ी. युद्ध की विभिषीका उन्हें शायद पहली बार हिंदुस्तान की ओर लपकती हुई दिखाई देने लगी. दिल्ली के लोग अब जहां मिलते और बातचीत करते, घर-गृहस्ती के मामलों के साथ-साथ युद्ध की खबरों की समीक्षा भी करने लगे.
आवश्यक वस्तुओं के दाम अचानक बढ़ने लगे. चीनी चार आने से बढ़कर एकदम से सात आने सेर हो गई. चीनी की चर्चा ही शुरू हुई थी कि गेहूं बाजार से एकदम गायब हो गया. हर कोई आटे-दाल की चिंता में डूबने लगा. रविवार के दिन मुझे आटे की खोज में 4 घंटे पहाड़गंज में चक्कर लगाना पड़ा. बहुत मुश्किल से एक मित्र की मदद से 20 सेर आटा साढ़े आठ रुपये में जुगाड़ कर पाया. फिर कोयले की समस्या सामने खड़ी हो गई. बहुत मुश्किल से घंटों के चक्कर काटने के बाद पहाड़गंज से 16 रुपये मन के हिसाब के कोयले का जुगाड़ हुआ. सस्ती चल रही दिल्ली में अचानक महंगाई बम फूट चुका था. चावल, घी, तेल आदि हर चीज बाजार से गायब हो गई और बहुत मुश्किल से ढेर सारा पैसा खर्च कर जुगाड़ हो पाता था.
फिर राशन व्यवस्था शुरू हुई और अगले कई महीनों तक राशन में अनाज जुटा लेना ही दिल्ली की एक बड़ी आबादी का लक्ष्य बन गया. युद्ध तेज होता गया और नई दिल्ली में बाबुओं और सरकारी कर्मचारियों की संख्या बढ़ती चली गई और इसी के साथ महंगाई भी.'
जब 1947 में देश आजाद हुआ उसके बाद पाकिस्तान से आए लाखों शरणार्थियों को बसाने के लिए दिल्ली के कई इलाकों को विकसित किया गया, नई बस्तियां बसीं, बाजार खड़े हुए, लोगों की हर तरफ भीड़ दिखने लगी और तब अगले कई दशकों तक दिल्ली एक नए शक्ल में खड़ी होती हुई दिखी. और आज पुरानी दिल्ली, नई दिल्ली, बाहरी दिल्ली, यमुना पार दिल्ली, दिल्ली-एनसीआर जैसे कई रूपों में ये दिल्ली हमारे सामने आबाद है. हर दिल्ली की एक कहानी है और हर दिल्ली का एक अपना अलग इतिहास. लेकिन दिल्ली सबकी है, साड्डी दिल्ली...