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...जब दिल्ली की सुरक्षा के लिए आए थे अमेरिकी सैनिक, इंडिया गेट पर खोदे गए खंदक और बंकर!

आजाद भारत ने चीन और पाकिस्तान के साथ जंग खुद भी झेली है लेकिन उससे पहले का एक दौर ऐसा भी था जब विश्वयुद्ध की आंच भारत पर, खासकर राजधानी दिल्ली पर आ गई थी. कभी भी दिल्ली विश्व युद्ध में शामिल देशों की जंग का अखाड़ा बन सकती थी और इस माहौल में दिल्ली की सड़कों पर अमेरिकी सैनिकों तक की तैनाती हुई थी. आखिर कैसा था वो दौर और दिल्ली को तबाह करने का मंसूबा पालने वाला दुश्मन था कौन?

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देश की राजधानी दिल्ली विधानसभा चुनाव की तैयारी में है. दिल्ली को विश्वस्तरीय बनाने के तमाम वादे राजनीतिक दल करते रहे हैं और इस चुनाव में भी बड़े-बड़े दावे और वादे किए जा रहे हैं लेकिन क्या आपको पता है कि कभी दिल्ली दुनिया की बड़ी शक्तियों की जंग का अखाड़ा भी बन गई थी. जानिए उस दौर को जब दिल्ली की सुरक्षा के लिए अमेरिका से सैनिक आए थे, इंडिया गेट पर बंकर और खंदकें खोदी गई थीं. चलिए जानते हैं कि दिल्ली का दुश्मन था कौन, किसके हमले के खौफ में जी रही थी साड्डी दिल्ली?

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हमारा देश भारत वैसे तो अंतरराष्ट्रीय युद्धों और बाकी ग्लोबल मसलों से दूरी बनाकर रखता है, आजादी के बाद भारत ने पंडित नेहरू के काल में निर्गुट आंदोलन में शामिल होकर अमेरिका और रूस के कोल्ड वॉर से खुद को बचाकर रखा. फिर इंदिरा गांधी के काल में भारत सोवियत रूस के करीब आया, और फिर सोवियत विघटन के बाद 1990 के दशक से अमेरिका के साथ करीबी बढ़ी. आजाद भारत ने चीन और पाकिस्तान के साथ जंग खुद भी झेली है लेकिन उससे पहले का एक दौर ऐसा भी था जब विश्वयुद्ध की आंच भारत पर, खासकर राजधानी दिल्ली पर आ गई थी. कभी भी दिल्ली विश्व युद्ध में शामिल देशों की जंग का अखाड़ा बन सकती थी और इस माहौल में दिल्ली की सड़कों पर अमेरिकी सैनिकों तक की तैनाती हुई थी. आखिर कैसा था वो दौर और दिल्ली को तबाह करने का मंसूबा पालने वाला दुश्मन था कौन?

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साल 1939 से 1945 तक चले दूसरे विश्वयुद्ध की जद में इंडिया कैसे आ गया था. ये उस दौर की घटनाओं को गौर से देखने पर पता चलता है. देश अंग्रेजी शासन में था, आजादी का आंदोलन चरम पर था लेकिन दुनिया दूसरे विश्वयुद्ध में बिजी थी. देश के देश और शहर के शहर तबाह हुए जा रहे थे, खासकर यूरोप के शहरों में कहर बरपा हुआ था. हिटलर की सेनाएं पोलैंड-नीदरलैंड जैसे देशों को रौंदकर ब्रिटेन और फ्रांस की सीमाओं पर तबाही मचा रही थीं.

पुरानी दिल्ली
(File Photo- Getty)

इधर एशिया में जापान हिटलर की सेनाओं के साथ मिलकर जंग में कूद चुका था और ब्रिटिश सेनाओं से लोहा ले रहा था. ब्रिटिश शासन में चल रहा भारत भी उनके निशाने पर था. हालांकि, सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज के जापान के साथ खड़े हो जाने का बहुत लोग स्वागत भी कर रहे थे. ब्रिटिश शासन की खिलाफत में कुछ लोग जापानियों को भगवान शिव का अवतार तक बताने लगे थे. गजब नजारा था तब दिल्ली का.

1940 के दशक की शुरुआत में जब दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था उस दौर में दिल्ली में क्या कुछ चल रहा था? राजेंद्र लाल हांडा ने अपनी किताब में उस दौर का विस्तार से वर्णन किया है. वे लिखते हैं- 'युद्ध के शुरुआती दो वर्षों तक दिल्ली में कोई हलचल नहीं दिखी. न जनता युद्ध को लेकर चिंतित थी न सरकारी अमला. बल्कि शुरुआती दो साल फायदा ही हुआ. सब बेकार लोगों को नौकरी मिल गई, ठेकेदारों ने हाथ रंग लिए और अनेक सरकारी कर्मचारियों के वेतन इस साल बढ़ गए. हालांकि, अंग्रेजी शासन से आजादी के लिए आंदोलन तेज हो रहा था. लेकिन 1941 समाप्त होते ही पासा पलट गया. जापान युद्ध में कूदा और हिंदुस्तान को भी हवा का झोंका लगा. लड़ाई के समाचारों में दिल्ली के लोगों की रूचि बढ़ी. युद्ध की विभीषिका उन्हें शायद पहली बार हिंदुस्तान की ओर लपकती दिखी. हर जगह अब युद्ध की बातें होने लगीं.

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आवश्यक चीजों की कीमतें बढ़ने लगीं, बाजार से सामान गायब होने लगे. चीनी चार आने से बढ़ सात आने सेर हो गई. गेहूं बाजार से गायब हो गया, आटा और कोयले की कीमतें आसमान छूने लगीं. राशन व्यवस्था लागू हो जाने से अधिकांश लोग आटा-दाल के जुगाड़ में बिजी हो गए. सरकारी दफ्तर और अफसर-कर्मचारियों की संख्या अचानक नई दिल्ली में बढ़ने लगी और बंगलों और मकानों पर सरकारी दखल बढ़ गया. सभी बड़ी-बड़ी खाली कोठियां और राजाओं के महल सरकार ने प्राप्त कर लिए थे. किसी में दफ्तर और किसी में दफ्तर वाले आ बसे थे. इंडिया गेट और नई दिल्ली के अहम इलाकों में दर्जनों सड़कों पर खाइयां खोदी जा रही थीं और हवाई हमले से बचाव की तैयारियां की जा रही थीं. कलकते पर एक-दो हमले हो भी चुके थे. दिल्ली को सुरक्षित रखने की तैयारी ब्रिटिश सरकार कर रही थी. ब्रिटिशर्स की मदद के लिए अमेरिकी सैनिकों को भी दिल्ली की सड़कों पर उतारा गया.

पुरानी दिल्ली
(File Photo- Getty)

दिल्ली में जगह-जगह विचित्र ढंग के शरण घर बनाए गए थे जो देखते ही बनते थे. भोंपू बजाकर और घटाटोप अंधेरा करके दिल्ली के लोगों को हमले से रक्षा का अभ्यास भी कराया गया. आम लोगों में हालांकि ज्यादा हलचल नहीं दिख रही थी. अभ्यास होते रहे. उधर, जापानी मणिपुर में आ घुसे, कलकत्ते पर शत्रु के अधिकार की भविष्यवाणियां होने लगीं. परंतु दिल्ली वाले विचलित नहीं हुए. जामा मस्जिद पर शाम को वही भीड़, चांदनी चौक में वही रौनक और कनॉट प्लेस में पहले सी चहल-पहल बनी रही. दिल्ली वाले शासन सत्ता की उलटफेर, सल्तनतों का ढह जाना, बाह्या आक्रमण... इन सब चीजों को हजारों वर्षों से देखते आए हैं.

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पुराने किले में 1942 के वसंत का मेला अंतिम मेला था. कुछ महीनों बाद ही इटालियन युद्धबंदी इसमें ला इकट्ठे किए गए. तीन साल तक इस किले ने इन श्वेतरांगी रणबांकुरों को शरण दी. युद्धबंदियों से मुक्ति पा लेने के बाद फिर पुराने किले को अपनी पुरानी स्थिति में आने में कई साल लगे.

हांडा अपनी किताब में अपने और एक अमेरिकन सैनिक के हादसे और फिर दोस्ती की मजेदार कहानी का जिक्र भी करते हैं. वे लिखते हैं- 'घटना नवंबर 1943 की है. एक दिन मुझे किसी आवश्यक काम से ठीक पांच बजे कनॉट पलेस पहुंचना था. दफ्तर में ही पौने पांच बज गए. बाइसकिल उठा एकदम भागा. बहुत तेजी से जा रहा था, रीगल की तरफ से एक अमेरिकी सिपाही हाथ में साइकिल थामे धीरे-धीरे सिंधिया हाउस की तरफ जा रहा था. मैं जोर से उसकी साइकिल से जा टकराया. उसके साइकिल का पहिया ऐसे मुड़ गया जैसे रोटी मुड़ जाती है. अमेरिकन बेचारा धक्का खाकर एक तरफ गिर गया. मैंने उसे तुरंत उठाया और चोटिल करने के लिए खेद जताया. अमेरिकन सिपाही कुछ बोला नहीं, उसने खुद को झाड़ा. मेरे बार-बार कपड़ा झाड़ने पर वह बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुकी अपनी साइकिल की ओर इशारा कर बोला- किंतु उसका क्या होगा? मैंने कहा- मुझे इस दुर्घटना का अफसोस है, आप साइकिल की चिंता बिल्कुल भी मत करें. उसकी मैं मरम्मत कराए देता हूं. मैं बस ये जानना चाहता हूं कि आपको चोट तो नहीं लगी?

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मैं तांगे पर उसकी साइकिल लादकर मरम्मत कराने निकल पड़ा और पीछे-पीछे मेरी साइकिल पर वह अमरीकर सिपाही मूंगफली चबाता हुआ साथ हो लिया. मैं कनॉट प्लेस वाला अपना काम पूरी तरह भूल चुका था. ओडियन के पास पहुंचते ही मैंने तांगा रुकवाया और साथ वाली साइकिल दुकान से एक आदमी को पास बुलाया. उसने साइकिल देखकर कहा कि ठीक हो जाएगी लेकिन कल ही मिल पाएगी. मैंने दुकान वाले समझाया और अमेरिकन को भी कि लो अब मरम्मत हो जाएगी आपकी साइकिल की. मैंने अमेरिकन के हाथ में मरम्मत के दाम 11 रुपये रख दिए. अब वह संतुष्ट हो गया और मुझे मेरी साइकिल देते हुए बोला कि अब आप जा सकते हैं.

पुरानी दिल्ली
(File Photo- Getty)

एक घंटे की चुप्पी के बाद वह खिलखिलाकर हंसा और बोला- मैं पार्लियामेंट स्ट्रीट पर वैंगर्स फ्लैट में रहता हूं. मेरा कमरा नंबर 15 है और मेरा नाम- हेनरी जे. हम्फ्रे. अगर आपके पास समय है थोड़ा तो चलिए कॉफी का एक प्याला पीते हैं. एक दुखद कांड का सुखद अंत होने की खुशी में मैंने निमंत्रण स्वीकार कर लिया. वह कुछ लंगड़ाता हुआ सा चल रहा था, कमरे पर पहुंचकर उसने रुई और दवा से अपना इलाज किया. मैं काफी असहज हुआ लेकिन उसने कहा कि चोट मामूली है, पहले मुझे साइकिल की चिंता थी. एक-एक मुट्ठी मूंगफली खाने के बाद हमनें गरम कॉफी पी. हमनें धर-उधर की बहुत सारी बातें कीं. वह मेरे नरम व्यवहार से काफी प्रभावित था. आठ बजे मैंने जाने की आज्ञा मांगी. हम्फ्रे मुझे छोड़ने सड़क तक आया. हम्फ्रे ने मेरे घर आने का वचन दिया और मैं विदा हो गया.'

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यूरोप में जंग तेज हो रही थी और दिल्ली में उसको लेकर सरगर्मी बढ़ती जा रही थी.

हांडा आगे लिखते हैं- 'नवंबर 1943 के उस महीने में दिल्ली में सरगर्मी तेज हो गई थी. उन दिनों 10 हजार से ऊपर अमेरिकन दिल्ली में थे. शाम के समय जहां देखो यही लोग दिखाई देते थे. इन्हें सिवाय घूमने के और कोई काम न था. रीगल, प्लाजा और ओडियन सिनेमा घरों के सामने प्रति दिन 30-40 अमेरिकन खड़े होते थे. खाली समय में सिनेमा देखना और मूंगफली चबाना इनका प्रमुख काम होता था.  

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(File Photo- Getty)

लड़ाई के दिनों में दिल्ली में जो असाधारण रौनक हो गई थी उसके केंद्र अमेरिकन थे. चीजों के दाम उन दिनों वैसे ही ढलती-फिरती छांव की तरह थी, दुकानदार जो मन आता वो दाम मांगते. हम लोग को सौदा करने के आदी थी लेकिन शुरू में अमेरिकन लोग नहीं थे. हम्फ्रे ने मुझे बताया कि जब वह मार्च के महीने में दिल्ली आया, उसने महीना भर बूट पालिश के लिए आठ आना प्रतिदिन के हिसाब से दिए और कई बार पान का बीड़ा चार आने का खरीदा. कभी-कभी तांगे वाले भी इनसे खूब पैसा झाड़ते थे. लेकिन अमेरिकन बहुत व्यवहार-कुशल होते हैं. जल्द ही उन्होंने सही दाम का सौदा करना सीख लिया.

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हम्फ्रे मेरे साथ काफी दिल्ली घूमा, उसके माध्यम से कई और अमेरिकन्स से भी मेरी मुलाकात हुई. अमेरिकन हिसाब के बहुत पक्के होते हैं. एक दिन हम दोनों ने पूरे दिन सैर की, मूंगफली-केले और संतरे खाए. शाम में जैसे ही हम लौटे, हम्फ्रे ने तुरंत कागज पेन से हिसाब किया और बोला- नौ रुपये बारह आना. और आपके बनते हैं चार रुपये और चौदह आने. जो आप मुझे दे दीजिए. मैंने तुरंत चुकाया और हाथ मिलाकर घर लौट आया. अमेरिकन हिसाब के पक्के होते हैं लेकिन दोस्त भी अच्छे होते हैं. युद्ध खत्म होने पर 1945 में हम्फ्रे अपने घर बस्टन चला गया. बाद में उसके तीन-चार पत्र भी आए. मुझे वह फोटोग्राफी की खर्चीली लत लगा गया और मेरे बच्चों को च्यूंगम चूसने का चस्का.'

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