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Delhi Assembly Election History: जब चुनाव जीतकर भी शीला दीक्षित के लिए मुश्किल हो गया था दूसरा टर्म, पढ़ें दिल्ली की रोचक चुनावी कहानी

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2003 में कांग्रेस ने एक बार फिर जीत हासिल की. कांग्रेस, शीला दीक्षित के चेहरे पर चुनाव में उतरी थी. पार्टी ने 47 सीटें जीतीं और 48.1 प्रतिशत वोट हासिल किए. बीजेपी सिर्फ 20 सीटों पर सिमट गई और 35.2 प्रतिशत हासिल कर सकी. NCP, JD(S) और निर्दलीय ने एक-एक सीट पर जीत हासिल की. शीला दीक्षित गोले मार्केट से चुनाव लड़ीं और 12,935 वोटों से जीत हासिल की.

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Sheila Dikshit Delhi Assembly Election History
Sheila Dikshit Delhi Assembly Election History

दिल्ली विधानसभा चुनाव की सीरीज में आज तीसरा पड़ाव है. यानी 2003 के चुनाव की बात. मैदान में सत्तारूढ़ कांग्रेस के सामने बीजेपी थी. कांग्रेस सत्ता में वापसी के लिए दम भर रही थी तो बीजेपी को उम्मीद थी कि वो एक बार फिर दिल्ली की जनता का दिल जीतेगी. हालांकि, दोनों ही पार्टियों में अंदरखाने सब कुछ ठीक नहीं था. कांग्रेस में शीला दीक्षित अंदरुनी नाराजगी और गुटबाजी से जूझ रही थीं तो बीजेपी में 'दिल्ली का शेर' कहे जाने वाले मदन लाल खुराना ही अकेले चुनावी रैलियां करते देखे गए. नतीजे आए तो दिल्ली की जनता ने शीला दीक्षित के कामों पर मुहर लगाई और दूसरी बार कुर्सी पर बैठने का मौका दिया.

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हालांकि, शीला को दोबारा सीएम बनाने में कांग्रेस को एक हफ्ते का वक्त लगा. पार्टी के अंदरखाने आवाज उठीं और खींचतान की खबरें आईं. अंत में हाईकमान ने तय किया कि चुनाव में जीत का श्रेय शीला के हिस्से ही जाता है. कांग्रेस में अकेली शीला दीक्षित थीं, जो मोर्चा संभाले खड़ी थीं और अपनी 5 साल की उपलब्धियां गिना रही थीं. दरअसल, कांग्रेस के अंदर एक बड़ा गुट खड़ा हो गया था और वो शीला को बाहरी बताते हुए नापसंद कर रहा था. इनमें सज्जन कुमार, जगदीश टाईटलर, जयप्रकाश अग्रवाल, रामबाबू शर्मा और चौधरी प्रेम सिंह जैसे दिग्गज नेताओं के नाम शामिल थे.

1998 की हार के बाद बिखर गई थी बीजेपी

जबकि 1998 की हार के बाद बीजेपी भी बिखर गई थी और पार्टी के अंदर साफतौर पर नेतृत्व का अभाव झलकने लगा था. सुषमा स्वराज राष्ट्रीय राजनीति का हिस्सा हो गईं. मदन लाल खुराना पहले सांसद बने. फिर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री बनाए गए. उसके बाद 2003 के चुनाव से पहले खुराना एक बार फिर दिल्ली की राजनीति में सक्रिय हुए. पार्टी ने उन्हें दिल्ली का प्रदेश अध्यक्ष बनाया. खुराना ने दिल्ली की शीला सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला. हालांकि, बीजेपी में खुराना के सक्रिय होने से दूसरे नाराज धड़े ने दूरी बना ली, जिससे चुनावी अभियान में भी पार्टी को चुनौतियों का सामना करना पड़ा.

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शीला ने दोबारा दिखाया दम

नतीजे आए तो कांग्रेस ने इतिहास बनाया और दूसरी बार सत्ता में वापसी की. शीला ने एक बार फिर अपनी क्षमताओं को साबित किया और बिखरी बीजेपी पर भारी पड़ीं. कांग्रेस ने भी शीला की मेहनत को स्वीकारा और अंदरखाने के विरोध को दरकिनार कर दिया. शीला दीक्षित लगातार दूसरी बार दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी.

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2003 में शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस की दूसरी बार सरकार बनी. (Photo- Getty)

कांग्रेस ने 47 सीटें जीतीं, बीजेपी को मिलीं सिर्फ 20

दिल्ली में 2003 में 84,48,324 वोटर्स रजिस्टर्ड थे और 45,13,135 वोटर्स ने मतदान किया था. यानी 53.4% फीसदी मतदान हुआ था. 57 सीटें सामान्य रखी गई थीं और 13 सीटें अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व की गई थीं. 

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मोतीनगर से जीते थे मदन लाल खुराना

दिल्ली में 2003 में कांग्रेस को 47 सीटें मिलीं और 48.1 प्रतिशत वोट हासिल किए. बीजेपी को 20 सीटें मिलीं और 35.2 प्रतिशत वोट मिले. NCP, JD(S) और निर्दलीय ने एक-एक सीट पर जीत हासिल की. शीला दीक्षित गोले मार्केट से चुनाव लड़ीं और 12,935 वोटों से जीत हासिल की. उन्होंने बीजेपी की पूनम आजाद को हराया था. बीजेपी में मोतीनगर से मदन लाल खुराना, तुगलकाबाद से रमेश बिधूड़ी, कृष्णानगर से डॉ. हर्षबर्धन ने जीत हासिल की थी. 

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कांग्रेस को हुआ था 5 सीटों का नुकसान

1998 के मुकाबले कांग्रेस को 5 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा. 1998 में कांग्रेस ने 47 सीटें जीतीं. वोट शेयर भी मामूली अंतर से नीचे आया. यानी बीजेपी इस चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी का माहौल तैयार नहीं कर सकी.

कैसा था बीजेपी का चुनाव अभियान?

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2003 में मदन लाल खुराना बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष थे. पार्टी का पूरा चुनावी अभियान मुख्य रूप से खुराना के इर्द-गिर्द केंद्रित रहा. हालांकि, अभियान को लेकर पार्टी के भीतर गुटबाजी और रणनीतिक असहमति की भी चर्चाएं रहीं, जिसने चुनाव के दौरान बीजेपी के प्रदर्शन को प्रभावित किया.

चूंकि, खुराना दिल्ली बीजेपी के सबसे कद्दावर नेता माने जाते थे और 1993-1996 के दौरान दिल्ली के मुख्यमंत्री रह चुके थे. उन्हें 'दिल्ली का शेर' भी कहा जाता था और उनकी छवि एक मजबूत प्रशासक और जमीनी नेता की थी. खुराना ने कांग्रेस सरकार, विशेष रूप से शीला दीक्षित के शहरी विकास और बिजली-पानी की नीतियों पर जोरदार हमला किया. उन्होंने कांग्रेस के बिजली निजीकरण और झुग्गी-झोपड़ी पुनर्वास योजना को असफल बताया और जनता के बीच माहौल खड़ा किया. 

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(Photo- Getty)

बीजेपी के अभियान की जिम्मेदारी पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व और राज्य इकाई के बीच बंटी हुई थी. तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष वेंकैया नायडू और दिल्ली बीजेपी इकाई ने मिलकर रणनीति बनाई थी. मदन लाल खुराना बीजेपी के मुख्यमंत्री चेहरा थे. जबकि विजय कुमार मल्होत्रा कैंपेन कमेटी की जिम्मेदारी संभाल रहे थे. मल्होत्रा खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे. उधर, विजय गोयल और साहिब सिंह वर्मा भी मुख्यमंत्री बनने के दावेदार थे. खुराना ने जब दिल्ली में रथयात्रा निकाली तो अकेले ही प्रचार करते रहे. समर्थन में कोई सीनियर साथ खड़ा नहीं देखा गया. इस बीच, जब टिकट बांटने की बारी आई तो प्रेशर पॉलिटिक्स हावी हो गई और पार्टी ने कई कमजोर उम्मीदवारों को उतार दिया. 

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हालांकि, चुनावी अभियान के दौरान दिल्ली बीजेपी के भीतर गुटबाजी की खबरें भी आईं. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे राष्ट्रीय नेता चुनाव प्रचार में ताकत झोंक रहे थे. साहिब सिंह वर्मा ग्रामीण इलाकों में सक्रिय थे. खुराना, सुषमा स्वराज और मल्होत्रा जैसे नेताओं के बीच तालमेल की कमी देखी गई, जिससे चुनावी अभियान कमजोर हुआ. 

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बीजेपी को भारी पड़ी आंतरिक गुटबाजी

बीजेपी का अभियान मुख्य रूप से कांग्रेस सरकार की आलोचना पर केंद्रित रहा. बीजेपी, कांग्रेस की नीतियों की आलोचना तो कर रही थी, लेकिन विकास के लिए कोई ठोस वैकल्पिक दृष्टिकोण पेश नहीं कर पाई. खुराना पार्टी के लोकप्रिय नेता थे, लेकिन संगठनात्मक गुटबाजी और अभियान प्रबंधन की कमजोरियों के कारण उनकी छवि को वो समर्थन नहीं मिल पाया जो जरूरी था. हार के बाद दिल्ली बीजेपी के भीतर गुटबाजी और नेतृत्व को लेकर विवाद और अधिक बढ़ गए. दिसंबर 2003 में खुराना ने बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और केंद्र की तत्कालीन सरकार ने उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बनाकर भेज दिया.

कांग्रेस को कैसे मिली बड़ी जीत?

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2003 में शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की और लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी की. शीला दीक्षित की सरकार ने अपनी नीतियों, विशेष रूप से शहरी विकास और बिजली सुधार के कारण जनता के बीच लोकप्रियता हासिल की. दिल्ली के शहरी मतदाताओं ने कांग्रेस को प्राथमिकता दी, जबकि बीजेपी ग्रामीण और बाहरी इलाकों में ज्यादा सफल नहीं हो पाई. 2002 में दिल्ली मेट्रो का संचालन शुरू हुआ. मेट्रो दिल्ली के नागरिकों के लिए एक बड़ा तोहफा साबित हुआ और इसे शीला दीक्षित सरकार की उपलब्धि के रूप में देखा गया.

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इसके अलावा, उस समय दिल्ली चुनाव में तीसरे दलों का प्रभाव ना के बराबर रहा. बसपा और अन्य छोटे दलों ने चुनाव में हिस्सा लिया, लेकिन उनका प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा. चुनाव पूरी तरह कांग्रेस और बीजेपी के बीच मुकाबले में सिमट गया. शीला दीक्षित की नेतृत्व शैली ने उन्हें 'दिल्ली की विकासशील चेहरा' बना दिया.

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(File Photo- Getty)

कांग्रेस में अंदरखाने क्या चल रहा था?

2003 में नतीजे के बाद कांग्रेस एक बार फिर सरकार में आ गई. चुनाव में शीला दीक्षित चेहरा थीं, लेकिन नतीजे आने पर अचानक अन्य बड़े नेताओं के नाम दावेदार के रूप में उभरने लगे. इनमें एक नाम विधानसभा अध्यक्ष रहे चौधरी प्रेम सिंह का था. चौधरी ने सीएम पद पर दावा ठोका और हाईकमान के सामने मांग उठाई. अंदरखाने भी अन्य नेता शीला के खिलाफ खड़े हुए. करीब एक सप्ताह तक दिल्ली में सस्पेंस बना रहा और अंत में हाईकमान ने शीला दीक्षित के नाम को हरी झंडी दिखाई. शीला ने इसे अपनी बड़ी राजनीतिक जीत माना और फिर फ्री हैंड सरकार चलाई. चौधरी प्रेम सिंह से स्पीकर की कुर्सी छीनी गई और अजय माकन नए स्पीकर बनाए गए. 

दरअसल, चौधरी प्रेम सिंह जैसे वरिष्ठ नेता और कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं की महत्वाकांक्षाएं थीं, लेकिन दमदार वापसी के कारण दावेदारी कमजोर पड़ गई. चौधरी प्रेम सिंह दिल्ली कांग्रेस के वरिष्ठ और अनुभवी नेता थे. वे विधानसभा अध्यक्ष भी रहे हैं और दिल्ली में उनके समर्थकों की अच्छी संख्या थी. खासकर ग्रामीण और बाहरी इलाकों में. ऐसा माना जाता है कि पार्टी में उनके समर्थकों ने उन्हें मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में देखा. उनकी दावेदारी मुख्य रूप से दिल्ली के ग्रामीण और जाट-प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में उनकी पकड़ के आधार पर थी. कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार, चौधरी प्रेम सिंह और उनके समर्थक शीला दीक्षित की शहरी-केंद्रित नीतियों और प्रशासनिक शैली को लेकर असहमत थे. हालांकि, यह असहमति सार्वजनिक रूप से बड़े विवाद का रूप नहीं ले सकी, क्योंकि शीला दीक्षित को सोनिया गांधी और कांग्रेस आलाकमान का पूरा समर्थन हासिल था. जीत और लोकप्रियता के कारण शीला की स्थिति इतनी मजबूत हुई कि किसी भी आंतरिक असहमति को प्रभावी ढंग से दबा दिया गया.

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हालांकि, कांग्रेस के भीतर शीला दीक्षित के नेतृत्व को चुनौती देना उस समय व्यवहारिक रूप से संभव नहीं था. क्योंकि शीला की लोकप्रियता और पार्टी आलाकमान का समर्थन उनके लिए सबसे बड़ा ताकतवर पहलू था. कांग्रेस में शीला गुट का दावा था कि पार्टी में मुख्यमंत्री पद को लेकर कोई विवाद नहीं था. शीला पार्टी की स्पष्ट पसंद थीं और उनकी नेतृत्व क्षमता को लेकर पार्टी में आम सहमति थी. शीला की दिल्ली कांग्रेस पर मजबूत पकड़ थी और आलाकमान (सोनिया गांधी) का समर्थन उन्हें प्राप्त था. उन्होंने 1998-2003 के अपने पहले कार्यकाल में दिल्ली में बिजली और पानी जैसी बुनियादी सेवाओं में सुधार किया था. उनका शहरी विकास और परिवहन सुधार (जैसे मेट्रो परियोजना की शुरुआत) के प्रति दृष्टिकोण जनता और पार्टी दोनों के बीच लोकप्रिय था. कांग्रेस ने 47 सीटें जीती थीं, जो एक मजबूत बहुमत था. यह जीत शीला दीक्षित की छवि और उनके नेतृत्व के कारण मानी गई.

जानकारों का कहना था कि कांग्रेस में कोई ऐसा कद्दावर नेता नहीं था, जो शीला दीक्षित को चुनौती दे सके. उनके साथ काम करने वाले नेता उनकी नेतृत्व शैली को स्वीकार करते थे. नतीजों के बाद शीला दीक्षित को तुरंत मुख्यमंत्री पद के लिए निर्विरोध चुना जाना था, लेकिन कुछ समय लगा. चुनाव के नतीजे 4 दिसंबर 2003 को घोषित हुए थे. 

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नतीजों के बाद कांग्रेस विधायकों की बैठक हुई, जिसमें शीला दीक्षित को सर्वसम्मति से विधायक दल का नेता चुना गया. यह बैठक आमतौर पर नतीजे आने के 1-2 दिन बाद आयोजित की जाती है. शीला दीक्षित ने 15 दिसंबर 2003 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.
 

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