साल 2013 में दिल्ली का विधानसभा चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा. दिल्ली पहली बार त्रिशंकु विधानसभा बनी और किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. पॉलिटिक्स में डेब्यू करने वाली आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस का किला ढहा दिया और बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी होकर भी सरकार नहीं बना पाई. बसपा का जनाधार खिसक गया और खाता भी नहीं खोल पाई. अन्ना आंदोलन के प्रमुख चेहरे अरविंद केजरीवाल ने उसी कांग्रेस से हाथ मिला लिया, जिसके खिलाफ पूरा मूवमेंट चलाया और राजनीति में आकर चमके. हालांकि, ये अलायंस वाली दोस्ती ज्यादा दिन तक नहीं चल सकी और केजरीवाल को 49 दिन में ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. जानिए कैसा रहा 2013 का विधानसभा चुनाव...
दिल्ली में ये पांचवां चुनाव था. 1993 में पहली बार बीजेपी जीती. विपक्ष में कांग्रेस बैठी. 1998 में सत्ता विरोधी लहर में बीजेपी हार गई और कांग्रेस ने पहली बार जीत हासिल की. उसके बाद कांग्रेस ने 2003 और 2008 में भी जीत हासिल की. शीला दीक्षित ने लगातार 15 साल दिल्ली की सरकार का नेतृत्व किया. इस बीच, 2011 में पहली बार जन लोकपाल विधेयक की मांग को लेकर दिल्ली में अन्ना आंदोलन शुरू हो गया. शुरुआत में अप्रैल के महीने में आमरण अनशन 5 दिन चला. उसके बाद 16 अगस्त से अन्ना हजारे दोबारा अनशन पर बैठे. उसके बाद देशभर में आंदोलन शुरू हो गए. आखिरकार यह बिल लोकसभा में पास हुआ और अन्ना का आंदोलन खत्म हुआ.
अन्ना आंदोलन में हीरो बन गए केजरीवाल
अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, आतिशी, संजय सिंह, राघव चड्ढा जैसे कई लोग आंदोलन के बाद हीरो बन गए और 2012 में नेता बन गए. इन लोगों ने मिलकर आम आदमी पार्टी बनाई और चुनाव चिह्न 'झाड़ू' मिला. अरविंद केजरीवाल इस पार्टी के संयोजक बने. हालांकि, अन्ना हजारे अपने आंदोलन को राजनीति और राजनेताओं से दूर रखते थे.
2013 में दिल्ली की जनता ने कांग्रेस को नकारा
2013 के चुनाव में केजरीवाल की 'झाड़ू' ने कांग्रेस की सरकार गिरा दी. बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी. BJP ने 31 सीटें जीतीं और 33.3 प्रतिशत वोट हासिल किए. AAP ने अपने पहले चुनाव में 28 सीटें जीतकर चौंका दिया. 29.70 फीसदी वोट शेयरिंग रहा. कांग्रेस 8 सीटों पर सिमट गई. हालांकि 24.70 फीसदी वोट हासिल किए. शिरोमणि अकाली दल, जनता दल (यूनाइटेड) और निर्दलीय ने एक-एक सीट पर जीत हासिल की. बसपा का खाता नहीं खुल सका और सिर्फ दो सीटों पर दूसरे नंबर पर रही. बसपा का जनाधार भी खिसक गया और सिर्फ 5.4% फीसदी ही वोट हासिल कर सकी. जबकि 2008 में बसपा ने 2 सीटें जीतीं और 14 फीसदी वोट हासिल किए थे.
स्विंग वोटर्स ने कर दिया बड़ा खेल
जानकारों ने कहा कि दिल्ली चुनाव में स्विंग वोटर्स ने बड़ा खेल कर दिया और कांग्रेस गच्चा खा गई. कांग्रेस का बड़ा वोट बैंक AAP में शिफ्ट हो गया. कांग्रेस के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर तो थी ही, अन्ना आंदोलन ने भी केजरीवाल को दिल्ली का हीरो बना दिया. नई दिल्ली सीट से अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की तीन बार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को 25,864 वोटों से चुनाव हरा दिया. केजरीवाल को 44,269 वोट और शीला को 18,405 वोट मिले. बीजेपी के विजेंद्र कुमार ने 17952 वोट हासिल किए. 2013 के चुनाव में कुल तीन महिला उम्मीदवार राखी बिरला, बंदना कुमारी और वीणा आनंद ही जीत हासिल कर पाईं.
पिछले चुनाव (2008) से बीजेपी ने 8 सीटों पर बढ़त हासिल की. हालांकि, वोट शेयर तीन फीसदी गिर गया. लेकिन कांग्रेस और बसपा का ग्राफ पूरी तरह नीचे चला गया. कांग्रेस को 24.7 फीसदी वोट मिले और सीटें सिर्फ 8 की खाते में आईं. जबकि 2008 में कांग्रेस को 40.3 फीसदी वोट मिले थे और 43 सीटें हासिल की थीं. यानी कांग्रेस को स्विंग वोटर्स ने बड़ा झटका दे दिया और सत्ता की चाबी छीन ली.
बीजेपी बनी सबसे बड़ी पार्टी, लेकिन नहीं बना पाई सरकार
चूंकि दिल्ली में 70 विधानसभा सीटें हैं और बहुमत के लिए 36 सीटें होना जरूरी है. बीजेपी सरकार बनाने से 5 सीटें दूर थी. जबकि आम आदमी पार्टी भी बहुमत से 8 सीटें दूर खड़ी थी. कांग्रेस किंगमेकर की भूमिका में आ गई. कांग्रेस ने बीजेपी को समर्थन देने के बजाय AAP को सरकार बनाने का ऑफर दिया और समर्थन देने के लिए तैयार हो गई. AAP के लिए भी कांग्रेस का समर्थन लेना जरूरी हो गया था, लेकिन जनता के बीच गलत संदेश ना जाए, इसलिए AAP ने दिल्ली के लोगों से राय मांगी. कांग्रेस ने AAP को बाहरी समर्थन दिया और केजरीवाल 28 दिसंबर 2013 को मुख्यमंत्री बन गए.
क्यों हार गई कांग्रेस?
2013 के चुनाव में कांग्रेस भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों से घिर गई और जनता ने कांग्रेस को सिरे से नकार दिया. AAP ने दिल्ली की पारंपरिक राजनीति, वीआईपी कल्चर और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया. कांग्रेस सरकार को कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले और अन्य घोटालों पर घेरा. AAP ने बिजली कंपनियों को अनुचित लाभ पहुंचाने के आरोप लगाए. बिजली के बिल और पानी की किल्लत के मुद्दे को अपने एजेंडे का हिस्सा बनाया. गरीब और निम्न मध्यम वर्ग के लोग AAP के मुख्य समर्थक बन गए. केजरीवाल की पार्टी ने मोहल्ला सभाएं कीं और डोर-टू-डोर कैंपेनिंग का तरीका अपनाया. कार्यकर्ताओं की एक नई पीढ़ी को जोड़ा, जिसने चुनाव प्रचार में पूरी ताकत झोंक दी. AAP ने वादा किया कि सत्ता में आने पर वे दिल्ली सरकार के कामकाज को पारदर्शी बनाएंगे. वीआईपी कल्चर (लाल बत्ती, विशेष सुरक्षा) का विरोध किया और यह कहा गया कि AAP के नेता आम जनता की तरह रहेंगे और उनके साथ काम करेंगे.
चुनाव प्रचार में AAP नेता बीजेपी और कांग्रेस दोनों को एक ही व्यवस्था का हिस्सा बताने में सफल रहे और जनता के सामने खुद को एक विकल्प के रूप में पेश कर दिया. दरअसल, दिल्ली के गरीब और झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाकों में पानी की भारी कमी थी. AAP ने हर घर को पर्याप्त और सस्ता पानी उपलब्ध कराने का वादा किया. गरीबों को बिजली, पानी, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवाएं सस्ते दर पर उपलब्ध कराने का वादा किया. 2012 में दिल्ली के निर्भया कांड (गैंगरेप) के बाद महिलाओं की सुरक्षा भी बड़ा मुद्दा बन गया था. AAP ने वादा किया कि वे दिल्ली में पुलिस और प्रशासन के बीच समन्वय सुधारेंगे और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे. सार्वजनिक स्थानों पर सीसीटीवी कैमरे लगवाएंगे और हेल्पलाइन सेवाएं शुरू करेंगे.
'बीजेपी को सत्ता से दूर रखना चाहती थी कांग्रेस'
AAP की जीत को कांग्रेस सरकार के खिलाफ जनता के गुस्से का नतीजा बताया गया. यह पारंपरिक पार्टियों के लिए एक बड़ा झटका माना गया. केजरीवाल ने नई दिल्ली सीट से मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हराकर बड़ा संदेश दिया. जनता ने इसे बदलाव और पारदर्शी राजनीति के लिए समर्थन के रूप में देखा. बीजेपी ने सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन सरकार बनाने का दावा नहीं किया, क्योंकि उसके पास बहुमत नहीं था. अन्य दलों और निर्दलीय विधायकों से समर्थन पाने में भी वह सफल नहीं रही. कांग्रेस ने AAP को बाहर से समर्थन देने की पेशकश की, ताकि बीजेपी को सत्ता से दूर रखा जा सके.
केजरीवाल ने क्यों छोड़ी सरकार...
AAP ने दिल्ली में 28 सीटों के साथ सरकार बनाई, लेकिन कांग्रेस के समर्थन पर निर्भर थी. इस बीच, जनलोकपाल बिल को लेकर केजरीवाल पर दबाव बढ़ा और बीजेपी ने हमले किए तो केजरीवाल घिर गए और उन्होंने 49 दिन बाद यानी 14 फरवरी 2014 को सीएम पद से इस्तीफा दे दिया. AAP ने दिल्ली में जनलोकपाल बिल लाने को अपनी प्राथमिकता बताया था और वादा किया था कि सत्ता में आने पर वे दिल्ली में एक मजबूत और स्वतंत्र लोकपाल की स्थापना करेंगे, जो भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करेगा.
केजरीवाल ने विधानसभा भंग कर नए सिरे से चुनाव कराने की सिफारिश की, लेकिन राष्ट्रपति ने इस सिफारिश को स्वीकार नहीं किया और दिल्ली में 15 फरवरी 2014 को राष्ट्रपति शासन लागू हो गया. केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार का कहना था कि केजरीवाल सरकार विधानसभा में जनलोकपाल पेश करने में असमर्थ रही, जिसके कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया. यह एक वित्त विधेयक था. इसे उपराज्यपाल को केंद्र सरकार की मंजूरी के लिए भेजना जरूरी था, लेकिन राज्य सरकार ने इसका पालन नहीं किया.
जनलोकपाल विधेयक पर नहीं मिला कांग्रेस का साथ
दरअसल, जनलोकपाल बिल को पेश करने के लिए केजरीवाल सरकार को तत्कालीन उपराज्यपाल नजीब जंग की अनुमति लेनी थी. AAP ने बिना अनुमति के इसे विधानसभा में पेश करने की कोशिश की, जिसे बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने अवैध बताते हुए विरोध किया. विधानसभा में बिल पेश नहीं हो सका और इसे समर्थन नहीं मिला. इसे केजरीवाल ने अपने चुनावी वादे और जनता के साथ धोखा माना. केजरीवाल ने आरोप लगाया कि बीजेपी और कांग्रेस ने मिलकर जनलोकपाल बिल पास नहीं होने दिया. उन्होंने कहा कि दोनों दल भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कानून नहीं चाहते थे. केजरीवाल ने कहा कि अगर वे जनलोकपाल बिल पास नहीं करवा सकते, तो उनके पास सरकार में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. एक साल बाद 2015 में दिल्ली में नए सिरे से विधानसभा चुनाव हुए.
2013 में 72 फीसदी उम्मीदवार नहीं बचा पाए जमानत?
दिल्ली विधानसभा चुनाव में 2013 में 1,19,32,069 वोटर्स रजिस्टर्ड थे और 78,24,223 लोगों ने मतदान किया. मतदान भी रिकॉर्ड 65.6% हुआ. 58 सीटें सामान्य थीं और 12 सीटें अनुसूचित जाति वर्ग के लिए रिजर्व रखा गया था. कुल 78 पार्टियों ने चुनाव में 810 उम्मीदवार उतारे थे. 222 निर्दलीय मैदान में थे और सिर्फ एक को जीत मिली और एक उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहा. ये 222 उम्मीदवार सिर्फ 2.9% ही वोट हासिल कर पाए. चुनाव में 587 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. यानी करीब 72.5%उम्मीदवार जमानत नहीं बचा पाए. यदि कोई उम्मीदवार कुल डाले गए वैध वोटों का छठा हिस्सा (16.67%) हासिल नहीं कर पाता है तो उसकी जमानत जब्त हो जाती है.