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डर या बेरुखी....दिल वालों की दिल्ली चुनाव पर जुबां खोलने से क्यों बच रही?

चांदनी चौक में भीड़ इतनी थी कि बाजार में कई बार सड़क तक नहीं दिखती है. लेकिन चुनाव के हर सवाल पर बस चुप्पी मिली. हाथों से बस एक इशारा कि आगे बढ़िए. हमें कुछ नहीं कहना. हर जगह एक जैसी ही चुप्पी कुछ देर बाद अखरने लगी. सवाल यही था कि आखिर लोग बोल क्यों नहीं रहे. इसका जवाब हालांकि जल्द ही मिल गया...

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दिल्ली में 5 फरवरी को वोटिंग.
दिल्ली में 5 फरवरी को वोटिंग.

खुली ज़बान तो ज़र्फ़ उन का हो गया ज़ाहिर
हज़ार भेद छुपा रक्खे थे ख़मोशी में...

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शाद अज़ीमाबादी का ये शेर उस वक्त अचानक जेहन में आ गया जब दिल्ली चुनावों पर aajtak.in की खास सीरीज ‘दिल्ली बोली’ के लिए हम सड़कों पर उतरे. हमारा पहला पड़ाव ही दिल्ली का सबसे बिजी इलाका चांदनी चौक था. ऑफिस से निकले तो उम्मीद थी कि हमेशा शोर में डूबे इस इलाके में सियासी चिल्लाहट भी खूब होगी. लेकिन वहां पहुंचते ही ये भ्रम टूट गया. लेकिन उम्मीदों को धक्का लगने की ये पहली किस्त थी. जैसे-जैसे आगे बढ़े तमाम आकलन ख्याली ही निकले...

चांदनी चौक में भीड़ इतनी थी कि बाजार में कई बार सड़क तक नहीं दिखती है. लेकिन चुनाव के हर सवाल पर बस चुप्पी मिली. हाथों से बस एक इशारा कि आगे बढ़िए. हमें कुछ नहीं कहना. हर जगह एक जैसी ही चुप्पी कुछ देर बाद अखरने लगी. सवाल यही था कि आखिर लोग बोल क्यों नहीं रहे. इसका जवाब हालांकि जल्द ही मिल गया.

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'जो है खुद देख लीजिए...'

55 साल के रामाधीर (बदला हुआ नाम) 15 साल से चांदनी चौक में दुकान लगाते हैं. उन्होंने कहा कि हम रोजी-रोटी वाले लोग हैं. आप मीडिया वाले. हम चुनाव पर बात नहीं कर पाएंगे. आप तो बात करके चले जाओगे, लेकिन हमारे मुंह से कुछ निकला तो मुसीबत हो जाएगी. लोग हमें टारगेट करेंगे. आपको पता नहीं है इस बाजार में अलग-अलग पार्टी के लोगों ने अपने लोगों को लगा रखा है. कुछ दुकानदारों की शक्ल में हैं तो कुछ ग्राहकों की. उनका यही काम है, जिधर माइक दिखे वहां जाओ और अपनी पार्टी के हिसाब से बोलो. 

रामाधीर जो कह रहे थे उसी बात से हम घंटों से जूझ रहे थे. जबसे इस बाजार में आए थे तब से कोई बात करने को तैयार नहीं था. जो कुछ बोलता भी था वो बस इतना कहता कि फलां दुकान पर चले जाओ वो बहुत अच्छा बोलते हैं. उस दुकान पर पहुंचते तो वहां रटे रटाए से जवाब मिलते...ये पैटर्न दिल्ली की कई विधानसभा सीटों पर देखने को मिला. 

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चांदनी चौक से टहलते हुए जब हम बल्लीमारान की गलियों में दाखिल हुए तो मुलाकात असीमा से हुई. घर के बाहर अंगीठी सेंक रहीं असीमा से पहला सवाल था 'आपके इलाके में क्या काम हुआ है'? सुनते ही वह गुस्से में लगभग चीखते हुए बोलीं- 'कुछ नहीं बदलेगा. सारे नेता ऐसे ही हैं. हमारा क्या है हम तो सिर्फ वोट देते हैं. हमारी जिंदगी में कुछ नहीं बदला. किसी से कुछ नहीं होगा. सब सिर्फ बातें करना जानते हैं. हम बस वोट देने के लिए हैं. जिंदगी गुजार दी इन वादों में किसी से कुछ नहीं होगा.' 

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'आवत चुनाव फिर आइ गइलै नेता जी'

बल्लीमारान के बाद हमारा अगला पड़ाव कृष्णा नगर विधानसभा में था. वहां युवाओं के एक टोली से बातचीत शुरू ही की थी कि एक ने प्रचार कर रहे नेताओं-कार्यकर्ताओं के एक समूह की ओर इशारा करते हुए कहा कि 'आवत चुनाव फिर आइ गइलै नेता जी'. अब ये वादों की झड़ी लगाएंगे. ये हमारे पैर पकड़ेंगे और फिर 5 साल हम इनके आगे पीछे डोलेंगे. एक लड़के ने उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि they all are same, इसीलिए मुझे पॉलिटिक्स में इंट्रेस्ट ही नहीं है...मेरे को सिर्फ पैसा कमाना है. सारे नेता एक थाली के चट्टे बट्टे हैं और हम बस इनके चक्कर में लड़ते हैं और कुछ नहीं...

हालांकि, सड़कों पर चुनाव को लेकर कुछ हद तक उत्साह भी दिखा. किसी को किसी पार्टी से उम्मीद है तो किसी को किसी से. सबके अपने मत भी हैं. व्यापारी अपने हिसाब से खुश है तो कोई इस वजह से की उसकी जाति वाले, धर्म वाले को टिकट मिला है. 

इश्तहारों में कितनी बदल गई दिल्ली

दिल्ली की सड़कों पर टहलते हुए अगर आप अपनी नजर उठाकर चलें तो आपको सुखन का ही एहसास होगा. हर ओर दीवारों, खंभों और इमारतों पर दिल्ली को बदल देने का दंभ है. इश्तहारों में हर पार्टियों ने इतने काम किए हैं कि लगता है कि अब कुछ बचा ही नहीं. लेकिन जरा सी नजर नीचे करते ही वक्त और हालात बदल से जाते हैं.

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इस हकीकत को खूब बयां किया 45 वर्षीय सुरेश ने दिया. उन्होंने कहा कि एक रात मैं घर के बाहर था तो दीवार पर बीमारियों के शर्तिया इलाज वाले पोस्टर टूटी दीवारों पर लगे थे. लेकिन जब सुबह मेरी आंख खुली तो वहां झुग्गी पर मकान, फ्री पानी, दिल्ली की तकदीर और तस्वीर बदलने वाले पोस्टर छपे थे. मैं सहम गया कि एक ही रात में दिल्ली इतनी बदल  गई. लेकिन पोस्टर के पीछे उस बीमारी के इलाज का दावा देखकर मैं समझ गया कि ये दावा बस दावा है.

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ब्लेम गेम ऐसा की दिमाग हिल जाए...

दिल्ली में एक कमाल की बात है. आप किसी भी पॉश इलाके में जाएं. अमीर और संपन्न शख्स गंदगी, प्रदूषण के लिए गरीबों और झुग्गियों में रहने वालों को जिम्मेदार मानता है, लेकिन हर सुबह उसी झुग्गी से निकली महिला उनके घर को साफ करने जाती है. यानी गंदगी हटाने वाले को ही गंदगी फैलाने का जिम्मेदार माना जाता है. कहते भी हैं कि ये लोग हट जाएं तो सब साफ है.

दोनों एक दूसरे को ब्लेम भी खूब करते हैं. झुग्गियों में बात करने के लिए जाओ तो क्या महिला क्या बुजुर्ग. हाथ पकड़कर वो अपने घर के अंतिम छोर तक ले जाता है, अपनी समस्याएं दिखाता है बदलाव की उम्मीद जताता है और हताश हो जाता है. वो चाहता है कि जब तक माइक सामने है सब चीख दूं और कह डालूं कि हमारे लिए कुछ नहीं होता बस हम महज एक वोट हैं जिनसे सिर्फ वादे होते हैं.

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लेकिन अमीर बस्तियों में कहानी अलग है. वहां लोगों से बात करने में इंसान को त्रिस्तरीय सुरक्षा से गुजरना होता है. पहले वो बालकनी में खड़े होकर आपको जज करते हैं. एक साथ दर्जनों सवाल पूछते हैं कि कहां से आए हो, क्या बात है... फिर अगर आप उनकी उम्मीद पर  खरे उतरे तो पहले घर का छोटा गेट खुलता है फिर बड़ा वाला फिर अचानक से उनका सबसे मजबूत प्रहरी डॉगी आता है.

लेकिन इन सबके बीच दिल्ली में 5 फरवरी को वोट देने के उत्साह से इनकार नहीं किया जा सकता. लोग तमाम बातों के बाद भी कहते हैं कि वोट देने जरूर जाएंगे.

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