scorecardresearch
 

पश्चिम बंगाल चुनाव: गठबंधन के जरिये वजूद बचाने की कोशिश में कांग्रेस-लेफ्ट

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए राजनीतिक दलों ने अपनी सक्रियता से सूबे की सियासी तपिश को बढ़ा दिया है. बंगाल की सत्ता पर तीन दशक तक कांग्रेस और करीब साढ़े तीन दशक तक वामपंथी दलों का सियासी वर्चस्व कायम रहा, लेकिन प्रदेश के बदले सियासी हालात में दोनों की पार्टियों के सामने अपने सियासी वजूद को बचाए रखने की चुनौती है. 

Advertisement
X
सीताराम येचुरी और राहुल गांधी
सीताराम येचुरी और राहुल गांधी
स्टोरी हाइलाइट्स
  • पश्चिम बंगाल की सत्ता से कांग्रेस 44 सालों से बाहर है
  • बंगाल की सत्ता पर लेफ्ट ने 34 सालों तक राज किया
  • कांग्रेस और लेफ्ट के सामने सियासी वजूद बचाने की चिंता

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव का भले ही औपचारिक ऐलान न हुआ हो, लेकिन राजनीतिक दलों ने अपनी सक्रियता से सूबे की सियासी तपिश को बढ़ा दिया है. बंगाल की सत्ता पर तीन दशक तक कांग्रेस और करीब साढ़े तीन दशक तक वामपंथी दलों का सियासी वर्चस्व कायम रहा, लेकिन प्रदेश के बदले सियासी हालात में दोनों पार्टियों के सामने अपने सियासी वजूद को बचाए रखने की चुनौती है. 

Advertisement

कांग्रेस साल 1977 के चुनाव में सत्ता से बाहर हुई तो आजतक वापसी नहीं कर सकी जबकि लेफ्ट पिछले दस सालों से सत्ता का वनवास झेल रही है. ऐसे में बंगाल के सियासी रण में बीजेपी और टीएमसी के बीच सिमटते चुनाव को त्रिकोणीय बनाने के लिए कांग्रेस और लेफ्ट ने गठबंधन किया है. पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष और लोकसभा में संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने गुरुवार को ऐलान किया कि कांग्रेस और वाम मोर्चा मिलकर पश्चिम बंगाल का चुनाव लड़ेंगे. चौधरी ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने गठबंधन को हरी झंडी दे दी है. 

2016 में भी साथ लड़े थे कांग्रेस-लेफ्ट

बता दें कि पश्चिम बंगाल 2016 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और लेफ्ट ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. लेकिन इसके बाद भी ममता बनर्जी के सामने कोई खास चुनौती नहीं खड़ी कर सके थे. हालांकि, तब कांग्रेस विधानसभा में दूसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और पार्टी ने 44 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि सीपीएम को 26 और बाकी लेफ्ट के घटक दलों को कुछ सीटें मिली थी. बीजेपी महज 3 सीट जीत सकी थी. 

Advertisement

देखें आजतक LIVE TV

पिछले पांच सालों में पश्चिम बंगाल के सियासी हालात काफी बदल गए हैं. मौजूदा विधायकों के पाला बदलने की वजह से कांग्रेस के पास फिलहाल 23 विधायक ही बचे हैं जबकि बीजेपी के पास 16 विधायक हैं. बंगाल में बीजेपी के जबरदस्त राजनीतिक उभार के चलते कांग्रेस और लेफ्ट दोनों के सामने अपने-अपने सियासी आधार को बचाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है.

इसी सियासी मजबूरी या सियासी हालात को देखते हुए एक बार फिर दोनों को साथ आना पड़ा है.  बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट के साथ आने का सीधा मतलब खुद के वजूद को बचाना है, क्योंकि राज्य में सियासी लड़ाई बीजेपी और टीएमसी के बीच नजर आ रही है. 

डाउन हुआ है ग्राफ

दरअसल, 2016 के विधानसभा चुनाव के बाद से बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट दोनों ही पार्टियों का ग्राफ डाउन हुआ है जबकि बीजेपी की राजनीतिक ताकत बढ़ी है. पंचायत चुनाव हो या फिर 2019 का लोकसभा चुनाव, बीजेपी राज्य में दूसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी है. लोकसभा में बीजेपी 18 सीटें और 40 फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रही है. वहीं, कांग्रेस महज 2 सीटें और 5.67 फीसदी वोट पा सकी है जबकि लेफ्ट को 6.34 फीसदी वोट मिले, लेकिन एक भी सीट नहीं जीत सकी थी. 

Advertisement

यही वजह है कि कांग्रेस और वाम मोर्चा ने यह फैसला सोच-समझकर लिया है.  दोनों दल इस बात को बखूबी जानते हैं कि अगर टीएमसी या बीजेपी में से कोई भी सत्ता में आया तो बंगाल पर उनकी सियासी पकड़ और भी कमजोर हो जाएगी और सत्ता में वापसी का सपना सिर्फ सपना ही बनकर रह जाएगा.

हालांकि, पिछले चुनाव में कांग्रेस और वाम मोर्चा का गठबंधन  टीएमसी को सत्ता में आने से नहीं रोक पाया था. इसके बावजूद दोनों साथ आए हैं, ऐसे में उनके सामने अपने पिछले प्रदर्शन को सिर्फ़ बरकरार रखने की नहीं बल्कि उससे कहीं बेहतर प्रदर्शन करने की चुनौती है. 

 

Advertisement
Advertisement