पश्चिम बंगाल में अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई हैं. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने सियासी समीकरण मजबूत करने में जुट गई हैं. ममता का सबसे ज्यादा जोर राज्य के मतुआ समुदाय पर है, जिसे बीजेपी सीएए के जरिए अपने पाले में करने का दांव पहले ही चल चुकी है. इस तरह बीजेपी और टीएमसी के बीच मतुआ समुदाय को लेकर शह-मात का खेल जारी है.
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चार दिसंबर को सभी जिलों के प्रमुख नेताओं के साथ वर्चुअल बैठक करेंगी. वो सात दिसंबर को पश्चिम मेदिनीपुर में सभा करेंगी जबकि नौ दिसंबर को मतुआ समुदाय के गढ़ नदिया जिले के ठाकुरनगर में सभा को संबोधित करेंगी.
पश्चिम बंगाल की राजनीति में मतुआ समुदाय काफी अहमियत रखता है. बंगाल में अनुसूचित जनजाति की आबादी का दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा है. नदिया और उत्तर व दक्षिण 24 परगना जिले की 70 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर मतुआ समुदाय की जबरदस्त पकड़ है. लेफ्ट को सत्ता से बाहर करने और ममता बनर्जी की सरकार बनवाने में मतुआ समुदाय की अहम भूमिका रही है, लेकिन अब इसे बीजेपी साधने में जुटी है. यही वजह है कि ममता नौ दिसंबर को मतुआ समुदाय के गढ़ नदिया जिले के ठाकुर नगर में एक सभा को संबोधित करेंगी.
मतुआ समुदाय के लोग बंगलादेश से आकर बंगाल में बसे हैं. वे नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के तहत नागरिकता की मांग करते रहे हैं. माना जाता है कि 2019 में इस समुदाय के वोटों के दम पर ही बीजेपी ने 24 परगना इलाके में अच्छी खासी सीटें जीती थीं. ममता बनर्जी ने भी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर पिछले दिनों 25,000 शरणार्थी परिवारों को भूमि के अधिकार प्रदान किए. ममता ने मतुआ विकास बोर्ड और नामशूद्र विकास बोर्ड के लिए क्रमश: 10 करोड़ और पांच करोड़ रुपये भी आवंटित किए.
राजनीतिक विरासत
हरिचंद ठाकुर के वंशजों ने मतुआ संप्रदाय की स्थापना की थी. नॉर्थ 24 परगना जिले के ठाकुर परिवार का राजनीति से लंबा संबंध रहा है. हरिचंद के प्रपौत्र प्रमथ रंजन ठाकुर 1962 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में पश्चिम बंगाल विधानसभा के सदस्य बने थे. प्रमथ की शादी बीणापाणि देवी से 1933 में हुई. बीनापाणि देवी को ही बाद में ‘मतुआ माता’ या ‘बोरो मां’ (बड़ी मां) कहा गया. बीनापाणि देवी का जन्म 1918 में अविभाजित बंगाल के बारीसाल जिले में हुआ था. आजादी के बाद बीणापाणि देवी ठाकुर परिवार के साथ पश्चिम बंगाल आ गईं.
परमार्थ रंजन ठाकुर की विधवा शतायु बीणापाणि देवी आखिर तक इस समुदाय के लिए भाग्य की देवी बनी रहीं. हाल के दिनों में ठाकुर परिवार के कई सदस्यों ने राजनीति में अपना भाग्य आजमाया है और मतुआ महासंघ में अपनी प्रतिष्ठा का इस्तेमाल किया है. नामशूद्र शरणार्थियों की सुविधा के लिए बीनापाणि देवी ने अपने परिवार के साथ मिलकर वर्तमान बांग्लादेश के बॉर्डर पर ठाकुरगंज नाम की एक शरणार्थी बस्ती बसाई. इसमें सीमापार से आने वालों खासतौर पर नामशूद्र शरणार्थियों को रखने का इंतजाम किया गया.
मतुआ परिवार ने अपने बढ़ते प्रभाव के चलते राजनीति में एंट्री ली. 1962 में परमार्थ रंजन ठाकुर ने पश्चिम बंगाल के नादिया जिले की अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व सीट हंसखली से विधानसभा का चुनाव जीता. मतुआ संप्रदाय की राजनैतिक हैसियत के चलते नादिया जिले के आसपास और बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाके में मतुआ संप्रदाय का प्रभाव लगातार मजबूत होता चला गया.
परमार्थ रंजन ठाकुर की सन 1990 में मृत्यु हो गई. इसके बाद बीनापाणि देवी ने मतुआ महासभा के सलाहकार की भूमिका संभाली. संप्रदाय से जुड़े लोग उन्हें देवी की तरह मानने लगे. 5 मार्च 2019 को मतुआ माता बीनापाणि देवी का निधन हो गया. प. बंगाल सरकार ने उनका अंतिम संस्कार पूरे सम्मान के साथ करवाया.
2010 में ममता बनर्जी से बढ़ी नजदीकी
माता बीनापाणि देवी की नजदीकी साल 2010 में ममता बनर्जी से बढ़ी. बीनापाणि देवी ने 15 मार्च 2010 को ममता बनर्जी को मतुआ संप्रदाय का संरक्षक घोषित किया. इसे औपचारिक तौर पर ममता बनर्जी का राजनीतिक समर्थन माना गया. ममता की तृणमूल कांग्रेस को लेफ्ट के खिलाफ माहौल बनाने में मतुआ संप्रदाय का समर्थन मिला और 2011 में ममता बनर्जी प. बंगाल की चीफ मिनिस्टर बनीं.
साल 2014 में बीनापाणि देवी के बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर ने तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर बनगांव लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और संसद पहुंचे. कपिल कृष्ण ठाकुर का 2015 में निधन हो गया. उसके बाद उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर ने यह सीट 2015 उपचुनावों में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर जीती. मतुआ माता के निधन के बाद परिवार में राजनैतिक बंटवारा खुलकर दिखने लगा. उनके छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर ने बीजेपी का दामन थाम लिया. 2019 में मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर बीजेपी के टिकट पर बनगांव से सांसद बन गए.