पश्चिम बंगाल में चुनाव की घोषणा हो गई है. यहं पर आठ फेज में चुनाव होगा. 27 मार्च को पहले चरण की वोटिंग होगी. एक अप्रैल को दूसरे फेज का मतदान, 6 अप्रैल को तीसरे फेज का मतदान, 10 अप्रैल को चौथे फेज का मतदान, 17 अप्रैल को पांचवे फेज का मतदान, 22 अप्रैल को छठे फेज का मतदान, 26 अप्रैल को सातवें फेज का मतदान और 29 अप्रैल को आखिरी आठवें फेज का मतदान होगा. 2016 के चुनाव में तीन सीट जीतने वाली बीजेपी इस बार टीएमसी के लिए मुख्य प्रतिद्वंद्वी नजर आ रही है.
बंगाल में विधानसभा की 294 सीटें है. पिछले चुनाव में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 211 सीटों पर जीत दर्ज की थी. दूसरे नंबर पर कांग्रेस थी, जो सिर्फ 44 सीट जीतने में कामयाब रही थी. आइए एक नजर डालते हैं पश्चिम बंगाल चुनाव के 3 बड़े फैक्टर पर, जो इस बार के चुनाव को अलग बनाते हैं.
पश्चिम बंगाल में पहली बार जाति का फैक्टर सामने आया है. एक ओर जहां मतुआ समुदाय बड़ा फैक्टर साबित हो रहा है वहीं आदिवासी और कुर्मी समाज पर भी लोगों की नजर है. पश्चिम बंगाल में खास तौर पर नदिया और उत्तर 24 परगना जिले में लगभग डेढ़ करोड़ मतुआ समुदाय के लोग रहते हैं.
इस बार दोनों ही पार्टियां इस समुदाय का वोट लेने की कोशिश में हैं. वहीं जंगलमहल के जिलों में आदिवासी और कुर्मी समाज का वोट भी बेहद अहम माना जा रहा है.
जाति फैक्टर
बीजेपी बंगाल की तमाम जातियों को साधने की कवायद में है. इसी कड़ी में मतुआ समुदाय जो बंगाल में अनुसूचित जनजाति की आबादी का दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा है, जिसे जोड़ने के लिए बीजेपी हरसंभव कोशिश में जुटी है. बीजेपी नेता मतुआ समुदाय के लोगों के घरों में जाकर भोजन कर रहे हैं और उन्हें सीएए कानून के तहत भारत की नागरिकता दिलाने का वादा भी कर रहे हैं.
मतुआ समुदाय का बंगाल की 70 विधानसभा सीटों पर असर हैं, जिनमें नदिया इलाके की 17 विधानसभा सींटें हैं और उत्तर व दक्षिण 24 परगना में 64 सीटें हैं. उत्तर 24 परगना इलाके में बीजेपी का चेहरा टीएमसी से आए दिग्गज नेता मुकुल रॉय हैं तो दक्षिण 24 परगना में शांतनु ठाकुर और टीएमसी से आए शुभेंदु अधिकारी कमान संभाले हुए हैं.
साल 2016 के चुनाव में इन दोनों इलाके में टीएमसी ने क्लीन स्वीप किया था, लेकिन इस बार बीजेपी एक बड़ी चुनौती बन गई है. यही वजह है कि ममता बनर्जी मतुआ समुदाय के वोटों को लेकर इस बार पहले की तरह कॉन्फिडेंट नहीं दिख रही हैं. हालांकि, ममता बनर्जी भी मतुआ समुदाय को अपने साथ जोड़े रखने के लिए तमाम जतन कर रही हैं.
पहले फेज के चुनाव के लिए जंगलमहल के जिलों को चुना गया है. जहां पर कुर्मी और आदिवासी समाज के वोट ज्यादा हैं. यहां पर पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बढ़त मिली थी. सेकंड फेज में अगर हम देखें तो जंगलमहल की कुछ जिले और 24 परगना में चुनाव होंगे.
जंगल महल में आदिवासी और कुर्मी समाज के वोट और पूर्वी मिदनापुर और दक्षिण 24 परगना में अल्पसंख्यक वोट भी मायने रखते हैं.
बाहरी बनाम बंगाली
इस बार के पश्चिम बंगाल चुनाव में ‘बाहरी बनाम बंगाली’ का मुद्दा भी प्रमुख रूप से सामने आया है. इसे बंगाली अस्मिता से जोड़कर देखा जा रहा है. ममता बनर्जी इसका फायदा उठाती दिख रही हैं. वे BJP के नेताओं को बाहरी बता रही हैं. दूसरी तरफ, इसके जवाब में बीजेपी बंगाल के महानायकों को अपने से जोड़ कर दिखाने की कोशिश में जुटी हुई है.
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी 'बंगाल की बेटी' के नारे के साथ पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव लड़ेंगी. माना जा रहा है कि टीएमसी ने इस नारे के साथ 'स्थानीय बनाम बाहरी' के मुद्दे पर बहस को और बढ़ाया है. इस नए नारे के साथ ममता बनर्जी की फोटो वाले होर्डिंग्स पूरे कोलकाता में लगाए गए हैं.
टीएमसी ने ईएम बाईपास के पास स्थित अपने मुख्यालय से आधिकारिक रूप से इसकी शुरुआत की है. एक समाचार एजेंसी के मुताबिक टीएमसी के महासचिव पार्थ चटर्जी ने कहा, 'राज्य के लोग अपनी बेटी चाहते हैं जो पिछले कई वर्षों से सीएम के रूप में उनके साथ है. हम बंगाल में किसी बाहरी को नहीं लाना चाहते हैं.'
हिंसा
पश्चिम बंगाल चुनाव में इस बार चुनावी हिंसा भी एक बड़ा फैक्टर है. बताया जा रहा है कि बंगाल की राजनीति के ‘रक्त चरित्र’ होने की वजह से ही इस बार 8 चरणों में चुनाव की घोषणा की गई है. बताया जा रहा है कि भाजपा चाहती थी कि चुनाव कई चरणों में हो ताकि चुनाव में हिंसा को रोका जा सके और बिना भय के माहौल में वोटर मतदान कर सकें. चुनाव आयोग के लिए यह बड़ा चैलेंज है कि किस तरह पश्चिम बंगाल के चुनाव को हिंसा मुक्त रखा जाए. पिछली बार पश्चिम बंगाल में छह चरणों में चुनाव हुआ था. उस वक्त भी ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार पर सौतेला व्यवहार करने का आरोप लगाया था और इस बार भी.
पश्चिम बंगाल में हिंसा की शुरुआत 70 के दशक में हुई जब सीपीएम उभर रही थी. फिर वो दौर भी आया जब 90 के दशक के अंतिम वर्षों में तृणमूल ने सीपीएम को चुनौती दी थी. बदला नहीं, बदल चाई यानी बदला नहीं, परिवर्तन चाहिए का नारा देकर ममता बनर्जी 2011 में राज्य की सत्ता में आई थीं. समय बीतने के साथ ममता बनर्जी ने सीपीएम के उन नेताओं और कैडर को अपने साथ जोड़ लिया जो लेफ्ट के जमाने में चुनावी मशीनरी को कंट्रोल करते थे.
नतीजा ये हुआ कि ममता बनर्जी पर उन्हीं हथकंडों का इस्तेमाल करने के आरोप लगे जिनके खिलाफ वो लेफ्ट से लड़ती रहीं. 2019 के लोकसभा चुनावों में जहां देश भर से चुनावी हिंसा की छिटपुट खबरें आईं वहीं बंगाल में हिंसा की खबरें सुर्खियों में रहीं. जंगीपुर, मुर्शिदाबाद और मालदा में जमकर बमबाजी, गोलीबारी हुई थी. वोटरों को डराने के लिए अपराधियों ने हवा में गोली चलाई और बम फेंके. ये ममता बनर्जी के बंगाल में हो रहा था जो बंगाल में सात चरणों में लोकसभा चुनाव कराने का विरोध कर रही थीं.