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बिहार विधानसभा चुनाव

​बिहार के मढ़ौरा में ऐसे हुआ उद्योगों का अंत, कभी देश के औद्योगिक सेंटर के रूप में थी पहचान

सरकार की उदासीनता के चलते लग गये ताले.
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बिहार के चुनाव में बेरोजगारी का शोर सुनाई दे रहा है. यहां बंद हुए उद्योगों पर राजनीति हो रही है. 15-15 साल के कार्यकाल का लेखा जोखा दिया जा रहा है, लेकिन ये हालात पैदा ​कैसे हुए. बिहार की राजनीति में आज जो पलायन, बेरोजगारी के मुद्दे हैं, उसी बिहार के मढ़ौरा की देश में औद्योगिक सेंटर के रूप में पहचान थी. लेकिन समय के साथ ये पहचान खत्म हो गई. सरकार की उदासीनता के चलते यहां के उद्योग धंधे बंद हो गए.

सरकार की उदासीनता के चलते पड़ गये ताले .
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बिहार की राजधानी पटना से 80 किलोमीटर दूर मढ़ौरा की बात करें, तो यहां के लोग विकास और नौकरी की समस्या से जूझते नजर आ रहे हैं. लेकिन एक समय वो था, जब मढ़ौरा निवेश, उद्योगों और नौकरियों के साथ अपनी अलग पहचान बना चुका था. एक बड़े बिजनेस हब के रूप में पहचान बनाने वाले मढ़ौरा में बसने के लिए पूरे बिहार से लोग आने लगे, लेकिन अब हालात पूरी तरह बदल गए हैं. यहां के उद्योग जगत की मुख्य सड़क पर आज सरकारी नौकरियों के आवेदन बेचने वाले, लिट्टी - चोखा के ठेले और खिलौने की फेरी लगाने वालों के अतिक्रमण का जाल दिखाई देता है. 

मॉर्टन चॉकलेट फैक्ट्री की देश में थी पहचान.
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इंग्लैंड की कंपनी इस तरह हुई बंद
इंग्लैंड की कंपनी C & E मॉर्टन प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सैनिकों को डिब्बाबंद भोजन की अपूर्ति करती थी. इस कंपनी के विदेशी विस्तार योजना के तहत मॉर्टन कंपनी को भारत में लाया गया. इस कंपनी ने 90 के दशक में बिहार के मढ़ौरा में विभिन्न प्रकार के कन्फेक्शनरी का निर्माण शुरू किया और कंपनी के उत्पादों को "मॉर्टन" नाम से बेचा. कंपनी की इस सफलता के बाद यहां अन्य कंपनियों ने भी निवेश करना शुरू कर दिया. 

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सरकार की उदासीनता के चलते पड़ गये ताले
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मढ़ौरा में दो नदियों के चलते पानी की कोई समस्या नहीं थी, जिसके चलते यहां गन्ने की खेती को बढ़ावा दिया गया. 1920 में कानपुर की Cawnpore शुगर फैक्ट्री ने मॉर्टन के बगल में ही अपना बेस स्थापित कर दिया. इसके अलावा यहां इस कंपनी ने अपना खुद का पावर प्लांट स्थापित करके विस्तार किया. इंग्लैंड से स्टीम इंजन और गन्ने और शक्कर के लिए 20 बोगियों की खरीद की गई. मॉर्टन कंपनी ने धीरे धीरे भारत के बजार में अपनी एक बड़ी जगह बना ली. इसके बाद भारत के एक बड़े घराने द्वारा इस कपंनी को खरीदा गया, जिसके बाद मॉर्टन एक भारतीय कंपनी बन गई, लेकिन खराब बुनियादी ढांचे, श्रम की परेशानी और सरकारी उदासीनता ने कंपनी को दिवालियापन की ओर धकेल दिया. इस चॉकलेट फैक्ट्री पर ताला लग गया और बिहार के एक और उद्योग की बदहाली की कहानी में ये दास्तान भी जुड़ गई.

सरकार की उदासीनता के चलते पड़ गये ताले.
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अब खंडहर के रूप में बचे अवशेष
वर्तमान समय में मॉर्टन की बात की जाए, तो इस फैक्ट्री के अवशेष एक खंडहर के रूप में दिखाई देते हैं. आज यहां एक 20x20 फीट का ऑफिस ब्लॉक, कुछ टॉफी के रैपर के अलावा टूटी दीवारें देखी जा सकती हैं. मॉर्टन फैक्ट्री के गार्ड कामाख्या सिंह ने बताया कि सरकार ने कभी इस कारखाने को पुनर्जीवत करने का प्रयास ​नहीं किया, जिससे यहां के लोगों को रोजगार मिले और हजारों लोगों को जीवन यापन करने में मदद मिल सके. उन्होंने कहा कि जो आज पूछ रहे हैं, बिहार में का बा, उनके समय में फैक्ट्री बंद हुई. जो आज कहते हैं, बिहार में बहुत बा, उन्होंने भी कुछ नहीं किया.

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