बिहार चुनाव से कुछ महीने पहले से वहां पर राजनीतिक हलचल तेज हो गई. गठबंधनों में दरार पड़ने लगी. पुरानी दुश्मनी छोड़कर नई दोस्ती होने लगी. पहले जो नेता या पार्टी किसी गठबंधन का हिस्सा थी, अब वो किसी और गठबंधन में जा मिली है. इस बदलते राजनीतिक समीकरण के बीच सभी दलों को एक बड़ी दिक्कत आने वाली है. ये दिक्कत है सीट बंटवारे की. कैसे नए दोस्त को उसकी पसंद वाली सीट दी जाए. कैसे अपने पुराने साथियों को खुश किया जाए.
साल 2015 के विधानसभा चुनाव में जो रिजल्ट आया था, वह इसी तरह से था. कई सीटों पर भाजपा-जदयू के अलावा जदयू-लोजपा, हम-जदयू-रालोसपा और राजद ने एक-दूसरे को टक्कर दी थी. लेकिन इस बार चुनाव में गठबंधन बदलकर अब कई पार्टियां उत्तरी ध्रुव से दक्षिण ध्रुव की तरफ चली गई हैं यानी अपना गठबंधन बदल लिया है.
रालोसपा एनडीए गठबंधन से अलग होकर राजद के साथ खड़ी है. बिहार में जदयू अब एनडीए की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है. ऐसा मामला भाजपा और जदयू की 52 सीटों पर है. इसके अलावा अन्य पार्टियों की भी 46 सीटों को लेकर दुविधा है. न जाने कौन सी सीट किस पार्टी या नेता की झोली में जाएगी. कौन सी सीट किस पार्टी को मिलनी चाहिए, इसे लेकर विवाद बढ़ेगा.
पिछली बार 21 सीटों पर जदयू और लोजपा आमने-सामने थीं. ज्यादातर सीटों पर जदयू ने कब्जा जमाया था. कुछ सीटों पर लोजपा को कम वोटों से हार का सामना करना पड़ा था. सिर्फ लालगंज सीट पर ही लोजपा को जीत मिली थी.
अब ऐसी स्थिति में बेलसंड, बाबूबरही, त्रिवेणीगंज, इमामगंज, ठाकुरगंज, आलमनगर, सोनबरसा, सिमरी बख्तियारपुर, कुशेश्वर स्थान, गौरा-बौराम, कुचईकोट, बरहरिया, लालगंज, कल्याणपुर, वारिसनगर, चेरी, बरियारपुर, बेल्दौर, नाथनगर, जमालपुर, आस्थावान, हरनौथ और रफीगंज जैसी सीटों पर इस बार भी दिक्कत आ सकती है.