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जमींदारी हटाई, दलितों के लिए लाठी खाई, तब सामाजिक न्याय के प्रतीक बने बिहार के पहले CM श्री बाबू

श्री कृष्ण सिंह कभी भी जातिगत श्रेष्ठता के आवरण में नहीं पड़े, कभी जाति सम्मेलन में नहीं गए, तब बिहार में जितने बड़े जमींदार थे, उनमें लगभग अस्सी फीसदी भूमिहार जाति से आते थे. श्री बाबू ने जमींदारी प्रथा के उन्मूलन में इस तथ्य को कभी सामने नहीं आने दिया.

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बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह
बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह
स्टोरी हाइलाइट्स
  • क्रांतिकारी युवामन, दूरदर्शी नेता रहे श्रीकृष्ण सिंह
  • सामाजिक न्याय के अगुवा बने बिहार के पहले CM
  • आरजेडी के आंगन में श्री बाबू की तीसरी पीढ़ी

साल 1912 का वक्त था. ब्रिटेन के सम्राट जॉर्ज पंचम भारत आए हुए थे. इसी दौरान जॉर्ज पंचम का पटना दौरा हुआ. जॉर्ज पंचम नाव पर सवार होकर गंगा भ्रमण पर निकले. इंग्लैंड से आए इस राजा को देखने के लिए पटना शहर के हजारों लोग गंगा के तट के किनारे पहुंच गए थे. 

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इसी दौरान पटना कॉलेज के एक छात्र के मन में बड़ी उथल-पुथल मची हुई थी. उन्हें ब्रिटिश राजा का आगमन तनिक भी नहीं सुहा रहा था. उनके कॉलेज और हॉस्टल के साथी भी जॉर्ज पंचम को देखने पहुंच गए. लेकिन इस छात्र ने अपने आप को कमरे में बंद कर लिया. उन्हें ब्रितानी हुकूमत से इतनी चिढ़ थी कि कहीं बादशाह की छाया उन पर न पड़ जाए, इस संभावित दोष से बचने के लिए उन्होंने अपनी कोठरी की खिड़कियां भी बंद कर ली, और तबतक ऐसे रहे जबतक जॉर्ज पंचम का काफिला गंगा से काफी दूर न चला गया. 

ये छात्र था श्री कृष्ण सिंह. ये वही श्री कृष्ण सिंह थे जो श्री बाबू के नाम से प्रसिद्ध हुए और राजनीतिक जीवन में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री बने.  

सामाजिक न्याय के अगुवा

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श्री कृष्ण सिंह का जीवन सामाजिक न्याय और बिहार के संघर्ष की कहानी है. श्री बाबू सामाजिक न्याय के कर्णधार थे. वो भूमिहार समाज से आते थे. बिहार की ये जाति जमीनों का मालिक समझी जाती है. इस जाति से कई लोग जंमीदार थे. लेकिन आप जानकर अचरज में पड़ सकते हैं कि जब श्री कृष्ण सिंह बिहार के सीएम थे तो उन्होंने अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में बिहार से जमींदारी प्रथा का खात्मा कर दिया. श्रीबाबू के नेतृत्व में बिहार जमींदारी प्रथा को खत्म करने वाला पहला राज्य बना. 

कांग्रेस नेता श्याम सुंदर धीरज कहते हैं कि श्री कृष्ण सिंह कभी भी जातिगत श्रेष्ठता के आवरण में नहीं पड़े, कभी जाति सम्मेलन में नहीं गए. एक अखबार के साथ बातचीत में उन्होंने कहा था, "तब बिहार में जितने बड़े जमींदार थे, उनमें लगभग अस्सी फीसदी भूमिहार जाति से आते थे. श्री बाबू जमींदारी प्रथा के उन्मूलन में इस तथ्य को कभी सामने नहीं आने दिया और जमींदारी प्रथा को खत्म कर दिया."

बाबा धाम में दलितों का प्रवेश 

सामाजिक न्याय के प्रति श्री बाबू की प्रतिबद्धता का एक उदाहरण देवघर स्थित बैद्यनाथ धाम में दलितों के प्रवेश से जुड़ा है. इस विश्व प्रसिद्ध मंदिर में दलितों के प्रवेश को लेकर उन्होंने मुहिम चलाई. इसे लेकर उन्हें लाठियां भी खानी पड़ीं. लेकिन श्रीबाबू अपने मिशन से नहीं डिगे. इसके लिए उन्हें अपने गांव और घर में भी विरोध झेलना पड़ा. श्रीबाबू का मिशन तब पूरा हुआ जब बाबा धाम मंदिर में दलितों को प्रवेश मिला. 

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श्री कृष्ण सिंह, साथ में हैं मोरार जी देसाई (फोटो- Bihar chamber)

आरजेडी के आंगन में सियासी ठौर की तलाश

बिहार में अभी जब चुनाव का शोर चल रहा है तो श्रीबाबू की मौजूदा पीढ़ी का जिक्र जरूरी हो जाता है. जिन श्रीबाबू को आधुनिक बिहार का निर्माता माना जाता है, उनके वारिश बिहार की भीषण राजनीतिक प्रतिद्वन्दिता में अपना वजूद तलाश रहे हैं. श्री कृष्ण के परपोते कभी एनसीपी, कभी निर्दलीय तो कभी आरजेडी के आंगन में अपनी सियासी ठौर तलाश रहे हैं. 

पटना के वरिष्ठ पत्रकार सुनील पांडेय कहते हैं कि जो श्रीबाबू अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से अंत तक खांटी कांग्रेसी रहे उनके परपोते अनिल कुमार सिन्हा हाल ही में राष्ट्रीय जनता दल में शामिल हो गए हैं. सुनील पांडेय बताते हैं कि श्री बाबू की राजनीतिक आभा की बात ही कुछ और थी, आज की राजनीति में जिस चातुर्य और मेधा की जरूरत होती है श्री बाबू के वंशज उस कला में पिछड़ गए. लिहाजा उन्हें कांग्रेस से इतर कई विचारधाराओं के सामने अपनी स्वीकार्यता की गुहार लगानी पड़ रही है."

अनिल कुमार सिन्हा इसी साल फरवरी में तेजस्वी यादव की मौजूदगी में आरजेडी में आ गए थे. इस दौरान अनिल कुमार सिन्हा ने कहा था कि तेजस्वी यादव ने श्रीबाबू के परिवार को सम्मान दिया है, बाकी लोगों ने केवल उनके नाम का फायदा उठाया. 

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बता दें कि अनिल सिन्हा साल 2015 में बरबीघा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ चुके हैं. तब उन्होंने एनसीपी के टिकट पर चुनाव लड़ा था. बरबीघा में ही श्रीबाबू का बचपन गुजरा था. 2015 में एक और रोमांचक वाकया हुआ था. तब इसी सीट से श्रीबाबू के एक दूसरे परपोते अमृतांश आनंद अपने ही भाई अनिल सिन्हा के खिलाफ निर्दलीय चुनाव लड़ रहे थे. हालांकि इस चुनाव में इन दोनों भाइयों में से किसी को जीत नहीं मिली थी. 2015 में इस सीट से कांग्रेस उम्मीदवार सुदर्शन कुमार विजयी हुए थे. अमृतांश आनंद बिहार के पूर्व पुलिस चीफ आनंद शंकर के बेटे हैं. 

बचपन में गुजर गईं मां

श्री कृष्ण सिंह का जन्म 21 अक्टूबर 1887 को बिहार के नवादा में हुआ था. नवादा उनका ननिहाल था. लेकिन उनका बचपन तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी के तहत आने वाले मुंगेर जिले के बरबीघा के माउर में गुजरा. ये इलाका अब बिहार के शेखपुरा जिले में पड़ता है. श्री बाबू जब 5 साल के ही थे तो प्लेग की वजह से उनका मां का निधन हो गया. उनकी पढ़ाई गांव और मुंगेर जिला स्कूल में हुई. 1906 में उन्होंने पटना कॉलेज में दाखिला लिया. पटना में उन्होंने एमए और कानून की उपाधि ली. 

शहर के वकालतखाने में जोशीला युवा आया है

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1916 में कॉलेज की शिक्षा समाप्त कर वे अपने गृहनगर मुंगेर लौट आए और यहां पर वकालत शुरू कर दी. ओजस्वी प्रतिभा के धनी श्री बाबू की चर्चा मुंगेर में जल्द ही होने लगी. लोग कहने लगे कि शहर के वकालतखाने में एक जोशीला युवा आया है. 

1916 में ही बनारस के सेंट्रल हिन्दू कॉलेज में श्री कृष्ण सिंह की मुलाकात गांधी जी से हुई. 1921 में बापू ने देश की आजादी के लिए जब असहयोग आंदोलन शुरू किया तो इन्होंने वकालत के पेशे को छोड़ दिया और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. तब तक श्री बाबू का कांग्रेस से नाता जुड़ चुका था. उन्होंने मुंगेर के गांव-ज्वार का दौरा किया. कई बार पैदल चले तो कभी बैलगाड़ी से यात्राएं की. इस दौरान उनके नेतृत्व कौशल का विकास हुआ.

शरीर पर गिरा नमक का खौलता पानी

बिहार में श्री बाबू की लोकप्रियता बढ़ी तो उन्हें बिहार केसरी कहा जाने लगा. 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान वे काफी सक्रिय रहे. गांधी जी के आह्वान पर श्री कृष्ण सिंह ने मुंगेर से गंगा नदी पार कर लगभग 100 किलोमीटर लंबी पदयात्रा की और गढ़पुरा पहुंचे. यहां दुर्गा गाछी में अपने सहयोगियों के साथ अंग्रेजों के नमक कानून को तोड़ा था. इस दरम्यान ब्रिटिश पुलिस ने उनपर असह्य जुल्म ढहाया. श्री बाबू का शरीर नमक के खौलते पानी से जल गया था, पर वह हार नहीं माने थे. श्री बाबू को ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. 

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1933 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें हजारीबाग जेल भेज दिया गया. 1937 में वे बिहार असेम्बली के सदस्य चुने गए. 1937 में ही श्री बाबू केंद्रीय असेम्बली के सदस्य चुने गए. 20 जुलाई 1937 को वे बिहार प्रांत के मुख्यमंत्री बने. 

बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह (फोटो- Bihar chamber)

सीएम बनने के बाद ब्रिटिश सरकार ने उनका कई मुद्दों पर तकरार होता रहा. राजनैतिक बंदियों की रिहाई के प्रश्न पर तत्कालीन राज्यपाल से उनका टकराव हुआ इसके बाद उन्होंने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया. 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ होने पर कृष्ण सिंह के मंत्रिमंडल ने त्याग पत्र दे दिया. क्योंकि इस युद्ध में भारत को भारतीय नेताओं की सहमति के बिना झोंक दिया गया था. 

1941 के सत्याग्रह के लिए गांधी जी ने श्री कृष्ण सिंह को बिहार का प्रथम सत्याग्रही नियुक्त किया था. श्री बाबू 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी जेल गए. 

श्री बाबू के कार्यकाल में सर्वश्रेष्ठ प्रशासित राज्य बना बिहार 

1946 में बतौर कांग्रेस नेता श्री कृष्ण सिंह बिहार के मुख्यमंत्री बने और 1961 तक मृत्युपर्यंत इस पद पर रहे. आजादी के बाद श्री बाबू ने सुंदर प्रशासनिक कौशल दिखाया. आजादी के बाद उनके नेतृत्व में अविभाजित बिहार में कई कारखाने, फैक्ट्रियां लगाई गईं. देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने तब दुनिया एडमिनिस्ट्रेशन एक्सपर्ट कहे जाने एपेल्वी महोदय को राज्य सरकारों के कार्यकलापों का निष्पक्ष मूल्यांकन करने के लिए बुलाया था. तब एपेल्वी ने बिहार को सर्वश्रेष्ठ प्रशासित राज्य का तमगा दिया था. 

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दूसरी पंचवर्षीय योजना में औद्योगीकरण का लाभ

आजादी के बाद दूसरी पंचवर्षीय योजना में देश में औद्योगीकरण पर जोर दिया गया. इन पांच सालों में अविभाजित बिहार में कई उद्योग धंधे लगाए गए. श्री बाबू बरौनी रिफाइनरी, बरौनी थर्मल पॉवर प्लांट, एचईसी, बोकारो स्टील प्लांट, दामोदर घाटी निगम, जैसे बड़े कारखानों और प्रोजेक्ट को बिहार लेकर आए. कारखानों से मिली ऊर्जा की प्रवाह से तब बिहार प्रगति के पथ पर चल पड़ा था. 

श्री बाबू बिहार में खेती के विकास के साथ-साथ औद्योगिकरण देखना चाहते थे. इसके लिए सड़क, बिजली का बुनियादी विकास उनकी पहली प्राथमिकता की सूची में था. वे बेगूसराय-बख्तियारपुर-फतुहा के बीच औद्योगिक कॉरिडोर बनाना चाहते थे. बेहतर कनेक्टिविटी के लिए उन्होंने राजेंद्र सेतू की आधारशिला रखी. फतुहा में स्कूटर फैक्ट्री की शुरुआत की. श्री बाबू ने अपने जीवन में मजबूत और सशक्त बिहार का सपना देखा और इसे पूरा करने के लिए वे बड़ी शिद्दत से जुटे रहे. 

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