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उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में क्यों अपना आधार नहीं बना पाई बहुजन समाज पार्टी

कांशीराम ने उत्तर प्रदेश के दलितों के अंदर ऐसी सियासी चेतना जगाई की बसपा चार बार सत्ता पर विराजान हुई, लेकिन यूपी से सटे बिहार में वो अपनी जड़ें जमाने में कामयाब नहीं रहे. बसपा बिहार में कभी भी दो अंकों में सीटें नहीं जीत सकी जबकि यहां 16 फीसदी दलित मतदाता हैं. एक बार फिर बसपा प्रमुख मायावती ने प्रदेश की सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. 

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बसपा प्रमुख मायावती
बसपा प्रमुख मायावती
स्टोरी हाइलाइट्स
  • बिहार में यूपी जैसा दलित आंदोलन नहीं खड़ा हुआ
  • बिहार में बसपा का न जनाधार है न ही कोई चेहरा
  • दो चुनाव से बसपा का बिहार में खाता भी नहीं खुला

बसपा संस्थापक कांशीराम ने उत्तर प्रदेश की सियासत को ऐसे मथा कि सारे राजनीतिक समीकरण उलट-पुलट हो गए. कांशीराम ने सूबे के दलितों के अंदर ऐसी सियासी चेतना जगाई की बसपा चार बार सत्ता पर विराजमान हुई, लेकिन यूपी से सटे बिहार में वो अपनी जड़ें जमाने में कामयाब नहीं रहे. बसपा बिहार में कभी भी दो अंकों में सीटें नहीं जीत सकी जबकि यहां 16 फीसदी दलित मतदाता हैं. एक बार फिर बसपा प्रमुख मायावती ने प्रदेश की सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर रखा है. 

बिहार दलित समीकरण
2011 की जनगणना के अनुसार बिहार में दलित जातियों की 16 प्रतिशत भागीदारी है. 2005 में नीतीश कुमार की सरकार ने 22 में से 21 दलित जातियों को महादलित घोषित कर दिया था और 2018 में पासवान भी महादलित वर्ग में शामिल हो गए. इस हिसाब से बिहार में अब दलित के बदले महादलित जातियां ही रह गयी हैं. सूबे में 16 फीसदी दलित समुदाय में अधिक मुसहर, रविदास और पासवान समाज की जनसंख्या है. वर्तमान में साढ़े पांच फीसदी से अधिक मुसहर, चार फीसदी रविदास और साढ़े तीन फीसदी से अधिक पासवान जाति के लोग हैं. इनके अलावा धोबी, पासी, गोड़ आदि जातियों की भागीदारी अच्छी खासी है. 

बिहार में बसपा का ग्राफ
बिहार में मायावती की बसपा ने साल 2000 के विधानसभा चुनाव में 249 सीटों पर चुनाव लड़ा था और महज 5 सीटों पर जीत मिली थी. इसके बाद अक्तूबर, 2005 के चुनाव में बीएसपी ने 212 प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, जिनमें सिर्फ से चार सीटों पर जीत मिली और पार्टी को 4.17 फीसदी वोट मिले. साल में 2010 में बसपा अपना खाता भी नहीं खोल सकी थी. ऐसे ही 2015 के विधानसभा चुनाव में भी बसपा को कोई सफलता हाथ नहीं लगी जबकि मायावती ने इस चुनाव में 228 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे. 

यूपी से अलग बिहार की राजनीति
दलित चिंतक सुनील कुमार सुमन कहते हैं कि बिहार में दलित राजनीति की अपनी कोई वैचारिक पृष्ठभूमि नहीं है. उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने जिस तरह से दलित समुदाय में राजनीतिक चेतना के लिए संघर्ष किया है वैसा कोई आंदोलन बिहार में नहीं हुआ है. इसीलिए बिहार में दलित राजनीति कभी स्थापित नहीं हो सकी है. इसके अलावा बसपा सिर्फ बिहार में चुनाव लड़ने का काम करती है, यहां उसका न तो कोई जमीनी संगठन है और न ही कोई राजनीति प्लान. चुनाव के दौरान मायावती को बिहार की याद आती है और पांच साल तक कोई चिंता नहीं सताती है. इसके अलावा बिहार में जो भी दलित नेता हैं वो अपनी-अपनी जातियों के नेता भले ही बन गए हों, लेकिन पूरे दलित समुदाय के नेता के तौर पर स्थापित नहीं हो सके हैं. इसीलिए आज उन्हें कोई खास तवज्जो नहीं मिल रही है.

मायावती जैसा कोई नेता नहीं खड़ा हो पाया
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन कहते हैं कि बिहार में दलित राजनीति दूसरे राज्यों से अलग है. बिहार में दलित समुदाय हर चुनाव में अपना मसीहा तलाशता है. कांग्रेस के बाबू जगजीवन राम बिहार में दलितों के बड़े नेता रहे हैं. उनके बाद उनकी बेटी मीरा कुमार ने उनकी विरासत संभाली है जो उतने बड़े जनाधार वाली नेता नहीं बन सकीं. रामविलास पासवान महज अपनी बिरादरी के नेता बनकर रहे गए हैं. इसीलिए हर चुनाव में दलित समुदाय का वोटिंग पैटर्न बदलता रहा है.

वह कहते हैं कि यूपी से लगे हुए बिहार के कुछ इलाके में बसपा का अपना जनाधार है, लेकिन पूरे बिहार में न तो पार्टी खड़ी कर सकी है और न ही कोई सक्रिय भूमिका में कभी दिखी है. इसके पीछे एक वजह यह भी रही है कि कांशीराम ने जितना फोकस यूपी पर किया, उतना बिहार में नहीं कर सके. उन्हें बिहार में मायावती जैसा कोई नेता नहीं मिला, जो उनके मिशन को लेकर राज्य में आगे बढ़ सके. बिहार में दलित नेताओं का भी दायरा सीमित रहा है. यही वजह है कि बिहार में दलित समुदाय की राजनीतिक पहचान यूपी और दूसरे राज्यों की तरह स्थापित नही हो सकी है.

भारत में सबसे ज़्यादा दलित आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश को जहां 1995 में मायावती के रूप में पहली दलित मुख्यमंत्री मिली, वहीं बिहार में दलित नेता भोला पासवान शास्त्री 1968 में ही मुख्यमंत्री पद हासिल कर चुके थे. 1972 तक अलग-अलग समय पर उन्होंने तीन बार मुख्यमंत्री पद संभाला. हालांकि, जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं कि कांशीराम ने दलित आत्मनिर्भर वाली राजनीति की शुरूआत की थी, लेकिन बिहार में सामाजिक न्याय के नारे में दलित बसपा के साथ मजबूती से नहीं जुड़ सका था. 

बिहार में दलित पार्टियां
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार दलित जाति पर अपनी दावेदारी करने वाली कई दलित राजनीतिक पार्टियां मैदान में हैं. एलजेपी, बसपा और हम के अलावा मुकेश सहनी की पार्टी वीआइपी, बामसेफ की बहुजन मुक्ति मोर्चा, यूपी के चंद्रशेखर रावण की पार्टियां चुनावी समर में उतरेंगी. इस बार देखना है कि बसपा अपना खाता खोल पाती है या फिर पिछले चुनाव का इतिहास दोहराएगी? 

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