बिहार विधानसभा चुनाव 2020 को लेकर सियासी हलचल तेज हो गई हैं. महागठबंधन और एनडीए दोनों खेमों में सीट शेयरिंग को लेकर अभी तक कोई समझौता नहीं हो सका है. यही वजह है कि हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतनराम मांझी ने महागठबंधन से नाता तोड़ लिया है. वहीं, सत्ताधारी एनडीए की सहयोगी एलजेपी विधानसभा चुनाव में अपनी भूमिका को लेकर बेताब है. ऐसे में मांझी अगर नीतीश कुमार के साथ हाथ मिलाते हैं तो एनडीए में सहयोगी दलों की संख्या तीन से बढ़कर चार हो जाएगी और सीट शेयरिंग फॉर्मूले को सुलझाना एक बड़ी चुनौती होगी?
मांझी की एंट्री से एनडीए पर पड़ेगा
जीतनराम मांझी के पाला बदलने से बिहार की राजनीति पर तात्कालिक असर पड़ेगा. मांझी के नीतीश के संग आने से एनडीए का सामाजिक समीकरण एक तरफ तो मजबूत होंगे और महादलित समुदाय को साधने में आसानी होगी. वहीं, दूसरी तरफ एनडीए में सीट शेयरिंग को लेकर पेच फंस सकता है. मांझी एनडीए में आते हैं तो घटक दलों की संख्या तीन से बढ़कर चार हो जाएगी. चिराग पासवान सीट शेयरिंग को लेकर पिछले काफी दिनों से नीतीश सरकार के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाए हुए हैं.
ये भी पढ़ें: बिहार में नीतीश के सामने छोटे भाई की भूमिका में रहने को क्यों मजबूर है बीजेपी
चिराग पासवान पिछले विधानसभा चुनाव की तर्ज पर इस बार सीटों का बंटवारा चाहती है, जिस पर नीतीश कुमार सहमत नहीं हैं. 2015 के बिहार चुनाव में एलजेपी ने बीजेपी के सहयोगी के तौर पर 42 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, लेकिन इस बार नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी के बाद एलजेपी को पिछली बार की तरह सीटें मिलने की संभवना नहीं है. 2019 के लोकसभा चुनाव में एलजेपी को बिहार की 40 में से 6 सीटें दी गई थीं. इसके अलावा रामविलास पासवान को बीजेपी ने अपने कोटे से राज्यसभा भेजा था.
एलजेपी के लिए मांझी ने बढ़ाई टेंशन
बिहार की कुल 243 सीटे हैं. लोकसभा चुनाव के पैटर्न के तहत एलजेपी विधानसभा चुनाव में करीब 43 सीटों पर दावेदारी कर रही है, लेकिन इतनी सीटें इस बार मिलना मुमकिन नहीं है. नीतीश के एनडीए में एंट्री के साथ ही एलजेपी को 30 से 32 सीटें मिलने के अनुमान थे, लेकिन मांझी अगर शामिल होते हैं तो यह संख्या और भी कम हो सकती है. यही वजह है कि चिराग पासवान बेताब नजर आ रहे हैं. ऐसे में चिराग पासवान ने नीतीश कुमार के खिलाफ हमलावर हैं.
ये भी पढ़ें: बिहार में नीतीश के लिए क्या ट्रंप कार्ड साबित होंगे जीतनराम मांझी?
किसी भी नेता की मजबूती और कमजोरी का आकलन उसके व्यक्तित्व, माहौल, सामाजिक पकड़, राजनीतिक समीकरण और वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता के आधार पर किया जाता है. फिलहाल, मांझी को उसी तराजू पर नापा-तौला जा रहा है. 2015 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में मांझी इस परीक्षा में फेल रहे हैं. वहीं, दूसरे पलड़े पर एलजेपी के संस्थापक रामविलास पासवान को भी खड़ा किया जा रहा है. पासवान बड़े कद-पद के नेता हैं और अपने समुदाय के वोटों पर अच्छी खासी पकड़ रखते हैं. इसी दम पर वो अपनी राजनीति करते आ रहे हैं.
हालांकि, नीतीश कुमार के साथ आने पर मांझी को भी कम करके नहीं आंका जा सकता. नीतीश कुमार ने उन्हें बिहार में सियासत के शीर्ष पर पहुंचाकर एक ऊंचाई तो दे ही दी है. अपनी बिरादरी का वोट अगर ट्रांसफर करा सके तो मांझी अपनी नाव को मंझधार से बाहर निकालने में सफल भी हो सकते हैं. बिहार में मांझी की जाति का करीब साढ़े तीन फीसदी वोट है, जो काफी अहम भूमिका अदा कर सकता है.
मांझी के जाने से महागठबंधन पर असर
मांझी के अलग होने के बाद महागठबंधन में सहयोगी दलों की संख्या चार हो गई है. महागठबंधन में आरजेडी, कांग्रेस, आरएलएसपी और मुकेश सहनी की वीआईपी पार्टी बची है और वामदलों को साथ लाने की कवायद चल रही है. मांझी के जाने से महागठबंधन में शामिल दलों की सीटों की सूची अब पहले की अपेक्षा थोड़ी लंबी हो सकती है.
मांझी ने अलग राह चुनकर महागठबंधन के रास्ते को सीधा और आसान कर दिया है. मांझी के हिस्से की संभावित सीटों को महागठबंधन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और माले को देकर उन्हें साधने का दांव चल सकता है. माले के पक्ष में आरजेडी तो पहले से ही है. इसीलिए लोकसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने आरजेडी के कोटे की 20 सीटों में से एक माले को दी थी. अब मांझी के अलग होने के एक बार फिर वामपंथी दलों के साथ लाने की पहल महागठबंधन की ओर से की जा सकती है.